पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य को भले ही टाटा मोटर्स के सिंगुर से कदम वापस खींचने से रोकने में सफलता मिली हो, जहां टाटा की बहुप्रचारित नैनो कार बननी है।
लेकिन इस पूरे विवाद से एक प्रशासक के रूप में भट्टाचार्य की छवि धूमिल हुई है। सिंगुर विवाद से तमाम सीख मिलती है जिससे अन्य राज्य सरकारों को भी सबक लेने की जरूरत है। हर मुख्यमंत्री को अपने राज्य में बड़े औद्योगिक घरानों से निवेश आकर्षित करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होती है।
जब किसी औद्योगिक घराने को निवेश संबंधी निर्णय लेने के लिए कुछ विशेष छूट दी जाती है तो उसे उस राज्य विशेष में निवेश के लिए प्रोत्साहन मिलता है। ये इस तरह के उत्साहवर्धक कदम होते हैं जो सामान्य रूप से अन्य निवेशकों को नहीं मिलते। इस तरह के विशेष प्रोत्साहनों को उचित माना जा सकता है क्योंकि राज्य सरकारें इन औद्योगिक परियोजनाओं को खास निवेश (एंकर इनवेस्टमेंट) के रूप में देखती हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो एंकर इनवेस्टमेंट ऐसा निवेश होता है जो अन्य औद्योगिक निवेशों को उस क्षेत्र विशेष और राज्य के अन्य इलाकों में निवेश करने के लिए आकर्षित करता है। अगर सरकार का उद्देश्य यह होता है कि राज्य में औद्योगीकरण में तेजी लाई जाए तो इस तरह के निवेश को विशेष प्रोत्साहन दिया जाता है, जबकि हमेशा इसकी जरूरत नहीं पड़ती है।
खासकर इसकी जरूरत ऐसे राज्य में बहुत ज्यादा है, जहां पिछले तमाम वर्षों से औद्योगिक निवेश का कोई माहौल नहीं है और उद्योग जगत यहां निवेश करने के लिए और अपनी परियोजनाएं लाने में सामान्यतया संशंकित रहता है।
पश्चिम बंगाल सरकार ने सिंगुर में निवेश करने वाले टाटा मोटर्स को खास निवेशक यानी एंकर इनवेस्टर की तरह पेश किया। सरकार ने यह महसूस किया कि बीते दिनों में राज्य के बारे में बनी भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत है, जिसकी वजह से कुछ बड़े निवेशक राज्य में निवेश करें।
इससे औद्योगीकरण को गति मिलेगी और अन्य उद्योगों के समूह निवेश के लिए प्रोत्साहित होंगे, राज्य की आमदनी बढ़ेगी और तेज औद्योगीकरण से लोगों के लिए नौकरियों के अधिक से अधिक अवसर उपलब्ध होंगे। बहरहाल तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने टाटा मोटर्स के लिए विशेष छूट दिए जाने की नीति पर सवाल उठाया और तर्क दिया कि टाटा को ही विशेष छूट क्यों दी गई और इसके साथ ही इसका प्रसार अन्य निवेशकों तक क्यों नहीं किया गया, जिससे राज्य के अन्य इलाकों में भी निवेश की संभावनाएं बढ़ें।
बनर्जी के इस तर्क के पीछे कुछ वजहें हैं। सीख के लिए यह पहला अध्याय है। हर राज्य चाहता है कि वह औद्योगिक निवेश आकर्षित करे और उसके लिए खास निवेशकों की ओर देखता है। और अगर जरूरत होती है तो वह कुछ अन्य परियोजनाओं के लिए भी विशेष कदम उठाता है। सरकार जब इस तरह के प्रोत्साहन वाले कदम उठाती है तो उसकी नीतियों में पारदर्शिता की जरूरत होती है।
खासकर इन प्रोत्साहन की नीति के मसौदे को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। अगर भट्टाचार्य ने विशेष प्रोत्साहन पैकेज को सार्वजनिक करने का फैसला कर लिया होता, जो सिंगुर में टाटा के लिए दिया गया है तो ममता बनर्जी के पास राज्य सरकार को दोषी ठहराने का कोई आधार नहीं बचता, जिसे आज वह गुप्त समझौता कह रही हैं।
विशेष प्रोत्साहन देने के लिए खास निवेशकों को आकर्षित करने की नीति में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन प्रोत्साहन पैकेज को सार्वजनिक न किए जाने की नीति से पहले से ही संदेह खड़ा हो जाता है और इससे समस्या होती है। राज्य की वामपंथी सरकार ने इसकी जरूरत नहीं समझी और विशेष प्रोत्साहन की नीति के तहत हुई इस डील को सार्वजनिक नहीं किया, जो टाटा के सिंगुर प्लांट के लिए किया गया।
उसे राज्य में विरोधी दलों का कोई भय महसूस नहीं हुआ। यहीं पर भट्टाचार्य ने गलती की। सरकार को इसलिए कठिनाइयों का सामना करना पडा, क्योंकि वहां कोई पारदर्शिता नहीं बरती गई। बनर्जी ने इस कमजोरी को बखूबी समझ लिया और उसका लाभ उठाया।
दूसरी बात, जो और भी महत्त्वपूर्ण और सामयिक है जिसकी सीख हमें सिंगुर विवाद से मिलती है। किसी भी बड़ी औद्योगिक परियोजना के लिए जितना जरूरी आर्थिक प्रबंधन होता है, उतना ही जरूरी राजनीतिक प्रबंधन भी होता है। नैनो प्लांट के आधारभूत ढांचा विकसित करने के वास्ते परियोजना के आकार और उसके अनुरूप भूमि का आवंटन जरूरी था।
उतना ही जरूरी यह भी था कि सिंगुर के स्थानीय निवासियों की मनोदशा को भी समझा जाए कि वे इस परियोजना को कितना समर्थन दे रहे हैं। वामपंथी नेतृत्व इस मामले में इन इलाकों में पूरी तरह से विफल रहा। न ही उसने यह महसूस किया कि सिंगुर इलाके में बड़ी संख्या में लोग तृणमूल कांग्रेस के समर्थक हो गए हैं, जैसा कि हाल ही में हुए स्थानीय चुनावों में स्पष्ट हुआ।
इस स्थिति को देखते हुए पश्चिम बंगाल सरकार को सिंगुर की जनता से सीधे बातचीत करनी चाहिए थी, न कि ममता बनर्जी को उस इलाके में मौका दिया जाना चाहिए था। अंत में, सरकार को इस बात की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी कि टाटा, सिंगुर इलाके के लोगों से पूरी तरह से मुंह मोड़ ले।
आधुनिक उद्योग इस आधार पर काम कर रहे हैं कि उसमें काम करने वाले लोग, शेयरधारक और उस परियोजना के आस पास रहने वाले लोग भी कंपनी के हिस्सेदार होते हैं। सिंगुर मामले में टाटा केवल पश्चिम बंगाल सरकार के साथ ही समझौता वार्ता करते नजर आई और खुद को बेहतर डील के लिए सुरक्षा देती रही।
अगर भट्टाचार्य ने हस्तक्षेप कर टाटा और सिंगुर के स्थानीय किसानों के बीच बातचीत करा दी होती इस तरह का अविश्वास नजर नहीं आता जैसा कि इस समय सिंगुर के निवासियों और टाटा के बीच नजर आ रहा है। सिंगुर परियोजना के लंबे समय के विकास के लिए यह जरूरी है कि टाटा, वहां के स्थानीय लोगों से जल्द से जल्द सीधा संबंध स्थापित करें।