मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह बेशक कम बोलते हैं, लेकिन उनका दिमाग चलता है यानी वह सोचते ज्यादा हैं।
विपक्षी पार्टियों के नेताओं के चेहरे यह कहते हुए नीले पड़ सकते हैं कि उन्होंने भी उच्च शिक्षा की बाबत सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी अन्य जातियों (ओबीसी) के लिए नीतियां बनाए जाने का समर्थन किया था।
सच यह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस नीति का पालन किया था और जब इसने नुकसान पहुंचाना शुरू किया तो वह इसमें अटक भी गया था। पिछले साल समानता चाहने वाले छात्रों और ओबीसी छात्रों को सड़क पर लड़ने से रोकने केलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपील करनी पड़ी थी।
यह कदम अर्जुन सिंह के 1980 के दशक के दृढ़ विश्वास को प्रतिबिंबित करता है, जिसमें कहा गया था कि कम से कम कुछ राज्यों में कांग्रेस को खुद को पिछड़ी जातियों की पार्टी के रूप में अवश्य स्थापित करना चाहिए।
साल 1982 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए जाने के ठीक बाद अर्जुन सिंह ने तय किया था कि चुनौतियों से स्थायी रूप से लोहा लेने के लिए वैसा वोट बैंक बनाया जाना जरूरी है, जिसके ऊपर वह भरोसा कर सकें।
मुख्यमंत्री चुने जाने के समय विधायक दल की अध्यक्षता प्रणब मुखर्जी ने की थी (उस समय उनके प्रतिद्वंद्वी थे शुक्ला बंधु – श्यामाचरण व विद्याचरण – और शिवभानु सिंह सोलंकी)।
साल 1982 में उन्होंने रामजीलाल महाजन आयोग का गठन किया। आयोग को पिछड़ी जातियों को मुख्यधारा में लाने की बाबत रास्ता खोजने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
केंद्र में हालांकि इंदिरा गांधी ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया था, लेकिन अर्जुन सिंह ने शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की महाजन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया।
जब साल 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के हिस्से केबतौर वह मानव संसाधन विकास मंत्री बनकर केंद्र में लौटे तो उन्होंने संयुक्त सामाजिक नीतियां लागू करने के लिए रास्ता खोजना शुरू कर दिया। यह ऐसा दांव-पेंच था, जिसे आजमाया जा चुका था, जिसे उन्होंने एक बार फिर से जीवित कर दिया।
अल्पसंख्यकों पर भी अर्जुन सिंह की पहले से नजर थी। पाठय पुस्तक को नए सिरे से लिखे जाने के उनके प्रस्ताव को संप्रग के दो घटकों मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी(माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(भाकपा) ने काफी सराहा।
भाकपा के डी. राजा ने सार्वजनिक रूप से उनके इस काम की प्रशंसा की। जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में मुशीरूल हसन की नियुक्ति को भी वामपंथी पार्टियों ने सराहा।
जब नॉलेज कमीशन ने यह कहकर आरक्षण की नीति की आलोचना की कि इससे उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता पर असर पड़ेगा, तो हसन बुध्दिजीवियों की तरफ से अर्जुन सिंह के बचाव में खड़े हो गए। नॉलेज कमीशन ने कहा था कि उच्च शिक्षण संस्थानों को राजनीति में घसीटने की बजाय उनकी संख्या बढ़ाई जानी चाहिए।
नरसिंह राव सरकार में बतौर मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी की हत्या की घटना का इस्तेमाल राव सरकार के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद करकेकिया। उन्होंने आरोप लगाया कि इस हत्याकांड की तह तक पहुंचने के लिए सरकार ने पर्याप्त कोशिश नहीं की।
इसके जरिए अर्जुन सिंह ने सोनिया गांधी के समर्थन और आशीर्वाद की उम्मीद की थी। हालांकि सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी के विद्रोहियों की अध्यक्षता करने से इनकार कर दिया।
इस वजह से अर्जुन सिंह के साथ-साथ नारायण दत्त तिवारी, शीला दीक्षित, के. नटवर सिंह और रंगराजन कुमार मंगलम ने अपने आपको पार्टी के बाहर पाया।
गांधी ने लगता है कि उनकी कृतज्ञता पर खेद जताते हुए उन्हें मंत्री पद पर बहाल तो कर दिया, लेकिन उन्हें पुराना मंत्रालय ही सौंपा गया। यानी अर्जुन सिंह को भागदौड़ के प्रयास का थोड़ा ही फल मिला।
पिछले साल की शुरुआत में जब कृषि मंत्री शरद पवार ने सुझाव दिया था कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए संप्रग को प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह का नाम पेश करना चाहिए, तो अर्जुन सिंह का कहना था कि उनकी राय में राहुल गांधी इतने कम उम्र के नहीं है कि उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता।
यह इन सच्चाई के बावजूद है कि शिक्षा के मामले में दोनों की राय अलग-अलग है, खास तौर से विदेशी विश्वविद्यालय द्वारा भारत में दुकान स्थापित करने के मामले में। इस मुद्दे पर गांधी का माकपा नेता वृंदा कारत से द्वंद्व हुआ था।
अर्जुन सिंह ने मजबूती के साथ विदेशी विश्वविद्यालय के भारत आगमन की अनुमति दिए जाने की बाबत अपना विरोध जताया है। आने वाले लोकसभा चुनाव में संभव है कि भारतीय जनता पार्टी की सुषमा स्वराज होशंगाबाद से अपनी किस्मत आजमाएं।
इस लोकसभा क्षेत्र से सिंह तीन बार हार चुके हैं। 76 साल की उम्र में भी अर्जुन सिंह संप्रग के सबसे ज्यादा दमखम वाले और सबसे ज्यादा राजनीतिक मंत्री की पारी जारी रखे हुए हैं।