मंगलवार, 4 अप्रैल, 2008 को एक चमत्कार हुआ। अमेरिका ने कई सदियों तक अश्वेत लोगों को दासता से जकड़े रखा था।
यह सिलसिला 1863 तक चला जब दास प्रथा का अंत हुआ लेकिन उसके अगले 100 साल तक अश्वेत लोगों को अलग-थलग रखा गया। ऐसे देश अमेरिका में अफ्रीका मूल के एक अमेरिकी नागरिक को राष्ट्रपति के रूप में चुना गया।
यह सामाजिक-राजनीतिक इतिहास में अचंभे में डाल देने वाला मील का पत्थर है, न केवल अमेरिका के लिए, बल्कि दुनिया के लिए भी। यह बदलाव अमेरिका (और पूरी दुनिया) की स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के आदर्शों के प्रति एक बार फिर आशा की एक किरण जगाता है।
हमारे में से वे ‘शहरी, अंग्रेजीदां भारतीय’ लोग जिन्होंने अपनी वयस्कता के शुरुआती दिन अमेरिका में स्नातक छात्रों और उसके बाद युवा पेशेवरों के रूप में बिताये हैं, उनके लिए यह एक ऐसा क्षण था तो उनके व्यक्तिगत जीवन और यादों में प्रतिध्वनित होता रहेगा।
चालीस साल पहले जब मैं और मेरी पत्नी बोस्टन इलाके में स्नातक के एक छात्र के रूप में थे, अमेरिका एक प्रगतिशील, खुले समाज वाला, समुद्रपार के अन्य बंद समाजों से अलग था। हम लोग ब्रिटेन के जातीय और वर्ग आधारित समाज से अध्ययन के लिए आए थे।
तीन महत्त्वपूर्ण घटनाएं अमेरिका के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को मथ रही थीं। पहला, नागरिक अधिकार के लिए आंदोलन, जिसका नेतृत्व मार्टिन लूथर किंग कर रहे थे, मजबूत हो रहा था। इसने मतदाताओं के अधिकार को पाने में और अन्य मुद्दों पर मदद की। इसकी वजह से लिंडन जॉनसन का ‘ग्रेट सोसाइटी’ रिफार्म आया।
दूसरा आंदोलन महिलाओं के अधिकार को लेकर था, जिसमें उनके सामाजिक और आर्थिक समानता की मांग की जा रही थी। तीसरा, वियतनाम युध्द का विरोध था, जिसने अमेरिका में लोकप्रियता हासिल कर ली थी। हमारे जैसे विदेशी छात्रों के लिए लोकप्रिय प्रतिरोध की शक्ति और प्रगतिशील सामाजिक आंदोलनों, दोनों का महत्त्व था जो बढ़ रहे थे। बदलाव वाले इस लोकतंत्र में कुछ भी संभव लगता था।
इन सबके बाद 1968 में एक निराशा का दौर भी आया। डॉ. किंग और रॉबर्ट केनेडी की हत्या कर दी गई। इसकी वजह से अमेरिका और पूरी दुनिया में नागरिक अधिकारों के आंदोलन को गहरा धक्का लगा। इससे अनुदारवादियों को बढ़त मिली और केनेडी-जॉनसन के वर्षों के नागरिक अधिकारों पर हुई प्रगति पर कुठाराघात किया।
इसके बाद से दक्षिणी राज्यों पर अगले चार दशकों के लिए रिपब्लिकन का कब्जा हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि इसके बाद के 40 वर्षों में 26 साल तक अमेरिका के राष्ट्रपति भवन व्हाइट हाउस पर रिपब्लिकन का कब्जा रहा। वियतनाम का युध्द अगले सात साल तक के लिए और खिंच गया तथा निक्सन और कि सिंजर के कार्यकाल में इसे और तूल दिया गया। बमबारी की गति और बढ़ा दी गई।
आने वाले वर्षों में हमने कहीं ज्यादा सम्मोहन और कुछ घबराहट के साथ देखा कि कंजरवेटिव और उदार विचार और नीतियां गिरावट की ओर हैं। संक्षेप में कहें तो जिमी कार्टर के राष्ट्रपति काल में उदार और अंतरराष्ट्रीयता वादी झुकाव था जो बाद में पूरी तरह से कठोर मुक्त बाजार के विचार और ताकत वाली विदेश नीति में बदल गया।
यह रीगन और बुश (सीनियर) के कार्यकाल में साफ नजर आया। उसके बाद बिल क्लिंटन के दौर में सामाजिक संपर्क को आर्थिक नीतियों में शामिल करने का दौर आया और 1990 के दशक में तेज आर्थिक विकास हुआ। निक्सन के बाद के 25 वर्षों में अमेरिकी राजनीति, समाज और संस्कृति का प्रभाव हमारे उन युवकों पर पड़ा, जिन्होंने वहां पर शिक्षा ग्रहण की और नौकरियां की।
अमेरिका में 911 की घटना के बाद बुश-चेनी-रम्सफेल्ड की रणनीति में अहम बदलाव आया। अमेरिकी सेना की अलकायदा और अफगानिस्तान में तालिबान के प्रति भूमिका बढ़ गई जो स्पष्ट नजर आई (रम्सफेल्ड ने अपनी एक प्रेस ब्रीफिंग में कहा- हम अपनी बमबारी में लक्ष्य से भटक नहीं रहे हैं, अफगानिस्तान उसमें शामिल है)।
हालांकि इराक में निरर्थक हस्तक्षेप एक अलग मामला था। इसमें हजारों की संख्या में सामान्य नागरिकों की मौत हुई, लाखों की संख्या में लोग बेघर हो गए, शरणार्थियों की संख्या बढ़ी, सामाजिक ताने बाने और प्रशासनिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ गईं। यह सब हुआ, वह भी बगैर किसी उचित कारण के।
अफगानिस्तान में 911 की आतंकी तैयारी करने वाले लोगों के खिलाफ सफल सैन्य अभियान चला। बाद में यह अधिकृत रूप से उत्पीड़न और पतन की ओर मुड़ गया (याद करिए अबू गरीब को?), इस्लाम के खिलाफ खुले तौर पर युध्द छेड़ दिया गया।
अमेरिका में ही 2001 में पैट्रियट ऐक्ट के नाम से उत्पीड़नकारी कानून लाया गया, जिसमें नागरिक स्वतंत्रता और कानूनी अधिकारों को महत्त्वहीन कर दिया गया, जो अमेरिका के लोगों को पीढ़ियों से मिलते आए थे। घरेलू स्तर पर अत्याधुनिक तकनीकों से लैस जांच एजेंसिंयों द्वारा सामान्य नागरिकों की जांच एक स्वीकार्य हकीकत का रूप ले चुकी थी।
संदिग्ध आतंकियों की पहचान करने के दौरान किसी भी कानूनी प्रक्रिया का ध्यान नहीं रखा जाता था। और अगर आप ब्राउन, दाढ़ियों वाले और मुस्लिम नाम वाले हैं तो संदिग्ध की श्रेणी में आ जाते थे, उसके बाद भगवान ही आपको बचा सकता था।
बराक ओबामा का चुना जाना वास्तव में एक ऐतिहासिक घटना है। जैसा कि टॉम फ्रेडमैन ने लिखा है, इसने अमेरिका में चल रहे 150 साल पुराने गृह युध्द को खत्म कर दिया। चुनाव की रात टीवी कैमरे अफ्रीकी अमेरिकन इलाकों में थे। वे अमेरिका के शिकागो से लेकर हारलेम और अटलांटा तक मनाई जा रही खुशियों को दिखा रहे थे।
ऐसा करते हुए भी उन्होंने भी शायद बड़ा मसला भुला दिया- अमेरिका में ओबामा की विजय से न केवल बहुसंख्यक अमेरिकी बेहद खुश थे बल्कि यूरोप, एशिया और अफ्रीका के देशों के लाखों-लाख लोग खुश थे। ओबामा मात्र इसलिए विजयी नहीं हुए कि उन्हें काले लोगों का 95 प्रतिशत और 66 प्रतिशत लैटिन लोगों के मत मिले बल्कि उन्हें 43 प्रतिशत श्वेत लोगों के भी मत हासिल हुए।
अगर इतिहास की ओर जाएं तो कुछ इसी तरह का मत प्रतिशत हासिल कर पिछले तीन सफेद डेमोके्रटिक राष्ट्रपति- बिल क्लिंटन, गोर और केरी भी जीते थे। उन्हें इसलिए विजय मिली क्योंकि वे बेहतरीन चिंतक, करिश्माई नेता और बेहतरीन प्रत्याशी थे, जिन्होंने बुश-चेनी की नीति का एक बेहतरीन विकल्प पेश किया।
संयोगवश वे अश्वेत थे। वे इसलिए जीते, क्योंकि अमेरिका के लोगों को यह लगा कि वे ही वास्तव में अमेरिकी आदर्शों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। यह भय पर एक उम्मीद की विजय थी। ओबामा के चुनाव से ऐसा नहीं है कि 1930 के बाद से आई मंदी की समस्या का खुद-ब-खुद समाधान हो जाएगा।
ऐसा भी नहीं है कि इराक से चल रही लड़ाई रातोंरात खत्म हो जाएगी और अमेरिका के लोगों को तत्काल 2001 के पहले की तरह से ही नागरिक अधिकार मिल जाएंगे। न ही अंतरराष्ट्रीय रूप से चर्चा में बने पाकिस्तान, ईरान और पश्चिम एशिया की समस्या खत्म हो जाएगी। न तो पर्यावरण परिवर्तन, ऊर्जा की कमी और अन्य दबावों या अन्य समस्याओं से निजात मिल जाएगी।
लेकिन यह उम्मीद तो बढ़ी ही है कि विश्व का सबसे शक्तिशाली देश अब समस्याओं को गंभीरता के साथ लेगा, अन्य लोगों के विचार लेकर और सभी विकल्पों पर विचार करके उसका समाधान ढूंढेगा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में किसी भी चीज की गारंटी नहीं ली जा सकती है। लेकिन हम यह उम्मीद कर सकते हैं। हां, हम कर सकते हैं।