राजनीतिक नेता मुद्दे उछालते हैं। और अमेरिका के डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता वैश्वीकरण के मुद्दे पर आक्रामक रुख अपना रहे हैं। नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों से पहले इस मुद्दे का जोर पकड़ना लाजिमी है।
वैश्वीकरण पर हो रही बहस में बौद्धिक परिवर्तन आया है। हालांकि विकासशील देशों के लिए यह गौर करने लायक है। इस परिवर्तन को आंशिक रूप से अमेरिका में हुए तीन संबंधित परिवर्तनों के संदर्भ में देखा जा सकता है। पहला- मध्य वर्ग को मिलने वाले वेतन में स्थिरता, दूसरा- बढ़ती असमानता और अंत में बढ़ती असुरक्षा खासकर हेल्थकेयर क्षेत्र में बढ़ता खर्च।
अर्थव्यवस्था के क्षेत्र के तीन नामी गिरामी अर्थशास्त्रियों- नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल सैमुएलसन, पॉल क्रूग्मैन और लैरी समर्स ने वैश्वीकरण पर चिंता व्यक्त की है (इस सूची में एक नाम प्रिंसटन के सम्मानित विद्वान एलन ब्लिंडर का नाम भी आसानी से जोड़ा जा सकता है जिन्होंने सुर में सुर मिलाते हुए आउटसोर्सिंग के बारे में लिखा है)।
ये तीनों विद्वान वैश्वीकरण को अमेरिका के लिए संभावित आर्थिक या और राजनीतिक समस्या के रूप में देखते हैं। हालांकि इन सभी ने यह स्पष्ट नहीं कहा कि व्यापार में संरक्षणवाद इस समस्या का एक संभावित समाधान है। लैरी समर्स ने 24 जून 2007 को फाइनैंशियल टाइम्स के एक लेख में लिखा है, ‘जिन तर्को में सुझाव दिया जाता है कि मध्य वर्गीय परिवारों की आमदनी में बढ़ोतरी का एकमात्र उपाय अंतरराष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करना है, बेहद खतरनाक है।’
समर्स का एक विश्लेषणात्मक तर्क (फाइनेंशियल टाइम्स, 24 अप्रैल, 2008) बेहद दिलचस्प है, जिसमें कैपिटल मोबिलिटी यानी पूंजी की गतिशीलता के परिणामों की चर्चा की गई है। इसके मुताबिक अमेरिकी पूंजी के अति गतिमान होने से अमेरिकी कामगारों पर दुर्दशा की दोहरी मार पड़ी है। पहला- कंपनियां सस्ते कामगारों की तलाश में दुनिया के दूसरे देशों का रुख कर रही हैं (रॉस पेरोट्स के उत्तेजक मुहावरे के मुताबिक- ‘जायंट सकिंग साउंड’ )।
अमेरिका के कामगार कम उत्पादक साबित हो रहे हैं (ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन्हें कम काम मिलता है)। इसका परिणाम यह है कि उन्हें कम वेतन मिलता है। पूंजी के देश के बाहर लगाने के विकल्प से भी घरेलू श्रमिकों को कम पैसे मिलते हैं। दूसरा- पूंजी के अति गतिमान होने का प्रभाव घरेलू नीतियों पर भी असर डालता है, जिससे मजदूरों की समस्या बढ़ती है।
क्योंकि पूंजी जुटाने के लिए टैक्स हटाए जाते हैं और तमाम देश करों को कम करके अपनी ओर पूंजी को आकर्षित करते हैं। इस विश्लेषण से यह उभरकर सामने आता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाईचारा बनाने के लिए नियम बनते हैं- जो कर क्षेत्र, वित्तीय क्षेत्र के नियमों में और श्रम मानकों सहित तमाम क्षेत्रों में लागू होते हैं। इस तरह पूंजी की गतिशीलता के कुछ स्वरूपों को कम किया जाना चाहिए। इसमें ऊपर उल्लिखित दो समस्याओं को ध्यान में रखना चाहिए।
पिछले दशक से अमेरिका में विदेशी पूंजी का कुल आयात बढ़ा है। इसलिए इस प्रभाव के अन्य पहलुओं पर भी गौर किया जाना चाहिए। ऊपर दिए गए उदाहरण का असर कितना होगा अगर कंपनियां वास्तव में यह अनुभव करें कि प्रत्यक्ष निवेश के बजाय वित्तीय पूंजी का निवेश करना चाहिए। बरहाल आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि अमेरिका से कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का प्रवाह बहुत कम है, कभी-कभी तो नकारात्मक रहा है।
धन की निकासी का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता और अगर यह केवल धन निकासी एकमात्र समस्या है, जो कम विकसित देशों की ओर जा रही है, तो यह प्रवाह विकासशील देशों की ओर तो नगण्य है (जीडीपी के 0.5 प्रतिशत के बराबर और अमेरिका के कैपिटल स्टॉक का एक छोटा सा हिस्सा है)। इसके बढ़ने का भी कोई संकेत नहीं मिल रहा है।
कर राजस्व की संख्या भी इस बात का संकेत नहीं देती कि कर का आधार खत्म हो रहा है। कुल कर जिसमें कार्पोरेट और इनकम टैक्स शामिल है (जीडीपी में हिस्सा के लिहाज से) तुलनात्मक रूप से पिछले दो तीन दशकों से स्थिर है, या बढ़ा है।
यह सही है कि राष्ट्रपति बुश के कार्यकाल में कर दरों में कटौती की गई है। नीतिनिर्माताओं ने वैश्वीकरण के चलते संतुलन बनाए रखते हुए केवल सैध्दांतिक रूप से ऐसा किया है। राज्य के संपत्ति कर से वैश्वीकरण से कोई लेना देना नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि वैश्वीकरण के चलते हेल्थकेयर और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की जरूरत है। इससे वैश्वीकरण को लेकर अमेरिकी नीति में परिवर्तन की नहीं बल्कि अमेरिकी श्रमिकों को राज्य के समर्थन की जरूरत है।
आइये एक बार फिर चलते हैं अंतरराष्ट्रीय सौहार्द नियामक के उपचार की ओर। जहां तक नीतियों का सवाल है, इसके विरोध की जरूरत नहीं है। मजदूरों को सुविधा दिए जाने के मुद्दे का प्रदर्शनकारी ताकतें सामान्यत: दुरुपयोग करती हैं। यहां सावधानी बरते जाने की जरूरत है। यहां पर उचित नियम बनाए जाने के लिए भगवती-रामस्वामी के सुझाव लागू किए जाने योग्य हैं।
आमदनी का असंतुलित बंटवारा सबसे बड़ी घरेलू समस्या है। इसका सबसे उचित और प्रभावी उपचार यह होगा कि विकास के समवर्ती नुकसान को कम किया जाए- खासकर दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को ध्यान में घरेलू नीतियों में सुधार किए जाने की जरूरत है। घरेलू विकल्प को प्राथमिकता दिए जाने का एक कारण और भी है।
वैश्वीकरण के दौर में जैसा कि लाऊ डॉब्स आरोप लगाते हैं कि अमेरिका के कामगारों के लिए चीन और भारत के प्रतिस्पर्धियों की तुलना में काम करना कठिन है। इससे वहां के कामगारों को खासी दिक्कत होती है कि अमेरिकी मैनेजरों और पूंजीपतियों और मजदूरों के बीच खाईं गहरी है। अमेरिकी मजदूर, जिन्होंने हाल में हुए एनरॉन और टेक बबल घोटालों को देखा है- से स्पष्ट होता है कि चीफ एग्जीक्यूटिव और कर्मचारियों के बीच अंतर बहुत ज्यादा है।
यह 1973 में 27 गुना था जबकि 2000 में 300 गुना हो गया है। वहां के कर ढांचे से भी दोहरे मानकों का पता चलता है। अमेरिका के सामाजिक जीवन स्तर पर यह अंतर बहुत ज्यादा प्रभावी है। अमेरिका के लोग कुल मिलाकर अमेरिकी सपने में बराबर की हिस्सेदारी रखते हैं।
अधिक प्रभावी पुनर्बंटवारा, बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाएं और कार्पोरेट एक्सेस का बेहतरीन नियमन, जिसमें अधिकारियों का वेतन भी शामिल है, परेशानियों को कम करने में सहायक साबित होगा। इससे अमेरिका के श्रमिकों को आर्थिक बेहतरी और सुरक्षा मिल सकेगी। इस संदर्भ में घरेलू नीतियां अमेरिकी लोगों के विश्वास को बढ़ाने, नैतिक बल बढ़ाने में ज्यादा सक्षम साबित होंगी।