अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर की द्विपक्षीय रक्षा सहयोग संबंधी तीसरी 2+2 वार्ता में भारत के लिए अवसर भी हैं और जोखिम भी। यह बैठक उस समय हो रही है जब लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के साथ पांच महीनों से तनाव बना हुआ है। अमेरिका के लिए यह बैठक एशिया में चीन के खिलाफ अमेरिकी नेतृत्व वाली रणनीतिक साझेदारी के गति पकडऩे का मामला है। पॉम्पिओ की इस यात्रा में मालदीव, श्रीलंका और इंडोनेशिया भी शामिल हैं। उन्होंने कभी नहीं छिपाया कि उनकी सरकार ‘चीन की कम्युनिस्ट पार्टी’ की धमकियों का मुकाबला करने के रास्ते तलाश रही है। यह बैठक दोनों देशों के बीच बीते डेढ़ दशक से चली आ रही करीबी के साथ निरंतरता में है। इस दौरान एजेंडे में एक अहम बात है मूलभूत विनिमय एवं सहयोग समझौते (बीईसीए) पर हस्ताक्षर। यह उन चार बुनियादी समझौतों में से अंतिम है जो रक्षा रिश्तों में गहराई लाने से संबंधित हैं। बीईसीए भारतीय सेना को अमेरिका के स्थलीय, समुद्री और हवाई डेटा तो मुहैया कराएंगे ही, साथ ही अमेरिकी रक्षा विभाग के सैटेलाइट नेटवर्क की बदौलत भारत लंबी दूरी की चुनिंदा मिसाइल शक्तियों में भी शामिल हो जाएगा।
परंतु हकीकत यह है कि यह चर्चा अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के एक सप्ताह पहले हो रही है। चुनाव के नतीजे दोनों देशों के रिश्तों में तब्दीली ला सकते हैं। हालांकि अब यह तय हो चुका है कि चीन और अमेरिका का तनाव बना रहेगा, भले ही अमेरिका में किसी भी दल का राष्ट्रपति हो। ऐसे में एक सहयोगी के रूप में भारत की भूमिका काफी हद तक अमेरिका के साथ उसके रिश्तों पर निर्भर करेगी। यदि डॉनल्ड ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति बने रहते हैं तो चीन के साथ चल रहे तनाव में भारत एक अहम साझेदार बना रहेगा। पॉम्पिओ ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के भारत के दावे को समर्थन दिया है और भारत तथा ईरान के बीच के संयुक्त उपक्रम वाले चाबहार बंदरगाह को को प्रतिबंधों से छूट देने की इच्छा जताई है। यह बात ट्रंप प्रशासन के लिए भारत के महत्त्व को साबित करती है।
यदि बड़े कारोबारी घरानों के समर्थन वाले जो बाइडन जीतते हैं तो माना जा सकता है कि वह चीन के साथ कारोबारी तनाव कम करेंगे। भारत की बात करें तो उसे भी एच1बी वीजा व्यवस्था में ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाई गई कड़ाई से मुक्ति मिल सकती है। परंतु बाइडन बराक ओबामा के ईरान के साथ परमाणु समझौते और प्रशांत पार साझेदारी को नए सिरे से शुरू कर सकते हैं। ट्रंप ने इन दोनों को नकार दिया। बहरहाल यदि ऐसा हुआ तो संतुलन भारत से दूर हो जाएगा। बाइडन ने भारत को मित्र जरूर बताया है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका में जिस तरह ट्रंप की वकालत की वह डेमोक्रेट प्रशासन में पैठ कमजोर करेगा।
बहरहाल भारत को महाशक्ति के साथ गठजोड़ से परे अपनी क्षेत्रीय पहचान मजबूत करने की दिशा में काम करना होगा। ऑस्ट्रेलिया को नवंबर में मालाबार कवायद के लिए आमंत्रित करना हिंद महासागर और हिंद प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा के लिए बेहतर होगा। भारत ने नवंबर में शांघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन की शासन प्रमुखों की परिषद की मेजबानी की बात कही है जो चीनी आक्रामकता के बीच कूटनीतिक परिपक्वता का उदाहरण है। मोदी सरकार के कार्यकाल में नेपाल के साथ रिश्ते अवश्य खराब हुए हैं। श्रीलंका के साथ शुरुआती करीबी भी कमजोर पड़ी क्योंकि भारत ने श्रीलंका के कर्ज राहत के अनुरोध पर देरी की। वहीं नागरिकता संशोधन अधिनियम के मसले पर बांग्लादेश के साथ तनाव बढ़ा है। भारत अमेरिका के साथ करीबी का फायदा उठाकर पाकिस्तान पर आतंकी समूहों का समर्थन रोकने का दबाव भी नहीं बना पाया है। भारत को पड़ोसियों पर भी नजर डालने की जरूरत है।
