अधिकतर लोगों की तरह मैं भी यह सोचकर चिंतित हूं कि जिस तरह के राजनीतिक नतीजे का अनुमान लगाया जा रहा है, उसका आर्थिक निष्पादन पर क्या असर होगा।
आर्थिक मोर्चे पर हालात कमोबेश 1991 की तरह ही भयावह हैं और नई सरकार को जिन चुनौतियों से जूझना होगा, वे कम गंभीर नहीं हैं। सरकार को बड़ी संख्या में तात्कालिक उद्देश्यों से मुकाबला करना होगा, जबकि वह दीर्घावधि के एजेंडे खुद तय कर सकती है।
चिंता की बात यह है कि सभी तरह की समस्याओं के साथ ही सरकार को एक गठबंधन की मांग और उससे उपजने वाली बाधाओं से जूझना होगा। यह गठबंधन कई मायनों में एक नई संरचना होगा। ऐसी दशाओं में दो सवाल उठते हैं। क्या गठबंधन सरकार के बारे में ऐसी चिंताएं सही हैं?
दूसरा, निकट भविष्य में देश में एक लचीली और अवसरवादी गठबंधन सरकार की अनिवार्यता को देखते हुए ऐसा क्या किया जा सकता है कि जिससे मौजूदा हालात को विकास के लिए एक सकारात्मक ताकत के रूप में बदला जा सके। जबकि आज यह व्यापक रूप से माना जाने लगा है कि ऐसी सरकारें विकास के लिए बाधा ही अधिक खड़ी करती हैं।
ऐसी दशाओं में दो सवाल उठते हैं। क्या गठबंधन सरकार के बारे में ऐसी चिंताएं सही हैं? दूसरा, निकट भविष्य में देश में एक लचीली और अवसरवादी गठबंधन सरकार की अनिवार्यता को देखते हुए ऐसा क्या किया जा सकता है कि जिससे मौजूदा हालात को विकास के लिए एक सकारात्मक ताकत के रूप में बदला जा सके। जबकि आज यह व्यापक रूप से माना जाने लगा है कि ऐसी सरकारें विकास के लिए बाधा ही अधिक खड़ी करती हैं।
पहले सवाल पर, अगर हम गठबंधन सरकार की मौजूदगी और आर्थिक प्रदर्शन के बीच संबंधों को देखें तो नतीजे बहुत अधिक निराशावादी नहीं हैं। जिस दौरान देश में गठबंधन सरकारें रही हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था ने तुलनात्मक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है। कुछ लोग इसे बेहतरीन भी कह सकते हैं।
अगर आप 1991 के बाद के संबंधों पर विचार करें तो मोटे तौर पर निष्कर्ष यह निकलेगा कि 1996 के बाद से हमने जिन चार गठबंधन सरकारों को देखा है, उन सरकारों ने 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों की दिशा में कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया है। वास्तव में उन्होंने सुधारों से मिली गति को आगे बढ़ाने का काम ही किया है।
उदाहरण के लिए चिदंबरम ने 1997 के अपने तथाकथित सपनों के बजट को एक गठबंधन सरकार के तहत ही पेश किया था। इस सरकार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) शामिल थी, जबकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) बाहर से समर्थन दे रही थी। इस बजट से ही कर संरचना में बुनियादी सुधारों की शुरूआत की गई थी।
इसी तरह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने ब्याज दर प्रावधानों को विनियमित किया था। इस गठबंधन सरकार ने 1990 में कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू किए वित्तीय क्षेत्र के सुधारों को तार्किक नतीजे तक पहुंचाया और 2003 तथा उसके बाद उच्च विकास के दौर में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
लेकिन, सवाल अभी भी जस का तस है – उच्च विकास दर की प्रक्रिया आखिर कब तक सुधारों की विरासत से खाद पाती रहेगी। अगर वास्तव में त्रिशंकु सरकार आ रही है तो एक गठबंधन सरकार और खासकर एक ऐसी सरकार जिसमें काफी नीतिगत असमानताएं हैं, क्या ऐसे सुधारों को बढ़ावा दे सकेगी जो सतत उच्च विकास को हासिल करने के लिए सहायक हों।
अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या हम कई महत्त्वाकांक्षी भागीदारों के मिलने से बनी गठबंधन सरकार से मुश्किल आर्थिक हालात में जरूरी निर्णायक फैसले की उम्मीद कर सकते हैं? अंतिम सवाल के लिए मेरा उत्तर है कि यह संभव है, लेकिन उसका कोई मतलब नहीं है। और यह ठीक है कि सरकार अपने काम को कैसे आगे बढ़ाएगी और इसके लिए उसे कितना समय लगेगा, इस बारे में कायम अनिश्चितता सबसे बड़ा खतरा है।
अगर नई सरकार अस्थिर रहती है या फिर अपने संकीर्ण एजेंडे के साथ काम करना शुरू करती है तो उपभोग और निवेश से जुड़े फैसले सीधे तौर से प्रभावित होंगे, फिर चाहें निवेश घरेलू हो या विदेशी। यहां से दूसरे सवाल को बल मिलता है। अगर हमें गठबंधन सरकार के साथ ही जीना है, तो हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि संस्थागत रूप से इतना दबाव बनाएं कि वे एक तर्कसंगत कुशलता के साथ काम करें।
खासतौर से यह विचार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि लग रहा है कि दो सबसे बड़े राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर अपनी वोट हिस्सेदारी, राज्य स्तर पर अपने प्रभाव और संसद में अपनी सीट को कायम रखेंगे। अभी तक गठबंधन सरकारों के प्रारूपों में पर्याप्त सहजता रही है। इसमें एक या दो दलों ने निर्णायक भूमिका अदा की है। अच्छा रहेगा अगर हम गठबंधन सरकार के लिए औपचारिक आवश्यकताओं को अपना सके।
सबसे अधिक स्वाभाविक आवश्यकता यह है कि गठबंधन चुनाव से पहले कायम किया जाए। ‘सबसे बड़ी पार्टी’ की परिपाटी को बदलकर अब ‘सबसे बड़ा चुनाव पूर्व गठबंधन’ के सिद्धान्त को मान्यता मिलनी चाहिए। इससे बेरोक-टोक पाला बदलने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी, जो इस चुनाव में काफी हद तक देखने को मिल रही है और अभी तक यह साफ नहीं हो सकता है कि कौन किसके साथ है।
साथ ही एक औपचारिक चुनाव-पूर्व गठजोड़ का एक औपचारिक गठबंधन घोषणा पत्र भी होना चाहिए। राजनीतिक दल अपने व्यक्तिगत घोषणा पत्र के जरिए अवास्तविक और अव्यवहारिक वादे कर सकता है और फिर उनसे यह कहते हुए बच सकता है कि यह तो गठबंधन की सरकार है और उनकी पार्टी तो इसकी एक सदस्य भर ही है। यह विज्ञापन के सभी सिद्धांतों का उल्लंघन है।
अगर इस स्थिति की कल्पना न की जाए कि एक पार्टी पूर्ण बहुमत पा जाएगी तो, एक मतदाता के तौर पर हमें यह जानने का हक है कि अगर कोई पार्टी सरकार का हिस्सा बनती है तो उसकी नीतिगत स्थिति क्या होगी। राजनीतिक दलों को चुनाव से पहले एक वास्तविक साझा नीतिगत स्थिति और एजेंडा तैयार करने की चुनौती से जूझना होगा। ऐसा इसलिए भी जरूरी है ताकि एक गठबंधन के तौर पर उनका मूल्यांकन किया जा सके और जीत कर आने पर उनकी जवाबदेही भी हो।
इन उपायों से सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रतिनिधित्व और उत्तरदायित्व में बढ़ोतरी होगी। शायद हमें इससे आगे जाने और इन बुनियादी नियमों में संशोधन की जरूरत है। कई देशों में ऐसे प्रावधान हैं कि अगर चुनावों के बाद किसी भी प्रत्याशी को बहुमत नहीं मिलता है तो विकल्प के तौर पर न्यूनतम वोट के साथ समानुपातिक प्रतिनिधित्व को अपनाया जा सकता है।
यह प्रणाली संघीय संरचना के विकेंद्रीकरण के लिए खासतौर से उपर्युक्त है। निश्चित तौर से इन विकल्पों और अन्य विकल्पों की भारतीय संदर्भ में प्रासंगिकता पर लंबे समय से बहस चल रही है और यथास्थिति से उबरने के लिए कुछ नहीं किया जा सका है। लेकिन, अगर प्रभावी नीति निर्माण और क्रियान्वयन के जरिए यथास्थिति में कुछ बदलाव आ सकता है तो सार्थक विकल्पों पर विचार करना चाहिए।
(लेखक स्टैंडर्ड एंड पुअर्स एशिया-प्रशांत के मुख्य अर्थशास्त्री हैं। विचार उनके अपने हैं।)
