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  लेख  गदर पार्टी को भारतीय इतिहास में सही मुकाम देने की कोशिश
लेख

गदर पार्टी को भारतीय इतिहास में सही मुकाम देने की कोशिश

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 21, 2008 11:01 PM IST
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कई इतिहासकारों का यह मानना है कि  भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में गदर पार्टी ने जो भूमिका अदा की, उसे कोई खास पहचान नहीं मिल पाई है।


उनके तर्क का कारण भी मौजूद है। गदर पार्टी उन क्रांतिकारी दलों में से एक थी जिसे यह लगता था कि अगर भारत को ब्रिटिश शासन के शिंकजे से मुक्त कराना है तो इसके लिए हथियारों के दम पर लड़ाई लड़नी होगी।

गदर के क्रांतिकारियों को आजादी के लिए लड़ने की प्रेरणा भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से ही मिली, पर इस पार्टी के बीज भारतीय मिट्टी पर नहीं बोए गए थे। इस पार्टी की नींव 20वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका के पश्चिमी तट पर रखी गई थी। गदर पार्टी को जो थोड़ी बहुत सफलता मिली उसके पीछे वजह यह रही थी कि दूर अमेरिका में कुछ भारतीय नौजवानों का यह मानना था कि अगर भारत को ब्रिटिश गुलामी से आजाद कराना है तो सशस्त्र आंदोलन ही एक जरिया हो सकता है।

हालांकि, यह अलग बात है कि भारत को इस तरीके से आजादी नहीं मिली। फिर भी लोगों में यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि आजादी की लड़ाई में गदर पार्टी और इसके विचारों का काफी प्रभाव पड़ा था। पर इतिहास के पन्ने खंगालने पर इस पार्टी के योगदान का ठीक ठीक पता नहीं चल पाता, इस वजह से जरूरी है कि एक बार फिर से गहन पड़ताल की जाए।

किताब में इस बात पर जोर दिया गया है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गदर पार्टी की भूमिका को इतिहासकारों ने खास महत्त्व नहीं दिया है। इस किताब की लेखिका हैं सावित्री साहनी जो गदर पार्टी के एक सह संस्थापक पांडुरंग खानखोजे की पुत्री हैं।

इस किताब की मूल धारणा है कि ‘गदर क्रांति और पार्टी के क्रांतिकारियों को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के लोकप्रिय इतिहास में सही जगह नहीं दी गई है’ और साहनी को इसकी ‘पीड़ा है।’ इस किताब की प्रस्तावना में लेखिका कहती हैं कि उन्होंने इसमें खानखोजे की जिंदगी का जिक्र किया है और इसी किरदार के माध्यम से उन्होंने गदर आंदोलन की कहानी बयां की है।
यही वजह है कि जब कोई इस किताब को पढ़ना शुरू करता है तो उसकी अपेक्षाएं काफी बढ़ जाती हैं।

हालांकि 300 पन्नों की इस किताब में गदर आंदोलन के पहले और इसके बाद खानखोजे की जिंदगी का जो चित्रण पेश किया गया है उससे सिर्फ निराशा ही हाथ लगती है। किताब लिखते वक्त साहनी दोराहे पर खड़ी नजर आई हैं।

वह इसी पशोपेश में बंधी नजर आईं कि उन्होंने जैसा देखा और अपने शोध से जितना समझा, उस तरह से कहानी को पेश करें या फिर उनके पिता ने अपनी आत्मकथा में जो कुछ लिखा था उस हिसाब से आगे बढ़ें। उन्होंने दरअसल किताब में दोनों ही रास्ते चुनें। अपने शोध से उन्हें जो जानकारियां मिलीं उन्होंने उसे भी इस किताब में शामिल किया। उनके पिता ने भारत छोड़ने के पहले और फिर जापान, अमेरिका, मेक्सिको और कुछ दूसरे देशों में रहने के  दौरान जो कुछ लिखा, उन्हें भी इस किताब में जगह दी गई है।

इस तरह साहनी की किताब में खानखोजे की आत्मकथा के बहुत सारे उद्धरण मिलते हैं। यहां तक कि जब साहनी खुद कहानी बता रही होती हैं तो उसमें भी उस अंदाज की झलक मिलती है जिस तरह से खानखोजे ने अपनी आत्मकथा में चीजों का खुलासा किया है। किताब को लिखने के इस अंदाज से इसे पढ़ने वाले को परेशानी होती है क्योंकि वह इसी उधेड़बुन में रह जाता है कि कब साहनी अपने विचार रख रही हैं और कब वह घटनाओं का जिक्र अपने पिता की जुबान से कर रही हैं। जो इस किताब का सबसे मजबूत पक्ष बन सकता था वहीं इस किताब की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है।

अगर साहनी ने केवल अपने पिता की आत्मकथा से तथ्यों को लेकर गदर आंदोलन की कहानी को एक नये तरीके से प्रस्तुत करतीं तो शायद यह किताब ज्यादा प्रभावशाली लगती और लेखिका ने जो लक्ष्य तय कर रखे थे वे भी पूरे हो जाते।खानखोजे ने आम लोगों की तरह जिंदगी नहीं जी थी। उन्होंने देश की आजादी के लिए अपने परिवार को छोड़ दिया था।

एक बार उन्हें ऐसा लगने लगा था कि वह जहां भी जाते हैं, ब्रिटिश सरकार उनका पीछा करती रहती है और अब वह देश में नहीं रह सकते हैं। इस वजह से खानखोजे ने जापान जाने का फैसला किया और उसकेबाद अमेरिका भी गए। अमेरिका और पर्सिया में उनकी सारी गतिविधियां बस इसी से जुड़ी हुई थीं कि किस तरह से भारत को सशस्त्र आंदोलन के जरिए आजादी दिलाई जाए।

वह कभी एक जगह पर सुकून से टिक नहीं पाते थे क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर दिया था। जब वह अमेरिका में थे तो थोड़े समय के लिए भारतीय मार्क्सवादी नेताओं के साथ भी उनका गठजोड़ रहा था। कुछ ऐसे मौके भी आए जब खानखोजे को भारतीय नेताओं की वजह से मुश्किलें उठानी पड़ीं। बाद में उन्होंने मेक्सिको में बसने का निर्णय ले लिया और उस देश में कृषि के विकास में उनका काफी योगदान रहा।

खानखोजे कभी भी ब्रिटिश सरकार से क्षमा मांगने को तैयार नहीं हुए और आजादी के बाद वह भारत लौट आए। वह महाराष्ट्र में बस गए और मराठी में अपनी आत्मकथा लिखी क्योंकि उन्हें लगता था कि उन्हें अपनी भाषा में अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण अंशों को उतारना चाहिए।

यह एक ऐसी कहानी है जिसे हर भारतीय को बताई जानी चाहिए। पर न तो खानखोजे और न ही साहनी को पता है कि इसे कैसे रोचक बनाया जाए। हालांकि भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन और उनके कामों पर जो शोध किया गया है वह इस किताब को जरूर कुछ फायदेमंद बनाती है। कई पाठकों को यह लग सकता है कि लेखिका ने किताब की प्रस्तावना में जो वादे किए थे वह उन्हें पूरा नहीं कर पाई हैं।

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक: आई शैल नेवर आस्क फॉर पार्डन- ए मेमॉयर ऑफ पांडुरंग खानखोजे
लेखिका: सावित्री साहनी
प्रकाशक: पेंग्विन बुक्स
मूल्य: 399 रुपये
पृष्ठों की कुल संख्या: 342

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