अमेरिका को केवल बड़ी कंपनियों और बड़े बाजारों के लिए ही नहीं जाना जाता था। यहां के नियामकों को भी काफी जबरदस्त बताया जाता था। फेडरल रिजर्व और सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन (एसईसी) की न सिर्फ काफी सख्त थी, बल्कि इनसे काफी खौफ खाया जाता था।
ये बाजार बड़े और जबरदस्त बाजार रेटिंग एंजेसियों जैसी कई संस्थाओं की रिपोर्ट पर भी निर्भर हुआ करते थे। मजे की बात यह है कि आज सारी की सारी बड़ी रेटिंग एजेंसियों की कमान अमेरिकियों के हाथों में है।
इन सब को मौजूद आर्थिक संकट ने भरे बाजार में नंगा खड़ा कर दिया है। मिसाल के तौर पर तब एसईसी क्या कर रही थी, जब बीयर स्टर्नस, लीमन ब्रदर्स जैसे बड़े इनवेस्टमेंट बैंक अपने शेयरों की कीमतों में कई गुना इजाफा करने में जुटे हुए थे।
अगर किसी कंपनी के पास 600 अरब डॉलर की परिसंपत्ति हो, लेकिन उसकी इक्विटी केवल 26 अरब डॉलर की हो तो परिसंपत्तियों की कीमत में आई पांच फीसदी की गिरावट भी उस कंपनी को बर्बाद करने के लिए काफी है।
हुआ भी बिल्कुल ऐसा ही है। मान लीजिए, इस बात को एसईसी ने अनदेखा कर दिया तो फिर रेटिंग एजेंसियां क्या कर रही थीं? उन्होंने तो इन कंपनियों को जबरदस्त रेटिंग दी थी।
अगर आज हर चीज में जोखिम है, तो फेड ने इस बात को कैसे नजरअंदाज कर दिया? क्यों उसने कानून बनाने वालों या एसईसी को इस बारे में कदम उठाने को नहीं कहा? लगता तो अब यह है कि इनवेस्टमेंट बैंकिंग का पूरा का पूरा मॉडल ही गलत था।
उन्होंने केवल इसलिए मुनाफा कमाया क्योंकि वे जोखिमों से भरा काम करके मोटी कमाई वाला धंधा चलाया करते थे।
ऊपर से उन्हें परंपरागत बैंकों की तर्ज पर नियंत्रित भी नहीं किया जा सकता था, इसलिए उन्हें डूबने से बचाने के लिए कोई सहारा भी नहीं था।
यही बतलाता है कि क्यों आज की तारीख में बैंक ऑफ अमेरिका इनवेस्टमेंट बैंकों का शिकार कर रहा है और क्यों मॉर्गन स्टैनली को दूसरे वित्तीय संस्थानों के सहारे की जरूरत है?
जब एनरॉन डूबा था, तब इसकी सबसे ऊंची कुर्सियों पर हॉवर्ड से एमबीए की डिग्री हासिल कर चुके कुछ लोग बैठे थे।
इसे सलाह दे रही थी मैकिंजी जैसी एजेंसी और इसके बही-खाताओं पर नजर रखने की जिम्मेदारी अमेरिका के सबसे बड़े अकाउंटिंग फर्मों में से एक के पास थी।
बाद में नतीजा यह निकल कर सामने आया कि कंसल्टिंग का काम करने के लिए अकाउंटिंग फर्मों को उन्हीं के ग्राहकों से पैसे मिला करते थे। इससे निष्पक्ष तरीके से ऑडिट करना उनके लिए मुमकिन नहीं रहा।
यही दिक्कत रेटिंग एजेंसियों के सामने भी आई। उन्हें इनवेस्टमेंट बैंकों से काफी काम मिला करता था, इसलिए उनकी कमाई का वे बड़ा जरिया बन चुके थे।
तो क्या इनवेस्टमेंट बैंकों की रेटिंग को लेकर उन्होंने अपनी आंखें मूंदे रखीं, जिससे सही आंकड़े बाजार के पास नहीं पहुंच सके?
खैर जो भी हो, लेकिन क्या सचमुच रेटिंग एजेंसियों में काम करने वालों ने हजारों पेज वाले वित्तीय दस्तावेजों के हर पन्ने को बेहद गौर से पढ़ा था, जिसमें से ज्यादातर बातें आम इंसान के सिर के ऊपर से निकल जाए?
खास तौर पर ऐसे हालात में, जब उन्हें पढ़ने के लिए उन लोगों को बेहद कम पैसे मिलते थे। इसका अंदाजा आप आसानी से लगा सकते हैं।
दूसरे शब्दों में, केवल इनवेस्टमेंट बैंकों पर से ही लोगों का भरोसा नहीं उठा, बल्कि उन मोटे-मोटे वित्तीय दस्तावेजों से भी लोग-बाद निराश हो गए हैं, जिन्हें कोई समझ ही नहीं सकता है।
इस हालात में बिकवाली ही सामने आती है। बिकवाली को हम भारतीयों ने हमेशा से हेय दृष्टि से देखा है क्योंकि यह मुनाफा खा जाता है।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार वाले, इसे बाजार से कभी अब हालत यह है कि एसईसी बिकवाली पर प्रतिबंध लगाने की सोच रही है। किसी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि सबसे बुरा दौर बीत चुका है।
मैं इस बात पर दांव नहीं खेलने वाला। दिवालिया कंपनियों की परिसंपत्तियों को कभी न कभी तो बेचना ही पड़ेगा। इससे इन परिसंपत्तियों की खुली लूट ही मचेगी।
खरी बात : अब यह कहना कतई मजाक नहीं रह गया है कि हिंदुस्तानी वित्तीय नियामक व्यवस्था की असल जान उसमें दिए गए तरह-तरह के रोक-टोक हैं।