चौथी तिमाही के लिए विभिन्न देशों के आर्थिक आंकड़े जारी होने के बाद तस्वीर और भयावह हो गई है। बीते सप्ताह जारी हुए अमेरिकी आंकड़ों के मुताबिक तिमाही आधार पर अर्थव्यवस्था में 3.8 प्रतिशत की गिरावट आई है।
इससे पिछली तिमाही के दौरान भी अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज हुई थी। अगली तिमाही के दौरान भी हालात जस के तस बने रहने का अनुमान है, क्योंकि जब तक उपभोग के कारण माल भंडार में कमी नहीं आ जाती है, कंपनियां उत्पादन में कटौती जारी रखेंगी।
माल भंडार प्रबंधन अमेरिकी निर्यात को विपरीत तौर से प्रभावित करेगा, जो एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी एक बुरी खबर है।
इस बीच चीन सरकार ने खुलासा किया है कि अक्टूबर से दिसंबर के दौरान अर्थव्यवस्था पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 6.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। यह आंकड़ा पिछली तीन तिमाहियों की विकास दर (लगभग 10 प्रतिशत) के मुकाबले काफी कम है।
हालांकि पिछली तिमाही के मुकाबले इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है और कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चीन मंदी की चपेट में आ सकता है।
मौजूदा रुझान बताते हैं कि 2009 की पहली तिमाही में हालात ऐसे ही बने रहेंगे। जापान ने भी एक निराशाजनक तिमाही देखी है।
नवंबर और दिसंबर के दौरान औद्योगिक उत्पादन में 9 प्रतिशत की गिरावट आई है। संक्षेप में कहें तो 2009 के पूर्वानुमान निर्दयतापूर्वक नकारात्मक दिशा में जाते हुए दिख रहे हैं।
इन तिमाही आंकड़ों के मद्देनजर क्या उम्मीद की कोई किरण बची हुई है? इस गिरावट को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति सबसे अधिक योगदान दे सकती है क्योंकि दुनिया भर में मुद्रास्फीति को लेकर भय कम हुआ है।
हालांकि कुछ बातों को लेकर चिंताएं भी बनी हुई हैं। पहली यह कि जापान और अमेरिका अपनी नीतिगत दरों को शून्य प्रतिशत के स्तर पर ले आए हैं और इसलिए उन्हें अब कोई कदम उठाने के लिए गैर-परंपरागत (और बिना परखे हुए) तरीके अपनाने होंगे।
दूसरी बात यह है कि वित्तीय प्रणाली अधिक कर्ज के जरिए मिली भारी नकदी को सोखने की स्थिति में नहीं है। इस कारण वित्तीय नीति पर बोझ और बढ़ गया है।
ऐसे समय में जबकि विभिन्न सरकारों, खासकर अमेरिका और चीन ने कई कदम उठाए हैं, कई प्रभावशाली विश्लेषकों ने अमेरिकी पैकेज की आलोचना की है।
खासतौर से इस पैकेज की आलोचना इसके काफी छोटा होने के साथ गलत दिशा में होने के कारण की जा रही है। और इस कारण अर्थव्यवस्था में बहुत सा धन काफी देर से आएगा।
दुनिया भर के नीति-निर्माताओं को इस संकट का सही आकलन करना होगा और उन्हें हर संभव कदम जल्द से जल्द उठाने होंगे।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के भीतर बन रही राय अंतरराष्ट्रीय और घरेलू दोनों ही विश्लेषकों की राय के उलट लगती है। वित्त वर्ष 2009-10 के लिए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्वानुमान से भी यह बात जाहिर होती है।
परिषद ने अगले वित्त वर्ष के दौरान अर्थव्यवस्था के 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ने की उम्मीद जाहिर की है। यह राय नकारात्मक वैश्विक रुझान और प्रभावी मौद्रिक तथा वित्तीय नीतियों को लेकर व्यक्त किए जा रहे संदेहों के ठीक उलट है।