गत 24 अक्टूबर को मौद्रिक नीति की मध्यावधि समीक्षा जारी की गई थी और 30,000 शब्दों की इस समीक्षा को पढ़ने में मुझे अच्छा खासा समय लगा।
मैं यह पहले ही बता देना चाहूंगा कि इस समीक्षा को मैंने शब्दश: तो नहीं पढ़ा पर जितना भी समझा उससे एक बात तो साफ है कि जारी की गई मौद्रिक नीति और इसके ठीक एक हफ्ते बाद रिजर्व बैंक ने जो कदम उठाए, उनमें काफी अंतर है।
अब मैं एक बार फिर से समीक्षा पर आता हूं, इसमें काफी अधिक आंकड़े दिए गए हैं और जो तर्क पेश किए गए हैं वे भी बड़े जटिल हैं। हालांकि कुछ आवश्यक मुद्दों पर विस्तार में चर्चा और विश्लेषण की जरूरत थी जो कि नहीं देखने को मिला है। मैं इस आलेख में ऐसे कुछ ही मुद्दों पर प्रकाश डालूंगा:
सबसे पहले महंगाई को ही लेते हैं। इस समीक्षा में कहा गया है, ‘रिजर्व बैंक का यह प्रयास होगा कि जल्द से जल्द महंगाई को घटाकर 5 फीसदी से नीचे और मध्यावधि में 3 फीसदी के वैश्विक औसत तक लाया जा सके।’
इसी अखबार में मेरे सह-स्तंभकार सुरजीत भल्ला ने तर्क दिया था और मेरे विचार से यह तर्क काफी सटीक भी था कि अपने देश की थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति को दूसरे देशों की उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति से तुलना करना सरासर गलत है। अगर तुलना करनी ही है तो उत्पादक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति से की जानी चाहिए जो कि दुनिया के कई देशों में दहाई के आंकड़े में है। तो आखिर यहां रिजर्व बैंक ऐसी तुलना क्यों कर रहा है?
महंगाई के बाद अब हम मुद्रा आपूर्ति की चर्चा करते हैं। ‘रिजर्व बैंक का यह नीतिगत प्रयास होना चाहिए कि अगर मुद्रा आपूर्ति को बढ़ाने से सरप्लस मुद्रा की स्थिति बन जाती है तो वह उसे नियंत्रण में रखने का प्रयास करे… इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि अगर हाल ही के दिनों में जो प्रयास किए गए हैं उससे बाजार में नकदी बढ़ जाती है तो इसे काबू में रखने के प्रयास भी किए जाएं, इससे एक तरह से महंगाई पर लगाम लगाने में भी सहूलियत होगी।’
आठ दिनों बाद ही रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति में और ढील दे दी। एक और उदाहरण है बैंकों की ओर से दिये जाने वाले ऋण में बढ़ोतरी जो 10 अक्टूबर को खत्म हुए 12 महीनों के दौरान बढ़कर 29.4 फीसदी पर पहुंच गई थी।
इस संबंध में जो बयान जारी किया गया वह कुछ इस तरह का था, ‘ऋणों में इतनी तेज बढ़ोतरी भी चिंता का सबब है और इससे सख्त और लगातार निगरानी रखने की जरूरत और बढ़ जाएगी।’ असली समस्या पर तो कोई चर्चा ही नहीं की गई जो कि भारतीय निर्यातकों, आयातकों और विदेशों में बैंकों की शाखाओं को दिए जाने वाले ऋण को लेकर है।
दरअसल इन्होंने विदेशों में करीब 70 अरब डॉलर का लघु अवधि ऋण लिया था जिसे भुगतान की अवधि नहीं बढ़ाई गई। मोंटेक सिंह अहलूवालिया का बयान (द इंडियन एक्सप्रेस, 27 अक्टूबर) था, ‘असली समस्या यह है कि गैर-बैंकों से लिया जाने वाला ऋण घटा है।
वे कंपनियां जो विदेशों से ऋण ले रही थीं, जिन्हें बाह्य वाणिज्यिक ऋण(ईसीबी) के नाम से जानते हैं वे भी परेशानी में हैं। एक तो विदेशों में ऋण मिलना मुश्किल हो गया है और दूसरा कि इन कंपनियों के लिए विदेशी ऋण के भुगतान की अवधि भी नहीं बढ़ाई गई है तो ऐसे में ये पहले से लिए गए ऋण का भुगतान कैसे करें? ऐसे में सब के सब घरेलू बाजार से पैसा उठाने को मजबूर हो गए हैं।
दूसरी बात यह है कि कारोबारी ऋण, आपूर्तिकर्ताओं का ऋण- ऐसे लोग जो आयात को वित्त प्रदान करते हैं- ऐसे ऋणों में भी भारी कमी आई है। ऐसे में बैंकों से जितनी उम्मीद है वे इससे भी बढ़कर काम कर रहे हैं गैर बैंकिंग प्रणाली उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही है।’
इस मसले पर अखबार के स्तंभकार 1996 से ही टिप्पणी करते रहे हैं और पूंजी खाता परिवर्तनीयता के बारे में दोनों ही रिपोर्टों में इस मसले का जिक्र किया गया है। फिर भी केंद्रीय बैंक की समझ में यह नहीं आ रहा कि इस मुद्दे का शेयर बाजार और बैंकों की नकदी पर क्या असर पड़ेगा। रिजर्व बैंक मसले पर अब भी खामोश बैठा हुआ है।
इस तरह के रवैये के कारण ही आरबीआई की प्रतिष्ठा और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल पैदा होता है और यह संदेह भी होता है कि वह किसी मसले को सुलझाने के लिए कारगर कदम उठा भी सकेगा या नहीं। वैसे भी जिस तरह से नई दिल्ली से ब्याज दरों और यहां तक कि विनिमय दरों को लेकर घोषणाएं की गई हैं उससे रिजर्व बैंक के घटते महत्त्व का अंदाजा लगाया जा सकता है।
हाल ही में एक और मसला उठा था जिससे रिजर्व बैंक के बैंकिंग नियामक की प्रतिष्ठा को चोट पहुंची है। यह मसला डेरिवेटिव सौदों को लेकर बैंकों के दावे पर रिजर्व बैंक की प्रतिक्रिया से जुड़ा था। 13 अक्टूबर को रिजर्व बैंक ने ‘डेरिवेटिव सौदों मंस बचे हुए भुगतान के संदर्भ में’ एक दिशा निर्देश जारी किया।
इसमें कहा गया था कि ऐसे बकाये को गैर निष्पादित संपत्ति (एनपीए) समझा जाए और ‘अगर ग्राहकों को कोई दूसरी सुविधाएं दी जाती हैं तो उन्हें भी एनपीए ही समझा जाए।’ पर इसके कुछ ही दिनों बाद 29 अक्टूबर को रिजर्व बैंक ने अपने इस दिशा निर्देश को बदल दिया। इस तरह पुराने निर्देशों में अचानक से बदलाव करने से बैंकिंग नियामक के तौर पर रिजर्व बैंक की भूमिका और कमजोर पड़ती है।
अमेरिकी चुनाव: अब इस मसले से अलग हटते हुए कुछ चर्चा अमेरिकी चुनावों की करते हैं। अपने पिछले आलेख में मैंने कहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में नस्लवाद का मुद्दा हावी रहेगा।
हालांकि बराक ओबामा के राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचन से मेरी यह मान्यता कुछ कमजोर पड़ती है (पर ऐसा नहीं है कि चुनावों के दौरान नस्लवाद बिल्कुल ही नहीं दिखा क्योंकि ओबामा के पक्ष में 95 फीसदी अश्वेतों ने मतदान किया।
जबकि बड़ी तादाद में गोरे पुरुषों ने उनके प्रतिद्वंद्वी मैकेन को वोट दिया था।) 50 साल से भी कम आयु वाले अश्वेत ओबामा जिनके नाम में हुसैन भी जुड़ा हुआ है, उन्हें अमेरिकियों ने अपना अगला राष्ट्रपति चुना है। निश्चित तौर पर यह घटना यह दर्शाती है कि अमेरिका में किसी भी योग्य व्यक्ति के लिए भी संभावनाओं की कमी नहीं है, हालांकि बुश इसमें अपवाद हैं।
इस परिणाम को देखकर और अधिक आश्चर्य इसलिए भी होता है क्योंकि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र ने आज तक किसी दूसरे मूल के व्यक्ति को अपना राष्ट्रपति नहीं चुना था। पर इसके लिए सिर्फ इस देश की आलोचना ही क्यों जाए। कई ऐसी राजनीतिक पार्टियां हैं जो आज भी ऐसे बदलाव के लिए तैयार नहीं दिखतीं। आज भी हम में से कई ‘गोरी’ पत्नी के लिए ही विज्ञापन देते हैं। हम इन दोनों ही मुद्दों पर अपनी सोच कब बदलेंगे?