अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत और चीन के सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया आधिकारिक वक्तव्यों की तुलना में कहीं अधिक जटिल है। विभिन्न स्रोतों से आई तमाम मीडिया रिपोर्टों में एक ही बात कही गई है और वह यह कि चीन की घुसपैठ बहुत भीतर तक है। वह उससे ज्यादा जगहों पर काबिज है जितनी जगह सरकार ने आधिकारिक तौर पर स्वीकार की है। रिपोर्टों के मुताबिक दोनों देशों के सैनिकों के बीच वाले तथाकथित बफर जोन में भारतीय भूभाग का महत्त्वपूर्ण हिस्सा शामिल है। गत 18 जुलाई तक यानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच सैनिकों के पीछे हटने संबंधी वार्ता शुरू होने के दो सप्ताह बाद समाचार पत्र द हिंदू ने कहा था कि सुरक्षा एजेंसियों द्वारा दोबारा आकलन करने से पता चला है कि चीन के सैनिकों को अभी भी एक प्रमुख पैट्रोलिंग प्वाइंट (जहां तक भारतीय सैनिक गश्त करते हैं) से हटना है। वह जगह भारतीय क्षेत्र में 1.5 किलोमीटर भीतर है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भले ही दमदार ढंग से कहा है कि दुनिया की कोई ताकत हमारी एक इंच जमीन भी छीन नहीं सकती लेकिन चीन के सैनिक अभी भी पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे पर हमारी भूमि पर काबिज हैं। यह इलाका उस जगह से भी बहुत आगे है जिस पर चीन ने सन 1960 में सीमा संबंधी वार्ता में दावा किया था। चूंकि जून में हमारे 20 जवानों ने इन्हीं इलाकों में चीनी सैनिकों के साथ झड़प में शहादत दी थी इसलिए सरकार के लिए यह अहम है कि वह साफ-साफ बताए कि एलएसी के आसपास उसे सीमा पर कितनी दिक्कत हो रही है।
सैनिकों की मौत त्रासद थी और उन्हें टाला जा सकता था। ऐसे में रक्षा प्रतिष्ठान के लिए यह अनिवार्य है कि वह इस बात की समुचित जांच करे कि आखिर उस इलाके में घुसपैठ कैसे हुई जो एलएसी पर भारतीय पक्ष में आता है। यह भी पता लगना चाहिए कि घुसपैठियों का पता लगने में एक महीने का वक्त क्यों लगा। भारतीय सेना को बार-बार खराब खुफिया तंत्र के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। सन 1999 में करगिल से लेकर 2016 में पठानकोट और उड़ी तथा 2019 में पुलवामा इसके उदाहरण हैं। हर बार सैनिकों की जान गई है। जब तक इस बुनियादी कमी को तत्काल दूर नहीं किया जाता है, इतिहास दोहराया जाता रहेगा और भारत को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। चीन द्वारा एलएसी पर सशस्त्र घुसपैठ दरअसल उतरी मोर्चे पर हमारे सामने मौजूद जोखिमों में से केवल एक है। देश के सेवारत और सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों ने यह चिंता भी जताई है कि चीन और पाकिस्तान लद्दाख में भारत के लिए मिलकर परेशानी खड़ी कर सकती हैं। सन 1965 और सन 1971 में चीन ने ऐसा नहीं किया था क्योंकि उस वक्त शीतयुद्ध के कारण आकलन बिगड़ सकता था।
ऐसे में रक्षा बजट में तत्काल इजाफा करना जरूरी है और यह सिलसिला आने वाले वर्षों में जारी रखना होगा। फिलहाल भारत अपने रक्षा बजट का 25 प्रतिशत ही पूंजीगत व्यय में खर्च करता है। पाकिस्तान में यह 37 प्रतिशत और चीन में 41 प्रतिशत है। रक्षा बजट का बड़ा हिस्सा वेतन और पेंशन में जाता है। एक रैंक, एक पेंशन ने बोझ और बढ़ाया है। जाहिर है रक्षा तैयारी बेहतर करने के लिए हमें संसाधन चाहिए। दीर्घावधि की आवश्यकताओं को भी प्राथमिकता में जोडऩा होगा। अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि सुरक्षा के मोर्चे पर खतरा बढ़ा है, चीनी आयात और निवेश पर रोक तथा चीन विरोधी भावना भड़काना कभी भी जरूरत से कम खर्च और कमजोर योजना निर्माण का विकल्प नहीं हो सकता।
