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  लेख  गांधी के बगैर आजादी का अमृत महोत्सव
लेख

गांधी के बगैर आजादी का अमृत महोत्सव

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —February 19, 2022 12:16 AM IST0
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हम ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के रूप में भारत की आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। मार्च 2022 से शुरू होने वाले वर्ष के दौरान नियोजित विभिन्न गतिविधियों के जरिये समाविष्ट किए जाने वाले विभिन्न विषयों पर एक नजर डालते हुए मैंने स्वतंत्रता संग्राम की इस थीम के अंतर्गत नियोजित स्मरणोत्सव की गतिविधियों को खंगाला। इसमें महात्मा गांधी द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई गई भूमिका का कोई उल्लेख नहीं था और न ही जवाहरलाल नेहरू तथा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं का। यह उन गुमनाम नायकों की गाथाओं को जीवंत करना चाहता है, जिनके बलिदानों ने हमारे लिए आजादी को हकीकत बनाया है। यह निरपवाद है, लेकिन जिन ‘गुमनाम नायकों’ का उल्लेख किया गया है, वे हैं जनजातीय नेता बिरसा मुंडा और सुभाष चंद्र बोस। क्या महात्मा गांधी द्वारा निभाई गई भूमिका की अनदेखी करना वास्तव में संभव है, भले ही नेहरू अब उपहास के पात्र बन गए हों? यदि हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में विशेष उपलब्धियों का स्मरणोत्सव मनाना उद्देश्य है, तो क्या यह संभव है कि महात्मा गांधी की ऊंची शख्सियत, सत्याग्रह और अहिंसा के उनके विचारों की शक्ति तथा एक स्वतंत्र भारत का ख्याल, जिसे उन्होंने देश को विरासत में दिया था, हमारी यादों में कमतर दिया जाए? यह सच है कि आजादी के बाद के वर्षों में गांधी के निर्देशों का कभी-कभार ही पालन किया गया। उन्होंने राष्ट्र के सामने जो आदर्श स्थापित किए, उन्हें सत्ता और विशेषाधिकार के अधिक निंदक कार्यों से ढक दिया गया। लेकिन उन्होंने एक पथ-प्रदर्शक के रूप में समाज और राज्य व्यवस्था के रूप में हमारी विफलताओं के निरंतर अनुस्मारक के रूप में सेवा करना जारी रखा। उनके नाम के आह्वान में भारत के लाखों लोगों को प्रेरित करने की शक्ति बनी हुई है, क्योंकि इन 75 वर्षों के दौरान उन लाखों लोगों ने उन्हें अपने में से एक; विनम्रता की, करुणा की और सबसे अधिक ईमानदारी की मूर्त के रूप में पहचाना है।
वह एक नेता थे क्योंकि उन्होंने ऐसे विचार व्यक्त किए, जिन्होंने अपने लोगों की कल्पना को समझा। अधिकांश नेताओं में यह गुण होता है। अंतर इस बात में होता है कि क्या वे हमारे हृदय की सर्वोत्तम चीज या इसके विपरीत हमारे भीतर की सबसे संकीर्ण और पूर्वग्रह से जुड़ी चीज को आकर्षित करते हैं। गांधी भारत की अविश्वसनीय रूप से विविध भीड़ के बीच छिपे राक्षसों, नफरत फैलाने के जरिये भड़काए जा सकने वाली आग के संबंध में अत्यधिक जागरूक थे। विशिष्टता के वे संकेतक विभाजन के उपकरण बन सकते हैं। यही कारण है कि वह हिंदू-मुस्लिम एकता, भारत की सबसे निचली, सबसे उत्पीडि़त जातियों और समुदायों की मुक्तितथा आर्थिक विकास के अधिक समावेशी और समतावादी स्वरूप को अपनाने के लिए इतने भावुक थे। वह एक धर्मनिष्ठ हिंदू थे, लेकिन उनका दृढ़ विश्वास था कि हिंदू-मुस्लिम द्विभाजन के आधार पर व्यापक हिंदू एकता का निर्माण नहीं किया जा सकता है। आज हमें अपने देश में मुसलमान की जो निरंतर विषमता दिखती है, वह उनके लिए नैतिक अभिशाप हो गई होती। यह एक ऐसी राजनीति का भी प्रतिनिधित्व करती, जो उनके प्यारे देश के लिए नुकसान और दुर्भाग्य ही ला सकती थी। वह भारत के विभाजन का विरोध कर रहे थे, जिसे उन्होंने भारत के ‘जीवच्छेदन’ के रूप में, एक प्राणघाती घाव के रूप में देखा था, जो आने वाले वर्षों तक कटुता उत्पन्न करता। और ऐसा ही हुआ है।
सर्वोदय फाउंडेशन, जो राजदूत एलन नेजरेथ की एक पहल है, महात्मा गांधी के विचारों को भारत और विदेशों में प्रसारित करने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण साधन रहा है। हाल ही में राजदूत नेजरेथ ने भारत की स्वतंत्रता के इस 75वें वर्ष में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता के विषय पर एक संवाद का आयोजन किया था। कई प्रतिष्ठित विद्वानों और सार्वजनिक हस्तियों ने भारत के लोगों की लंबे अर्से की उनकी सेवा के दौरान गांधी द्वारा रखे गए कई मौलिक विचारों पर पुनर्वालोकन करने के महत्त्व पर बात की। ये विचार भारत के लोगों की संस्कृति और परंपराओं में गहराई तक स्थापित थे, लेकिन इनमें एक ऐसे भविष्य की ओर देखा गया, जो पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ और समावेशी हो। लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के समक्ष नीति विकल्पों के संदर्भ में गांधी का निम्नलिखित उद्धरण कसौटी होगा:
‘आपने कभी भी जो सबसे गरीब व्यक्ति देखा है, उसके बारे में सोचो और पूछो कि क्या आपका अगला कार्य उसके लिए किसी काम का होगा।’
मेरे लिए गांधी के दर्शन के उपेक्षित तत्त्वों में से एक पारिस्थितिक स्थिरता से संबंधित है। गांधी के जीवन काल में जलवायु परिवर्तन चिंता का विषय नहीं था, लेकिन अब यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन वास्तव में ही उस बड़े पारिस्थितिक आपातकाल का एक लक्षण है, जिसका आज हमारी दुनिया सामना कर रही है। और गांधी ने अंतर्दृष्टि के साथ उस पारिस्थितिक संकट का पूर्वाभास किया, जो हम पर है। यह वास्तव में आश्र्चजनक बात है।
भारत के विकास विकल्पों पर उन्होंने कहा ‘समृद्धि प्राप्त करने के लिए ब्रिटेन को ग्रह के आधे संसाधन लेने पड़े। भारत जैसे देश को कितने ग्रहों की आवश्यकता होगी?’
और एक बार फिर ‘ईश्वर न करे कि भारत कभी पश्चिम वाले ढंग से औद्योगीकरण को अपनाए। एक ही शासन का आर्थिक साम्राज्यवाद आज दुनिया को जंजीरों में जकड़े हुए है। अगर 30 करोड़ लोगों का एक पूरा देश (नोट : जो उस समय भारत की आबादी थी) ने इसी तरह का शोषण किया, तो यह दुनिया को टिड्डियों की तरह नोच लेगा।’
भारतीय संस्कृति ने प्रकृति को सदैव मां, पालन-पोषण के स्रोत के रूप में देखा है और जो उसे स्वयं को पुनर्जीवित तथा नवीकृत करने की अनुमति देता है, आपको उससे अधिक नहीं लेना चाहिए। यह वही बात है, जो गांधी ने भारत के लोगों को समझाने का प्रयास किया है, जो पहले से ही पश्चिम की समृद्धि से चकाचौंध थे।
‘हम प्रकृति के उपहारों का उपयोग अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं, लेकिन उसके बही-खाते मेें डेबिट हमेशा के्रडिट के समान रहता है।’ आज गांधी का संदेश प्रासंगिक भी है और बाध्यकारी भी।
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय गांधी के विचारों का गहरा समकालीन महत्त्व है और यह देश का मार्गदर्शन कर सकता है, क्योंकि यह एक स्वतंत्र, जीवंत और बहु-ध्रुवीय लोकतंत्र के रूप में अपनी यात्रा के अगले भाग की शुरुआत करता है। प्रमुख संदेश हमारे लोगों के बीच बहुलता की स्वीकृति, विभिन्न दृष्टिकोणों का समायोजन, समतावादी और समावेशी लोकतंत्र की तलाश तथा एक ऐसी आर्थिक रणनीति को अपनाना है, जो पारिस्थितिक स्थिरता सुनिश्चित करती हो। उम्मीद है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को नया रूप देने में इसकी यह सबसे कीमती विरासत इस समय की राजनीति का शिकार नहीं होगी।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर के सीनियर फेलो हैं)

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