पुनर्गठित मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की पहली बैठक में कई अहम मुद्दे उठाए गए और नीतिगत बहस के दायरे का विस्तार किया गया। देश की आर्थिक स्थिति फिलहाल अन्य बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों की तुलना में अधिक जटिल है। मुद्रास्फीति पिछले कई महीनों से केंद्रीय बैंक के तय दायरे से ऊपर है और निकट भविष्य में भी उसके ऊपर ही बने रहने की आशंका है क्योंकि चालू वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था में 10 फीसदी की गिरावट आने की आशंका है। उच्च मुद्रास्फीति के कारण दरें तय करने वाली समिति ब्याज दरों में और कमी नहीं कर पा रही है जिससे आर्थिक गतिविधियों को अपेक्षित मदद नहीं मिल पा रही है। इस संदर्भ में एमपीसी के सदस्यों के नजरिये और अधिक अहम हो गए।
दिलचस्प बात यह है कि गत सप्ताह जारी बैठक के संक्षिप्त ब्योरों के मुताबिक नवनियुक्त सदस्य जयनाथ वर्मा ने नीतिगत प्रस्ताव की भाषा से असहमति जताई। उन्होंने कहा कि यदि एमपीसी ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करती है जिनके अर्थ वही नहीं हैं जो कहे जा रहे हैं तो इससे उसकी विश्वसनीयता को धक्का लग सकता है। समिति में यह क्षमता होनी चाहिए कि मुद्रास्फीति का झटका लगने की स्थिति में वह आक्रामक तरीके से प्रतिक्रिया दे सके। उन्होंने यह भी कहा कि नीतिगत प्रस्ताव में छह माह के जिस औपचारिक निर्देशन की बात कही गई वह भी अपर्याप्त है। एक विश्वसनीय नीति मुद्रास्फीति के जोखिम को कम करेगी और प्राप्ति वक्र के तीव्र ढलान को कम करेगी। लंबी अवधि की ऊंची दरें न केवल अर्थव्यवस्था में निवेश को प्रभावित करेंगी बल्कि वे ऋण बाजार में विदेशी फंड को भी आकर्षित करेंगी और वास्तविक प्रभावी विनिमय दर को बढ़ाएंगी।
डॉ. वर्मा द्वारा दी जा रही दलीलों पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है और उन पर बहस होनी चाहिए। यह भी ध्यान देने लायक है कि लंबी अवधि के प्रतिफल भी राजकोषीय नीति की गुणवत्ता से प्रभावित हैं। समकक्ष देशों में भारत का बजट घाटा सर्वाधिक में से एक है। इस वर्ष इसमें और अधिक इजाफा होने की आशंका है। आंतरिक समिति के सदस्य मृदुल सागर ने इस मसले को रेखांकित किया कि उच्च शासकीय ऋण के कारण प्राप्ति वक्र की गिरावट अनुमानित मुद्रास्फीति या वृद्धि से संबंधित नहीं है। वित्तीय बाजार और केंद्रीय बैंक दोनों को मध्यम अवधि में राजकोषीय विस्तार के संभावित असर को भी ध्यान में रखना होगा। बहरहाल दरें तय करने वाली समिति के लिए तात्कालिक चिंता है मुद्रास्फीति की प्रकृति। एमपीसी मुद्रास्फीति में मौजूदा इजाफे को अस्थायी मानती है और उसका मानना है कि आपूर्ति में सुधार होने के साथ ही दरों में कमी आएगी क्योंकि अर्थव्यवस्था अब खुलने लगी है। रिजर्व बैंक का अनुमान है कि अगले वित्त वर्ष की पहली तिमाही में मुद्रास्फीति घटकर 4.3 फीसदी रह जाएगी।
बहरहाल, इस अनुमानित मार्ग को लेकर भी जोखिम हो सकते हैं। उदाहरण के लिए आरबीआई के डिप्टी गवर्नर माइकल पात्रा ने कहा था कि ईंधन और खाद्य कीमतों के कारण लगा आपूर्ति क्षेत्र का झटका चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में मुद्रास्फीति में हुए विस्तार के 71 फीसदी के लिए उत्तरदायी है। एक ओर जहां कुल आपूर्ति सहज हो रही है वहीं खाद्य कीमतों में इजाफा, खासतौर सब्जियों की बढ़ती कीमत चिंता का विषय हो सकती है। इसके अलावा व्यवस्था में भारी पैमाने पर नकदी डाली गई है और नीतिगत ध्यान वृद्धि को मदद देने पर केंद्रित है जो उचित भी है। इसका भी निकट से मध्यम अवधि में मुद्रास्फीति के अनुमानों पर असर हो सकता है। ऐसे में आने वाले महीनों में मुद्रास्फीति की स्थिति को देखते हुए केंद्रीय बैंक को अपने नीतिगत रुख का प्रभावी ढंग से संचार करना होगा। मुद्रास्फीति के परिदृश्य को देखें तो निकट भविष्य में नीतिगत दरों में कटौती की संभावना नहीं है।
