केंद्रीय बैंकों और सरकारों द्वारा पश्चिमी बैंकिंग प्रणाली में खरबों डॉलर झोंकने के बाद नए साल में उम्मीद थी कि स्थिति सामान्य हो जाएगी, लेकिन अब तक इसके संकेत नहीं मिले हैं।
पिछले दो हफ्तों में अमेरिका और यूरोप में हुए घटनाक्रम से संकेत मिल रहे हैं कि और भी बुरी खबरें आनी अभी बाकी है। पहले नजर डालते हैं सिटी बैंक पर, जो शायद इन सभी बैंकों में सबसे ज्यादा वैश्विक है।
एक दशक पहले जब सिटी और ट्रैवलर्स (इंश्योरेंस ग्रुप) का विलय हुआ था तो प्रभावी रूप से वाणिज्यिक व निवेश बैंकिंग के अलगाव का मामला दफन हो गया था, जो 1930 के दशक के ग्लास स्टीगैल ऐक्ट के तहत आवश्यक था। (बाद में इस ऐक्ट को निरस्त कर दिया गया था)।
अपने कामकाज को लेकर यह बैंक हमेशा आक्रामक रहा है और अक्सर नियामक की सीमा को लांघता रहा है। विलय के बाद हालांकि वह दशक सामान्य नहीं रहा। डॉट कॉम और टेलीकॉम के बुलबुले में बैंक की भूमिका को देखते हुए पहली बार नियामक ने उस पर जुर्माना लगाया।
इसके बाद यह एनरॉन और वर्ल्डकॉम घोटाले में पकड़ा गया। बाद में यूरोप की पार्मालैट कंपनी मामले में भी यह बैंक पकड़ा गया। जापानी अधिकारियों ने नियामक का उल्लंघन करने पर इसके प्राइवेट बैंकिंग कार्यकलाप को बंद करवा दिया था।
इसके बाद यूरोप में बॉन्ड ट्रेडिंग घोटाला सामने आया और अधिग्रहण पर रोक लगाने की बाबत नियामक का आदेश। ये सब कुछ हुआ डेरिवेटिव कारोबार में जारी नुकसान से पहले। फेडरल रिजर्व और अमेरिकी सरकार से इसने अब तक 90 अरब डॉलर की सहायता प्राप्त की है।
साथ ही खाते-बही में शामिल कमजोर संपत्तियों के बावजूद 300 अरब डॉलर की गारंटी। चौथी तिमाही में इसने 8 अरब डॉलर का नुकसान घोषित किया। घाटे के मामले में यह लगातार पांचवीं तिमाही है।
ऐसे में उसे और समर्थन की जरूरत पड़ सकती है। प्रभावी रूप से इसने इन्वेस्टमेंट बैंकिंग यूनिट मॉर्गन स्टेनली को बेचने का फैसला किया है।
इस फैसले और इसके साथ कुछ और योजनाबध्द बिक्री के बाद बैंक का आकार एक तिहाई रह जाएगा। क्या यह समस्या की आखिरी किस्त होगी? बताना मुश्किल है। इस बीच, इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप बैंक के सीईओ (वास्तव में इसके बोर्ड) विक्रम पंडित आलोचनाओं से घिर गए हैं।
पिछले हफ्ते नए चेयरमैन की नियुक्ति हुई और अमेरिका के पूर्व वित्त मंत्री रॉबर्ट रूबिन ने बोर्ड से इस्तीफा दे दिया। स्पष्ट रूप से 3.5 लाख कर्मचारियों की विशालकाय फौज वाले इस बैंक की सेहत पूरी तरह से ठीक नहीं है।
न ही पश्चिमी तट पर इसकी प्रतिद्वंद्वी बैंक ऑफ अमेरिका की, जिसने कुछ महीने पहले मेरिल लिंच का अधिग्रहण किया है और इस यूनिट में महत्त्वपूर्ण समस्याएं सामने आ गई हैं। 2008 की चौथी तिमाही में मेरिल लिंच ने 21 अरब डॉलर का परिचालन घाटा घोषित किया।
बैंक ऑफ अमेरिका को 20 अरब डॉलर की सरकारी हिस्सेदारी व बतौर गारंटी हानि 120 अरब डॉलर पर भी नजर दौड़ानी होगी, जो कि ज्यादातर मेरिल लिंच की खाता-बही में है। इसके अलावा मेरिल लिंच को पचाने में बैंक ऑफ अमेरिका को एक और समस्या से जूझना होगा।
मेरिल के कर्मचारी औसतन 2.5 लाख डॉलर सालाना कमाते हैं जबकि बैंक ऑफ अमेरिका में इसका एक चौथाई मिलता है। इस तरह ज्यादातर समस्या मेरिल लिंच में ही है। अटलांटिक में भी स्थिति बेहतर नहीं है।
द रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड को 28 अरब पाउंड का घाटा हुआ है और यहां सेंट्रल बैंक व सरकार को और पूंजी की खुराक देनी पड़ेगी। (भारतीय स्टेट बैंक के राष्ट्रीयकरण के तुरंत बाद बैंक ने इसके साथ काम किया था और यहां अब भी इंपीरियल बैंक की संस्कृति हावी है।)
डॉयचे बैंक ने भी इन्वेस्टमेंट बैंकिंग ऑपरेशन के मद में चौथी तिमाही में 6.33 अरब डॉलर का घाटा पेश किया है, जो मुख्य रूप से व्यापार घाटा है।
मुख्य इन्वेस्टमेंट बैंकों की खाता-बही में जो भी खराब संपत्ति नजर आती है, वह समस्या का एक हिस्सा भर ही हो सकती है। अमेरिका और यूरोप में निवेशकों ने बैंकों पर जटिल उत्पाद और भ्रष्टाचार के कई मुकदमे ठोक रखे हैं।
एमऐंडटी बैंक ने डॉयचे बैंक पर इसलिए मुकदमा ठोक दिया है क्योंकि वह अपने द्वारा विकसित इन्वेस्टमेंट प्रॉडक्ट पर आधारित प्रॉडक्ट बेच रहा था। यूरोप में यूबीएस और एचएसबीसी दोनों पर ही निवेशकों ने कस्टोडियल फंड मेडॉफ को दिए जाने पर मुकदमा दायर किया है।
चौथी तिमाही में मेरिल लिंच ने 47.5 करोड़ डॉलर देकर एक मुकदमे का निपटारा किया। इसी तरह के दूसरे मामलों में ही ऐसा ही होने की संभावना है। एक अनुमान के मुताबिक, विभिन्न वित्तीय संस्थानों पर सौ से ज्यादा मुकदमे दायर किए गए हैं और इनमें कुल नुकसान का आंकड़ा करीब 400 अरब डॉलर का है।
आधुनिक बैंकों की पारंपरिक भूमिका (उपभोक्ता और कारोबारियों से जमा स्वीकार करना और उधार देना) उनसे काफी दूर चली गई है। ये सारी समस्याएं और नुकसान के आंकड़े मंदी से पहले के हैं। सच यह है कि मंदी की वजह से लोन न चुका पाने वाले उपभोक्ताओं की संख्या में और कारोबारी उधारियां न चुकाने वालों की संख्या में खासी बढ़ोतरी होगी।
पश्चिमी बैंकों में दिखने वाली तरलता की समस्या दिवालियापन की समस्या में तब्दील हो रही है। (कीन्स शायद ठीक ही थे जब उन्होंने बैंकिंग की व्याख्या माया के तौर पर की थी। जितनी लंबी अवधि तक यह टिकी रहेगी, जमाकर्ताओं को बैंक से पैसा मिलता रहेगा और बैंक अपनी संपत्तियों की रिकवरी करते रहेंगे, ऐसे माहौल में सब कुछ अच्छा होता है)।
इस समय जिस तरह की संपत्ति सेंट्रल बैंक खरीद रहा है तो कोई भी उसकी बैलेंस शीट की क्वॉलिटी में गिरावट की बात नहीं कर रहा।