सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया में मोदी सरकार की ‘अग्निपथ’ योजना के विरोध का नेतृत्व पूर्व सैनिकों और तेजी से बढ़ते बेरोजगार युवाओं द्वारा किया जा रहा है। इसमें हिंदी प्रदेश के युवा ज्यादा सक्रिय हैं। हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि ये युवा अग्निपथ योजना की दिक्कतों को अनुभवी और पूर्व सैनिकों की तुलना में बेहतर ढंग से समझते हैं।
ज्यादातर पूर्व सैनिक इसलिए भी नाराज हैं कि उन्हें लगता है कि मोदी सरकार अग्निपथ के जरिये सशस्त्र बलों का इस्तेमाल रोजगार निर्माण के लिए कर रही है। युवा अग्निपथ को एकदम विपरीत ढंग से देख रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि यह योजना सशस्त्र बलों में रोजगार समाप्त करेगी। यह कैसे होगा यह बात हम आगे समझेंगे। यह भी बताएंगे कि कैसे इस योजना से उनकी नाराजगी इसे अच्छा स्वरूप प्रदान करती है।
पहले बेरोजगार युवाओं की बात करें तो वे केवल इसलिए बेहतर नहीं समझ रहे हैं कि अपनी राजनीति को दशकों तक वर्दी में रहे पूर्व सैनिकों से बेहतर जानते हैं बल्कि इसलिए भी कि वे अत्यधिक ध्रुवीकृत और राजनीतिक हिंदी क्षेत्रों से आते हैं। वे रोजगार बाजार की निराशा से भी अवगत हैं। उन्हें पता है कि वे जिन जगहों पर रहते हैं वहां अवसरों की कितनी कमी है और उनके पास भी दूरदराज काम करने के लिए कौशल का अभाव है। रेलवे, राज्य सरकार, पुलिस या किसी भी अन्य विभाग में नौकरी मिल जाने से उनका जीवन सुरक्षित हो सकता है। सशस्त्र बल इस मामले में सर्वश्रेष्ठ हैं। उनका आकलन इस आधार पर मत कीजिए कि वे ‘लफंगों’ जैसे दिखते हैं, ट्रेनें जलाते हैं और पुलिस से भिड़ते हैं। वे भी उतने ही नेक और हमारी सहानूभूति के उसी कदर हकदार हैं जैसे कि वे लाखों सुशिक्षित युवा जो हर वर्ष लाखों रुपये की फीस खर्च करके प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं ताकि संघ लोकसेवा आयोग के गिनेचुने पदों पर नियुक्ति पा सकें।
कम संसाधन वाले और मामूली शिक्षा वाले युवाओं के लिए सेना की भर्ती रैली उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि यूपीएससी उन लोगों के लिए जिनकी तस्वीरें आप अखबारों के पहले पन्नों पर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षा संस्थानों के विज्ञापनों में देखते हैं। वे सिर्फ सेना में भर्ती की तैयारी करते हैं।
इन युवाओं को लग रहा है कि अग्निपथ के माध्यम से उनसे वह अवसर छीन लिया गया जो उनके लिए यूपीएससी जैसा था। मान लीजिए कि कोविड के कारण दो वर्ष यूपीएससी की परीक्षाएं न हों और जब लाखों लोग उम्मीद के साथ तैयारी कर रहे हों तो यह घोषणा कर दी जाए कि अखिल भारतीय सेवाओं की भर्ती केवल चार वर्ष के लिए होगी और केवल एक चौथाई लोगों को ही पूर्णकालिक रूप से सेवा पर रखा जाएगा। और समान तुलना की जाए तो भर्ती की आयु कम रखने का एक अर्थ यह भी है कि बीते दो सालों की प्रतीक्षा में उम्रदराज हो गए युवाओं को बदकिस्मत माना जाए। संभवत: यही वजह है कि सरकार ने अग्निपथ योजना की आयु सीमा में एकबारगी छूट दी है और उसे 21 से बढ़ाकर 23 साल कर दिया गया है।
यदि ऐसा बदलाव यूपीएससी में किया गया होता तो कहीं अधिक विकराल दंगे हिंदी क्षेत्रों में भड़क गए होते। हमारा मध्य-उच्च मध्य वर्ग पूरी तरह उन छात्रों से सहानुभूति रखता। विरोध संभवत: सन 1990 के मंडल विरोधी आंदोलन और आत्मदाह से भी अधिक विकट हो जाता। सोशल मीडिया और प्राइम टाइम की बहस भी तब आज की तुलना में अलग होती। मैं अग्निपथ के वर्तमान विरोध के समर्थन में नहीं हूं, न ही किसी बददिमाग कुलीन की तरह इससे जुड़ी चिंताओं को खारिज कर रहा हूं। ये घटनाएं भारत के लिए जोखिम भरा संकेत लाती हैं कि हमारा जनांकीय लाभांश बेकार हो रहा है और करोड़ों बेरोजगार युवा सरकारी नौकरी को ही लक्ष्य मानकर चल रहे हैं। कोई सरकार इतनी नौकरियां नहीं तैयार कर सकती। सेनाएं तो ऐसा कतई नहीं कर सकतीं क्योंकि उनकी वित्तीय हालत और बजट तो पहले ही समस्याग्रस्त हैं। हालांकि इसके बावजूद गड़बड़ी से युक्त अग्निपथ में आमूलचूल सुधार की जरूरत है। लेकिन हमें इन नाराज युवाओं की चिंताओं को भी समझना होगा। पूर्व सैनिकों का यह मानना भी गलत है कि इस योजना के जरिये सेना को रोजगार सृजन का माध्यम बनाया जा रहा है। बात इसके उलट है। चूंकि गत दो सालों से सेना ने कोई भर्ती नहीं की है इसलिए करीब 1.3 लाख सैनिकों की कमी हो गई है। यह महामारी के पहले के स्तर में 10 फीसदी की कमी है। चूंकि अब हर साल केवल 45,000 अग्निवीरों की भर्ती की जाएगी (60,000 नियमित सैनिकों की तुलना में) और केवल एक चौथाई ही चार साल बाद बरकरार रखे जाएंगे तो सैनिकों की कमी बढ़ेगी। एकदम बुनियादी आकलन बताता है कि 50,000-60,000 सैनिकों की सेवानिवृत्ति की मौजूदा सालाना दर से 2030 तक सैन्य बलों में जवानों की तादाद कोविड पूर्व के स्तर से 25 फीसदी तक कम होगी। यह दुनिया भर में चल रहे चलन के अनुरूप ही सैनिकों की तादाद में कमी होगी। अमेरिकी सेना ने भी अपने जवानों की तादाद में काफी कमी की तथा वह और कटौती कर रही है। वह बचने वाले पैसे का इस्तेमाल कृत्रिम मेधा और अन्य हथियारों के विकास में करेगी। चीन भी ऐसा ही कर रहा है। अग्निपथ का नाम बदला जा सकता है, उसे सुधार कर दोबारा प्रस्तुत किया जा सकता है लेकिन ऐसी योजना की जरूरत है। रोजगार निर्माण के बेतुके उपक्रमों से इतर टूर ऑफ ड्यूटी का रुख रोजगार, वेतन और पेंशन में कमी करने का है। इस धन का इस्तेमाल ड्रोन, मिसाइल, लंबी दूरी की तोपें और इलेक्ट्रॉनिक्स में तथा आगामी युद्धों में कम से कम नुकसान तय करने में किया जा सकता है। एक सम्मानित पूर्व सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग ने एक लेख में कहा कि ‘अग्निपथ’ जैसी योजना के पीछे नेक इरादा है, ऐसी योजना जरूरी है और इसमें सुधार किए जा सकते हैं। परंतु यह मोदी सरकार को एक बार फिर याद दिलाती है चुनावी लोकप्रियता चाहे जितनी बड़ी हो लेकिन वह झटके से और एकबारगी बदलाव की ताकत नहीं देती फिर चाहे वे कितने भी लाभदायक हों। कृषि कानूनों (वापस लिए जा चुके), लंबित श्रम कानून और वापस लिए जा चुके भूमि अधिग्रहण कानून में हम ऐसा देख चुके हैं।
बड़े बदलाव की वजह बतानी होती है, उसके लिए जनमत तैयार करना होता है। अचानक किए गए बदलाव के मामलों में सत्ताधारी दल के कुछ सौ सांसदों, गिनेचुने मंत्रियों और कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तुलना में प्रतिक्रिया देने के लिए लाखों लोग होते हैं और वे गुमनामी की ओट ले सकते हैं। ऐसे मामलों में जनता और संसद में ठोस बहस होनी चाहिए, बजाय किसी भी असहमत को खारिज कर देने के। यह असाधारण ताकत देने वाले लोकतंत्र में एक सामान्य कवायद है।
अंत में, हमें भूगोल और राजनीति पर भी नजर डालनी होगी। अगर हम उन 45 जगहों पर नजर डालें जहां दंगे भड़के तो बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड, दक्षिण हरियाणा और राजस्थान का नाम सामने आता है। इन्हें प्राय: कम वेतन वाले श्रमिक मुहैया कराने वाले क्षेत्र माना जा सकता है। सिकंदराबाद-हैदराबाद को छोड़ दें तो अभी यह विरोध दक्षिण में नहीं भड़का है। उम्मीद करें कि यह सिलसिला कायम रहे। हिंदी क्षेत्र के उलट दक्षिण के राज्यों की जन्मदर, पढ़ाई का स्तर, रोजगार आदि की हालत बेहतर है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे कम देशभक्त हैं। राजनीति की बात करें तो पंजाब किसान आंदोलन का केंद्र था। अब तक के चुनाव परिणाम भी बताते हैं कि वह राज्य मोदी लहर से अप्रभावित रहा है। वर्तमान विरोध पूरी तरह भाजपा/राजग की सरकार वाले राज्यों से हो रहा है। ये राज्य भाजपा और मोदी का आधार रहे हैं। यह माना जा सकता है कि इन युवाओं में से ज्यादातर मोदी के समर्थक रहे हैं।
सबक यह है कि चुनावी लोकप्रियता लोकतंत्र से बढ़कर नहीं है। लोगों को तर्क के माध्यम से समझाना होता है। खासतौर पर यह बताने के लिए कि कुछ बड़े बदलाव क्यों उनके हित में हो सकते हैं।
गत आठ सालों में मोदी सरकार की सबसे बड़ी कमी तो यही रही है कि उसने चुनावी बहुमत की सीमाओं को नहीं समझा। इसके चलते भूमि अधिग्रहण तथा कृषि सुधार बरबाद हो चुके हैं, श्रम कानून स्थगित हैं। अगर सैन्य बलों का आधुनिकीकरण और उनकी तादाद कम करना भी इससे प्रभावित हुआ तो यह बहुत बुरा होगा।
