कुछ दिन पहले कोचीन शिपयार्ड ने भारतीय नौसैनिक पोत (आईएनएस) विक्रांत नौसेना को सौंप दिया। इसके साथ ही शिपयार्ड में बड़ी जगह खाली हो गई, जहां देश के पहले स्वदेशी विमानवाहक (आईएसी)-1 का निर्माण चल रहा था। इसके साथ ही दो नए सवाल तैरने लगे हैं। पहला यही कि क्या दूसरे स्वदेशी विमानवाहक पोत का निर्माण होने जा रहा है? दूसरा सवाल भी इससे ही जुड़ा है कि यदि ऐसा होने जा रहा है तो आईएसी-2 का आकार क्या होगा? इन सवालों पर नौसेना के जवाब ही आने वाले दशकों में भारत की नौसैन्य शक्ति की नियति निर्धारित करेंगे। इन मुद्दों को सुलझाने की दिशा में नौसेना दो बुनियादी सच अवश्य ध्यान में रखे।
पहला यही कि विमानवाहक का वजूद उसकी हवाई टुकड़ी को जंग में ले जाने के लिए होता है और दूसरा यही कि उस पर तैनात लड़ाकू विमान कौनसे और कितने सक्षम होंगे और यही पहलू किसी विमानवाहक पोत की उपयोगिता में निर्णायक होता है। इन दोनों ही पैमानों पर देखें तो भारतीय नौसेना कुछ पीछे दिखती है।
स्वतंत्रता के बाद से भारत ने तीन विमानवाहक पोतों की सेवाएं ली हैं। द्वितीय आईएनएस विक्रांत इस कड़ी में चौथा होगा। शुरुआती दो पोत मूल आईएनएस विक्रांत (19,000 टन) और आईएनएस विराट (28,000 टन) सेवा से बाहर हो गए हैं और अब केवल एक ही विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रमादित्य (44,000 टन) शेष रह गया है। वहीं नए सिरे से संवारे गए आईएनएस विक्रांत की क्षमता 45,000 टन की होगी और वह दूसरा सक्रिय विमानवाहक पोत होगा। मोटे तौर पर यही अनुमान होता है कि विमानवाहक पोत की 1,000 टन की क्षमता एक विमान के लिए आधार बन सकती है।
इसका यही अर्थ हुआ कि अतीत में विक्रांत और विराट की एक स्क्वाड्रन (16 से 18 लड़ाकू विमान) के साथ महज चार-पांच हेलीकॉप्टर से अधिक क्षमता नहीं रही, जबकि सामुद्रिक रण में पनडुब्बी-रोधी संघर्ष (एएसडब्ल्यू) और एयरबोर्न अर्ली वार्निंग ऐंड कंट्रोल (एईडब्ल्यूसी) जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य संचालन के लिए अधिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। यहां तक कि आईएनएस विक्रमादित्य भी 25 से अधिक लड़ाकू विमानों को नहीं उतार सकता, जो पहलू उसे अहम युद्ध और मिशन को लेकर पर्याप्त वायु शक्ति से वंचित रखता है।
यही कारण है कि नौसेना आईएसी-2 में 65,000 टन की क्षमता के लिए पूरा जोर लगा रही है। इसे अमेरिकी नौसेना के सहयोग से भारत में बनाए जाने की योजना है। अमेरिकी नौसेना ही इसके लिए तकनीकी एवं रणनीतिक परामर्श प्रदान करेगी, जो विमानवाहक पोत संचालन में वैश्विक महारथी है। इसके लिए दोनों देशों ने रक्षा तकनीकी एवं व्यापार पहल के अंतर्गत विमानवाहक पोत तकनीकी सहयोग पर एक संयुक्त कार्यबल भी गठित किया है।
यदि ऐसा पोत मूर्त रूप लेता है तो इसमें करीब 55 लड़ाकू विमानों के लिए गुंजाइश बनेगी। साथ ही एएसडब्ल्यू और यूटिलिटी हेलीकॉप्टर के साथ ही यह विस्तृत मैरीटाइम डोमेन अवेयरनेस (एमडीए) मिशन के लिए फिक्स्ड विंग, रैंडम-इक्विप्टेड ईटूसी हॉकआई से लैस होगा। भारतीय नौसेना को ऐसी क्षमताएं पहली बार प्राप्त होंगी। इसमें जो विमान तैनात हो सकेंगे, वे सामुद्रिक नियंत्रण में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। जहां तक आईएनएस विक्रमादित्य और आईएसी-1 पर बेड़े के चयन की बात है तो उनके लिए मिग-29के कमजोर पसंद है। विशेषकर इस तथ्य को देखते हुए कि यह विमान जहाज के डेक पर उतरते हुए पोत के लिए कुछ असहज परिस्थितियां उत्पन्न करता है।
बहरहाल रूस से 45 मिग-29के खरीदने के बाद नौसेना के लिए खरीदारी का प्रबंध करने वालों ने 26 एमआरसीबीएफ (मल्टी-रोल कैरियर-बोर्न फाइटर्स) को लेकर अनुरोध किया है। इस कसौटी पर केवल दो ही नाम खरे उतरते हैं। एक तो दसॉ के राफेल फाइटर का मरीन संस्करण और दूसरा बोइंग का एफ/ए-18ई/एफ सुपर हॉर्नेट, जो अमेरिकी नौसेना के सभी 11 विमानवाहक पोतों पर काम करता है। राफेल-मरीन से जुड़ी कई दिक्कतों को देखते हुए उसकी तुलना में सुपर हॉर्नेट कहीं बेहतर विकल्प प्रतीत होता है।
पहली दिक्कत है कि राफेल-मरीन के ट्विन-सीट प्रारूप की उपलब्धता। वहीं नौसेना ने स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है कि उसे आठ ट्विन-सीट और 18 सिंगल-सीट लड़ाकू विमान चाहिए। यह संयोजन केवल सुपर हॉर्नेट में ही संभव है। दूसरी ओर नौसेना 26 राफेल-मरीन खरीदती है तो वे तटीय प्रशिक्षण या तट से संचालित होने वाले सैन्य अभियान के लिए तो उपलब्ध होंगे, लेकिन कॉम्बैट मिशन के लिए पोत की डेक से उड़ान भरने के लिए नहीं। दूसरी ओर सुपर हॉर्नेट सिंगल के साथ-साथ ट्विन सीट संस्करण में भी तट से लेकर पोत से संचालन की दृष्टि से उपयुक्त है। यह हमारे सीमित बजट के बेहतर उपयोग को सुनिश्चित करेगा।
दूसरा लाभ इंटरपोर्टेबिलिटी का होगा। सुपर हॉर्नेट से फाइटर्स, विमान वाहक पोत और उन तमाम अन्य सैन्य प्लेटफॉर्म्स के बीच बढ़िया तालमेल बनेगा, जो भारतीय सामरिक प्रतिष्ठान में जुड़े हैं या भविष्य में जुड़ सकते हैं। यहां ई/ए-18जी ग्राउलर की ही मिसाल लें, जो उम्दा स्पेशलाइज्ड इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर (ईडब्ल्यू) है जिसकी मिशन पर सुपर हॉर्नेट के साथ नायाब जुगलबंदी होती है, जो मिलकर दुश्मन के रडार को चकमा देकर बेहतर बच निकलने की बेहतर संभावनाएं बनाते हैं। दुनिया में किसी अन्य कैरियर-बोर्न फाइटर के पास ऐसी क्षमताएं नहीं। अमेरिकी सरकार ने अभी तक भारत को ग्राउलर की आपूर्ति पर सहमति नहीं जताई है, लेकिन भविष्य में वह इसके लिए तैयार हो सकती है। वहीं नौसेना ने अभी सुपर हार्नेट नहीं खरीदा तो इससे ग्राउलर को लेकर दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे।
इसमें एमएच-60आर सीहॉक हेलीकॉप्टर, पी-8आई मल्टी-मिशन मैरीटाइम एयरक्राफ्ट और एमक्यू-25 ऑटोनमस कैरियर-बोर्न टैंकर्स जैसे प्लेटफॉर्म्स भी शामिल हैं। यदि नौसेना अभी सुपर हॉर्नेट नहीं खरीदती तो वह भविष्य में यूएस कैरियर्स से एमक्यू-25 तक एक्सेस भूल जाए। एमक्यू-25 आज भले ही कैरियर-बोर्न टैंकर हो, लेकिन भविष्य में इसे अतिरिक्त भूमिका के साथ और संवारने के आसार हैं। भारतीय नौसेना की बड़ी महत्त्वाकांक्षाओं को भुनाने में सुपर हॉर्नेट अहम भूमिका अदा कर सकता है और जिस प्रकार भारत-अमेरिका संबंध आगे बढ़ रहे हैं तो देर-सबेर अमेरिका एमक्यू-25 की सौगात भी भारत को दे सकता है।
सुपर हार्नेट सौदे से अमेरिकी नौसेना से बढ़ने वाली नजदीकी आईएसी-2 के लिए जनरल एटॉमिक्स से ईएमएलएस/एएजी की उपलब्धता में सहायक होगी। इससे न केवल हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी नौसेना के साथ बढ़िया ताल मिलेगी, बल्कि क्वाड सेनाओं (अमेरिका के साथ ही ऑस्ट्रेलिया भी सुपर हॉर्नेट उपयोग करता है) के साथ भी यह सुसंगत होगा। सुपर हॉर्नेट पूरी तरह जांचा, परखा और खरा है, जिसका लाभ भारतीय नौसेना को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मिलता रहेगा। अमेरिकी विमानवाहक पोत करीब एक शताब्दी से तैनात हैं और 700 से अधिक सुपर हॉर्नेट अपनी उपयोगिता साबित कर चुके हैं।
वहीं कुल 40 से अधिक फ्रांसीसी राफेल-मरींस महज 20 वर्षों से एक ही पोत से संचालित हो रहे हैं। और अंत में यह भी एक लाभ दिखता है कि अमेरिका के साथ काम करने से विमानवाहक पोत संचालन के क्षेत्र में वैश्विक दिग्गज रक्षा शोध एवं विकास संगठनों की खूबियां सीखने को मिलेंगी, क्योंकि वे ‘ट्विन-इंजन डेक-बेस्ड फाइटर’ डिजाइन और विकसित करने में महारत रखते हैं।
