दुनिया ने वैश्वीकरण के कई चरणों को देखा है। इसकी शुरुआत तब हुई थी जब आज से करीब 70 हजार साल पहले होमो सैपियंस ने अफ्रीका से देशांतर किया था।
वैश्वीकरण की आखिरी पारी की शुरुआत 1870 में तब हुई, जब व्यापार और मानव के प्रवास में अचानक तेजी आ गई थी और इसकी समाप्ति 1914 में प्रथम विश्वयुध्द केसाथ हुई। व्यापार और अन्य बाधाएं आने से पहले लोग हाल के वर्षों की तरह दूरियां सिमटने की चर्चा करने लगे थे।
वैश्वीकरण के वर्तमान चरण ने 1980 के दशक में रफ्तार पकड़ी। 1990 से 2005 के बीच कारोबार वैश्विक जीडीपी की रफ्तार की तरह दोगुना हो गया और यह 30 फीसदी पर पहुंच गया। इसी दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में पांच गुनी बढ़ोतरी देखी गई और यह भी वैश्विक जीडीपी की तरह ही कुलांचे भरता रहा।
दो साल पहले निजी के साथ-साथ सीमापार पूंजी प्रवाह 929 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंच गया। एक बार फिर लोगों ने दूरियों के सिमटने की चर्चा की। अब सवाल यह है कि क्या वैश्वीकरण का अंतिम दौर भी समाप्त हो गया है।
निश्चित रूप से, दावोस में आयोजित विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक में एक सहभागी ने कहा कि अब दुनिया गैर-वैश्वीकरण के दौर में पहुंच गई है। जिस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं वे उसकी राय के अनुरूप हैं।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का कहना है कि वैश्विक कारोबार इस साल 3 फीसदी तक सिकुड़ने का अनुमान है, शायद 60 साल में पहली बार ऐसा होगा। द इंस्टिटयूट ऑफ इंटरनैशनल फाइनैंस का आकलन है कि वैश्विक रूप से निजी पूंजी प्रवाह 80 फीसदी तक ढहकर 165 अरब डॉलर के स्तर पर आ जाएगा क्योंकि बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इसे सोख लेंगी।
अमेरिकी और यूरोपीय बैंकों के पुर्नपूंजीकरण के लिए 5 खरब डॉलर की जरूरत होगी ताकि पूंजी पर्याप्तता की वर्तमान दर बनी रहे। कम ही लोग अपने देश की सीमा के पार जाएंगे। काम की तलाश में देश से बाहर जाने वाले लोगों के लिए अमेरिका ने पहले ही एच-1 बी कार्यक्रम के तहत कानूनन रुकावट खड़ी कर दी है।
ब्रिटेन ने भी विदेशी कामगारों के लिए अपने आव्रजन नियमों को कठोर बना दिया है और इससे प्रवासियों के प्रवाह में 10 फीसदी की कमी का अनुमान है। यूरोप के बाहर के गैर-प्रशिक्षित कामगारों पर पाबंदी लगा दी गई है।
नौकरी के लिए अच्छी जगह कम कारोबार, पूंजी का सीमित प्रवाह (कैपिटल मोबिलिटी) और कम से कम लोगों का सीमा पार करना, तीन ऐसे तत्त्व हैं जो वैश्वीकरण की दिशा को उलट रहे हैं। सिर्फ एक ही चीज बाकी रह गई है और वह है तकनीक की गतिशीलता, जिसके बारे में किसी ने नहीं सोचा है कि इस बाबत आखिर क्या हो सकता है।
वैश्वीकरण की उलटी दिशा अभी संक्रमण की अवस्था में है। कुल मिलाकर जिस ढांचे ने वैश्विक कारोबार को जगह दी वह अभी भी अपने स्थान पर है।
बड़ी कंपनियों ने अपने उत्पादन का वैश्विक स्तर पर एकीकरण कर लिया है, विकासशील देशों में टैरिफ 1983 के मुकाबले घटकर दो तिहाई हो चुका है, मालभाड़े की लागत कम है और नए कारोबार के लिए आविष्कार की प्रक्रिया अब भी जारी है।
लेकिन व्यापार संरक्षण के संकेत हर जगह दिखाई पड़ रहे हैं (इसमें भारत भी शामिल है)। वर्तमान ढांचे से ही दिशा मिल सकती है। अगर गिरावट का ये दौर लंबा और काफी ज्यादा गहरा हो जाए। इस साल अमेरिकी अर्थव्यवस्था 1.6 फीसदी तक सिकुड़ने का अनुमान है और यूरोपियन यूनियन की अर्थव्यवस्था में दो फीसदी तक सिकुड़न हो सकती है।
जापान में इस तरह से सिकुड़न की सालाना दर 12.7 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है। ये रुझान बताते हैं कि इस साल करीब 5.1 करोड़ नौकरियों का खात्मा होगा (अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक)।
ऐसे में उन लाखों भारतीय कामगारों के बारे में कल्पना की जा सकती है जो खाड़ी देशों से अपने घर लौट रहे हैं। चीन जैसे देश जिसने निर्यात के चलते विकास दर में खासी बढ़ोतरी दर्ज की, उस पर भी बड़ा असर पड़ेगा।
सिंगापुर जैसे देश जिसने वैश्विक स्तर पर सामान, रकम और लोगों के आवागमन की बदौलत समृध्दि हासिल की, चिंता में है। भारत फायदे में रह सकता है क्योंकि इसकी अर्थव्यवस्था दूसरों के मुकाबले कम वैश्विक है। पुरानी कंपनी की विज्ञापन की पंक्ति भी कुछ इसी तरह कहती है – विकास का बेहतर साधन अपने आप से आता है।