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  लेख  भारत-अमेरिका की करीबी और चीन की आक्रामकता
लेख

भारत-अमेरिका की करीबी और चीन की आक्रामकता

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 26, 2020 12:02 AM IST
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अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर का भारत दौरा इस सप्ताह शुरू हो रहा है। ऐसी 2+2 चर्चाएं पिछले कुछ समय से चल रही हैं। व्यापार के मोर्चे पर चाहे जो दिक्कतें आई हों, भारत और अमेरिका के सामरिक रिश्ते तेजी से विकसित हुए हैं। ऐसे में इस बातचीत में क्या खास है?
दरअसल यह वार्ता अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के बमुश्किल एक सप्ताह पहले हो रही है। इस महामारी के बीच आखिर अमेरिकी प्रशासन के दो अत्यंत अहम सदस्य भारत क्यों आ रहे हैं? क्या केवल 2+2 संवाद प्रक्रिया ही इसकी वजह है?
अहम सवाल यह भी है कि भारत दोनों के साथ करीबी क्यों बढ़ा रहा है जबकि यह भी पता नहीं कि सप्ताह भर बाद राष्ट्रपति चुनाव में कौन जीतेगा? वैसे तमाम सर्वेक्षण यही कह रहे हैं कि डॉनल्ड ट्रंप की हार के आसार अधिक हैं। सामान्य परिस्थितियों में भारत ऐसे में प्रतीक्षा करना उचित समझता।
परंतु यह सामान्य समय नहीं है। केवल इसलिए नहीं कि चीन लद्दाख में छह माह पुराने धरने से पीछे हटने को तैयार नहीं है। वह भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय है लेकिन अमेरिका के लिए वह शीर्ष विदेशी और सामरिक नीति प्राथमिकता नहीं है।
परंतु तस्वीर इस बात से बदल जाती है कि चीन न केवल अमेरिका बल्कि दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों के लिए अहम सामरिक चिंता का विषय बना हुआ है। इसमें ब्रिटेन  समेत पूरा यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं।
अरब मुल्क भले कुछ न कह रहे हों लेकिन ईरान और चीन की करीबी को वे भयातुर होकर देख रहे हैं। पाकिस्तान और चीन के रिश्ते जगजाहिर हैं और अब वह निर्णायक रूप से तुर्की के पक्ष में होता जा रहा है। यहां तक कि उसके विदेश मंत्री ने सार्वजनिक रूप से सऊदी अरब की आलोचना की।
शी चिनफिंग के नेतृत्व में चीन ने पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में घबराहट पैदा कर दी है। उत्तर में उसे क्षेत्रीय स्तर पर स्वीकार लिया गया है। रूस शायद चीन का इकलौता ताकतवर और करीबी सहयोगी है। हम पाकिस्तान को इस सूची में नहीं रख रहे क्योंकि उसका रिश्ता सहयोग से अधिक निर्भरता का है।
रूस चीन को ईंधन की आपूर्ति करता है और ऐसा करके उसे मलक्का जलडमरूमध्य के खतरों से भी बचाता है। दोनों के सैन्य रिश्ते भी मजबूत हो रहे हैं। रूस के पास तकनीक और औद्योगिक आधार है। चीन के पास बड़ी सेना है जिसे इनकी जरूरत है। उसके पास धन भी है। परिणामस्वरूप चीन की सेना और रूस के उद्योग जगत के बीच एक नया सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ उभरता दिख रहा है।
ध्यान रहे भारतीय वायुसेना को भी यह मानकर चलना है कि उसे लद्दाख क्षेत्र में रूस में बनी एस-400 और एस-300 मिसाइल प्रणाली की चुनौती का सामना करना है। भारत की एस-400 प्रणाली 2022 के पहले शुरू नहीं हो सकेगी। यह एक जटिल सामरिक हकीकत है। पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के रूप में चीन की सरपरस्ती में पहले ही दो ऐसी परमाणु शक्तियां मौजूद हैं जिनका कोई भरोसा नहीं है। रूस भी उसका साथी है। इस क्षेत्र में भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया ही संतुलनकारी शक्तियां हैं जिन पर काफी दबाव है। ताइवान को धमकाया जा रहा है जबकि हॉन्गकॉन्ग को कब्जे में लिया जा चुका है। ऐसे में अमेरिकी नेतृत्व वाला गठजोड़ चिंतित है। वैश्विक उथलपुथल वाले इस वर्ष में चीन इकलौता देश है जिसकी अर्थव्यवस्था प्रगति करेगी।
यह बात उसे अमेरिका में द्विपक्षीय चिंता का विषय बनाती है। ट्रंप और बाइडन शायद एक ही बात पर सहमत होंगे कि आखिर चीन से ज्यादा कड़ाई से कौन निपटेगा?
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस में क्रोधित भगवान राम सभी रिश्तों के लिए एक सूत्र देते हैं फिर चाहे वह किसी व्यक्ति के साथ हो या किसी देश के साथ-भय बिन होत न प्रीति। शायद यह बात उन्होंने अपनी ताकत का अहसास कराने के लिए कही हो लेकिन इसका उलटा भी सच है।
उदाहरण के लिए कोई भी शायद यह कहने से पीछे नहीं हटता कि भारत-अमेरिका संपर्क क्वाड को लेकर तेजी ऑस्टे्रलिया की मालाबार नौसैनिक कवायद में वापसी आदि का ताल्लुुक चीन से नहीं है लेकिन अमेरिकी उप विदेश मंत्री स्टीफन ई बेगन जैसे व्यक्ति ने सप्ताह भर पहले भारत में यह कहने से गुरेज नहीं किया कि चीन तमाम देशों के लिए कठिनाई पेश कर रहा है लेकिन उसके बारे में चर्चा करने से गुरेज किया जा रहा है।
यह चीन का भय ही है जो इन तमाम देशों को एक साथ ला रहा है और इस दौरान तमाम कूटनीतिक बहाने बेमानी हैं। बल्कि मैं तो इन्हें चीन पीडि़त समाज भी कहता हूं। यही हकीकत है। चीन ने इन देशों में खलबली मचा दी है। यही कारण है कि पॉम्पिओ भारत के बाद श्रीलंका और मालदीव जा रहे हैं।
इस बदलाव को देखते हुए हैं देश के सामरिक विद्वानों की व्याख्याएं भी पढ़ता रहता हूं। सी राजा मोहन ने 25 अगस्त को द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की बहुचर्चित परिभाषा किस प्रकार बदल गई है। वह कहते हैं कि सन 1990 के दशक में शीतयुद्ध के बाद एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनी। उस वक्त भारत के लिए रणनीतिक स्वायत्तता का अर्थ था अपने रणनीतिक हितों और राजनीतिक स्वतंत्रता को अमेरिका जैसी रसूखदार ताकत से आजाद रखना। यह अहम था क्योंकि क्लिंटन के दोनों कार्यकाल के दौरान चाहे जो मतभेद रहे हों लेकिन उनके लोग भारत-पाकिस्तान को दुनिया की सबसे खतरनाक जगह मानते थे जहां परमाणु जंग का खतरा था। उन्हें यह भी लगता था कि वे कश्मीर मसले को हल करने में मदद कर सकते हैं। भारत ने सामरिक संतुलन कायम करने के लिए रूस से पुराना रिश्ता दोबारा शुरू किया और चीन की ओर हाथ बढ़ाया।
आज रणनीतिक स्वायत्तता की परिभाषा कहीं अधिक तीक्ष्ण है: अब इसका अर्थ है भारत की क्षेत्रीय अखंडता संप्रभुता और क्षेत्रीय कद को मिल रही चीनी चुनौती को दूर करना। मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सिंगापुर में 2018 के शांग्री-ला संवाद में दिया गया भाषण भी याद आ रहा है जहां उन्होंने रणनीतिक स्वायत्तता की एकदम अलग पारंपरिक परिभाषा दी थी। उन्होंने कहा कि भारत अपनी राह खुद बनाएगा और बड़ी शक्तियों को एक और प्रतिस्पर्धा से बचना चाहिए। यह भारतीय विदेश विभाग के पुराने नजरिये की वापसी थी। आज शायद प्रधानमंत्री वह बात न दोहराएं।
दूसरे हैं ध्रुव जयशंकर जो अमेरिकी थिंकटैंक ओआरएफ सेंटर के प्रमुख हैं। उन्होंने ‘फस्र्टपोस्ट’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को लेकर ‘तालमुडिक बहसों’ का अंत हो चुका है। आप यह सवाल कर सकते हैं कि अपनी परिभाषा में उन्होंने वैदिक या शास्त्रार्थ परंपरा के बजाय यहूदी शब्द क्यों चुना लेकिन संदेश स्पष्ट है। रणनीतिक नीतियां सर्वोच्च राष्ट्रीय हितों से तय होती हैं न कि पुरानी याद या पाखंड से।
जब कोई शीतयुद्ध चल रहा होता है या नया शीतयुद्ध शुरू होता है तब भारत निरपेक्ष नहीं रह सकता। मैं जानता हूं कि यह पढ़कर नेहरू और इंदिरा के तमाम समर्थक नाराज हो सकते हैं लेकिन मैं उन दोनों को इसलिए भी पसंद करता हूं कि वे कभी पक्षधरता में पीछे नहीं हटे। बात बस यह है कि सन 1962 के बाद नेहरू ने अमेरिका को बहुत देरी से चुना जब उनका पराभव हो रहा था। उनकी बेटी ने सोवियत संघ को तरजीह दी। उनके नेतृत्व में कम से कम 1969 और 1977 के बीच और फिर 1980 से 1984 के बीच भारत गुटनिरपेक्ष नहीं था। वह रूस की सहयोगी थीं क्योंकि वह राष्ट्र हित में काम कर रही थीं।
आज भी वैसा ही चयन किया गया है। भारत दो दशक से उस दिशा में बढ़ रहा है और अमेरिका ने भी उत्साह दिखाया है। परमाणु संधि के बाद कुछ बाधा अवश्य आई जब कांग्रेस आलाकमान की थकान जाहिर थी और तत्कालीन रक्षा मंत्री ए के एंटनी जोखिम लेने से इतना अधिक बचते थे कि मालाबार कवायद तक अपना जज्बा खो बैठी थी।
अब वैसी कोई हिचक नहीं है। भारत और अमेरिका ने निर्णय ले लिया है। नजदीकी चरम पर है। दोनों देशों में खासकर अमेरिका में मामला द्विपक्षीय है। वहां एक सप्ताह के भीतर बदलाव देखने को मिल सकता है। यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के एक सप्ताह पहले भारत में उक्त 2+2 बैठक हो रही है।

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