जरा इस पर गौर कीजिए। 1. साल 2008-09 की चौथी तिमाही में कंपनियों के लिए ब्याज की लागत साल 2007-08 की इसी अवधि के मुकाबले 41 फीसदी ऊंची थी।
प्राइम लैंडिंग रेट (पीएलआर) यानी प्रधान ब्याज दर 11.5 फीसदी से 16.75 फीसदी के बीच थी, लेकिन महंगाई की दर में बहुत ज्यादा गिरावट आ चुकी थी। इससे संकेत मिलता है कि उधारी दर कितनी ज्यादा रही है। कंपनियों का शुध्द लाभ इस तिमाही में राजस्व के 11.7 फीसदी तक नीचे चला गया, जबकि पिछले साल यह 12.7 फीसदी के स्तर पर रहा था।
कल्पना कीजिए कि चौथी तिमाही में लाभ कितना रहा होता, अगर ऋण की दर 4 से 5 फीसदी नीचे होती यानी इसकी उसके मुकाबले एक तिहाई कम और मांग व राजस्व पर सहगामी असर पड़ता।
2. ऋण की वृध्दि दर तीसरी तिमाही के 23 फीसदी के मुकाबले चौथी तिमाही में घटकर 17 फीसदी पर आ गई।
3. छोटी और मझोली इकाइयां 16 फीसदी की ऊंची दर पर ब्याज का भुगतान कर रही हैं। ऋण देने के मामले में बैंकों के हाथ सख्त रहे या उन्होंने ऊंची दर पर ऋण उपलब्ध कराया ताकि बड़ी जोखिम की भरपाई हो सके।
यह पूरी तरह भ्रम में डालने वाला मामला है क्योंकि ऊंची दर से जोखिम में कमी नहीं आती बल्कि इससे जोखिम में इजाफा होता है, वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि ऋण जोखिम की अच्छी तरह से भरपाई हो सके। (मतलब वे ऊंची जोखिम की भरपाई करते हैं और इस जोखिम में बदलाव नहीं होता)
4. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अप्रैल में कहा था – सही मायने में भारत में नीतिगत दर ऊंचे स्तर पर टिकी हुई है और दरों में कटौती ऋण के विकास में सहारा बनकर मदद करेगी।
5. हालांकि साक्ष्यों से यह संकेत मिलता है कि निवेश में कमी आई है, लेकिन सीएमआईई की रिपोर्ट इसमें नियमित इजाफे की बात कह रही है। हालांकि यह निष्कर्ष दो तिहाई निवेश पर आधारित है और बाकी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में मुमकिन है कि एक तिहाई निवेश वैसे 40 फीसदी प्रोजेक्ट के बारे में हो जिसे टाल दिया गया है।
यह अवसर लागत है – एक तिहाई खाली ग्लास को छोड़ दिया गया – जो कि क्षमतावान और हासिल जीडीपी की विकास दर का अंतर है (मतलब 5 से 9 फीसदी के बीच)। सामान्य रूप से यह आंकड़ों की बात है और निश्चित रूप से आरबीआई इससे वाकिफ होगा क्योंकि सार्वजनिक बैंकों में सावधि जमा में इजाफा उधारी दर में बढ़ोतरी के अनुपात में बढ़त का रुझान है।
आरबीआई इस बात को अच्छी तरह समझता होगा कि कैश रिजर्व में कमी उधारी की लागत को घटाता है और आर्थिक वृध्दि के लिए ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित करने की बाबत इसका चार्टर भी यही कहता है।
समस्या कहां है
नकद सुरक्षित अनुपात (सीआरआर) में कटौती और बड़े बैंकों द्वारा अतिरिक्त तरलता आरबीआई के पास जमा करने के बावजूद (रिवर्स रेपो दर पर 1.50 लाख करोड़ रुपये तक) समस्या यह है कि बैंक उधार देने में चौकसी जारी रखे हुए है।
वित्तीय संकट में हुई परेशानी के अलावा इसके कारण हैं – मांग में कमी आई है और इस वजह से परियोजना और एंटरप्राइज का राजस्व कम हो रहा है। कुछ लागत खास तौर से मुद्रा की लागत अब भी ऊंचे स्तर पर टिकी हुई है। इसलिए जब बैंक उधार देते हैं तो ब्याज की दर काफी ऊंची होती है। इसके परिणामस्वरूप मांग में कमी आती है जबकि बिक्री और मुनाफे में कमी आ रही है।
इसका निदान : नीतिगत दरों में कटौती? बैंक दर में कटौती? ऊंची मांग और बेहतर परियोजना वाली अर्थव्यवस्था? उच्च उत्पादन और लाभ? भारतीय रिजर्व बैंक स्पष्ट रूप से सोचता होगा कि उसने पर्याप्त नीतिगत कदम उठाए हैं।
हालांकि अगर हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि भारत की विकास की क्षमता हाल के वर्षों में 8-9 फीसदी रही है (या इससे भी ऊंची) तो इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ऊंची विकास दर की दरकार है और इसे हासिल करने के लिए और कदम उठाए जाने की दरकार है। ऊंची विकास दर ज्यादा रोजगार भी उपलब्ध कराता है।
अगर उत्पादन और मुनाफे में तेजी से बढ़ोतरी होगी तो अर्थव्यवस्था के कंस्ट्रक्शन, इंजीनियरिंग, ट्रैवल आदि सेक्टर रोजगार के अच्छे मौके मुहैया करा सकते है। (मुद्दा यह है कि रोजगार के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत करने की दरकार है और इससे काम की प्रक्रिया आदि में सुधार होगा।
उसी स्थिति में ऐसा होने की उम्मीद की जा सकती है जब सरकार अंतिम उपयोगकर्ता को सीधे सब्सिडी उपलब्ध कराएगी और पीडीएस व अन्य वैसे स्कीम से पैसे बचाकर उसे प्रभावी शिक्षा व प्रशिक्षण पर लगाया जाए। हालांकि कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने की आवश्यकता से इसका कोई संबंध नहीं है।)
रोजगार और विकास दोनों के लिए आरबीआई को निश्चित रूप से तेजी से काम करना होगा। मुद्रा के कम प्रेषण पर सिध्दांतवादी बात करने का कोई मतलब नहीं है जब अपर्याप्त कदम उठाए गए हों। मसलन, हाल में रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में चौथाई फीसदी की कटौती।
नीतिगत दर को शून्य पर ले जाने की बात भी अप्रासंगिक है, यह इस वास्तविकता से ध्यान हटाता है जिसके तहत कहा जाता है कि नीतिगत दर में कटौती की जा सकती है और यह शून्य के आसपास नहीं होगी।
बैंकों की फंड लागत : सीआरआर और बचत दर – पिछले कुछ महीनों में सार्वजनिक बैंक ने जमाओं में बढ़ोतरी देखी है और इसमें भी सावधि जमाओं में ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। ऊंचे ब्याज दर के माहौल में जमा स्वीकार किए जाने के मामले में यह समस्या में ही इजाफा करता है। इस बीच, कई प्राइवेट बैंक कम दर वाली जमाओं को खो चुके हैं।
यह सीआरआर में और कटौती को और जरूरी बना देता है। क्यों? क्योंकि जब सीआरआर में कटौती होगी तो लागत में बढ़ोतरी के बिना ऋण के रूप में दिए जाने वाले फंड में बढ़ोतरी हो जाएगी। दूसरे शब्दों में फंड की औसत लागत कम हो जाएगी क्योंकि वही लागत ऋण के रूप में दी जाने वाली बड़ी रकम में बंट जाएगी।
बैंक ऐसे अतिरिक्त फंड आरबीआई के पास जमा कर सकते हैं या सरकारी बॉन्ड में लगा सकते हैं जब तक कि रिवर्स रेपो रेट में कमी नहीं की जाती या निवेश की सीमा नहीं बना दी जाती।
परियोजना अर्थशास्त्र में सुधार के लिए भी कदम उठाए जाने की जरूरत है और उसे एंटरप्राइज के ब्याज की लागत कम करके और कम लागत पर वित्त की सुविधा उपलब्ध कराई जा सकती है ताकि मांग बढ़े और उसके राजस्व में इजाफा हो।
इसके साथ ही निर्माण की गतिविधि फिर से शुरू किए जाने की बाबत कदम उठाए जाने की दरकार है ताकि ठहरे हुए प्रोजेक्ट फिर से चलायमान हो सकें। भारतीय रिजर्व बैंक को भी सरकारी बॉन्ड में अतिरिक्त निवेश को हतोत्साहित करने के लिए कदम उठाना होगा।
अंतत: बचत पर दी जाने वाली ब्याज दर को उधारी पर ली जाने वाली ब्याज दर की तरह करना होगा। सतत विकास दर और रोजगार की खातिर यह जरूरी है ताकि कम ब्याज दर वाले माहौल तैयार हो सके यानी इसमें कामयाबी मिल सके।
जीडीपी में तीन-चार फीसदी के इजाफे से मिलने वाला फायदा छोटे जमाकर्ताओं को ब्याज की आय से मिलने वाले लाभ की भरपाई कर देगा। यही वजह है कि इस बाबत आरबीआई द्वारा तत्काल कदम उठाए जाने की दरकार है।
