भारत, चीन और दूसरे ऐसे देश जिनके पास विशाल विदेशी मुद्रा भंडार जमा हो गया है, अब दुविधा में हैं। इन दोनों एशियाई देशों ने अमेरिका, यूरोप और जापान की सरकारी ऋण प्रतिभूतियों में काफी निवेश कर रखा है।
दुनिया के विकसित देशों के समूह जी-7 में आर्थिक विकास की गाड़ी के पटरी से उतरने के साथ ही इन देशों में प्रधान ब्याज दरों में कमी आई है और इनके अगले कुछ वर्षों के दौरान कम ही बने रहने का अनुमान है।
इसका अर्थ है कि विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में किया गया निवेश अब कम प्रतिफल देगा और यदि डॉलर की कीमत में आगे गिरावट आती है तो सूद की तो बात ही छोड़िए, असल भी घट जाएगा।
ऐसे मुश्किल हालात में भारत के लिए अपने देश के भीतर निवेश करना भी आसान नहीं है। इस विषय पर इससे पहले की गई चर्चाओं से पता चलता है कि विदेशी मुद्रा भंडार के इस्तेमाल के लिए घरेलू परियोजनाओं की शुरूआत करना कितना मुश्किल है।
तुलनात्मक रूप से बेहतर विकास परिदृश्य के आधार पर भारत यह दावा कर सकता है कि विकसित देशों के निवेशक अपने देश में निवेश करने के बजाए जोखिम युक्त उच्च प्रतिफल की आशा से भारत में निवेश को तरजीह देंगे।
यदि यह दावा विश्वसनीय है तो भारत ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार को पश्चिम में क्यों निवेश कर रखा है? वजह सीधी सी है। भारत की पहली प्राथमिकता अपने विदेशी मुद्रा भंडार के मूलधन को सुरक्षित रखना है या अधिक से अधिक ब्याज हासिल करना।
यह सोच कर भी संतोष किया जा सकता है कि अगर मूलधन को सुरक्षित रखना है तो हमारे पास निवेश का और कोई वैकल्पिक जरिया नहीं है। कम से कम उस समय तक जबकि भारतीय मुद्रा पूर्ण परिवर्तनीय नहीं बन जाती है।
इस समय आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) अपने पोर्टफोलियो और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के महत्त्वपूर्ण हिस्से का निवेश ओईसीडी में ही करता है और ये देश केवल अधिक प्रतिफल हासिल करने के लिए थोड़ा सा निवेश भारत जैसे उभरते हुए बाजारों में करते हैं।
संभव है कि जब भारत विदेशी निवेशकों को न्योता देता है तो उसका तर्क यह रहता है कि यद्यपि निवेशक बाजार और मुद्रा जोखिमों में निवेश कर रहे हैं फिर भी यहां कोई महत्त्वपूर्ण ऋण जोखिम नहीं है।
ऋण विशाखन एक और कारक है जिसके जरिए इस विरोधाभास को समझा जा सकता है कि आखिर क्यों भारत एक तरफ तो अपने विदेशी मुद्रा भंडार का निवेश विदेशों में करता है ।
जबकि दूसरी ओर विदेशी स्रोतों से अपने यहां निवेश करने के लिए कहता है। यह तर्क भी दिया जा सकता है कि भारत अपने विदेशी मुद्रा भंडार का विदेश में निवेश कर जोखिम को कम कर रहा है।
इस तरह के तर्कों की बुनियाद तलाशने के बजाए असल मुद्दा यह है कि भारत की विदेशी मुद्रा देनदारियों की तुलना में विदेशी मुद्रा भंडार का आदर्श या आवश्यक स्तर क्या होना चाहिए और देश के विदेशी मुद्रा भंडार का किस तरह सबसे बेहतर इस्तेमाल किया जाए।
अब यह साफ हो चुका है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान डॉलर के मुकाबले रुपये को मजबूत होने की खुली छूट देने के बजाए बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडार जमा करने की भारत की नीति सही थी।
वर्ष 2007-08 में रुपये की तेजी पर उस समय अंकुश लगाया गया था जब वह 40 रुपये प्रति डॉलर के स्तर तक जा पहुंचा था। आज अहम सवाल यह है कि क्या रिजर्व बैंक को अब भी डॉलर की आवक को नियंत्रित करना चाहिए और रुपये को 45 रुपये प्रति डॉलर के स्तर से ऊपर चढ़ने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
यह बात उन लोगों को भी स्पष्ट होनी चाहिए जो बाजार स्थिरीकरण बॉन्ड की कीमत को लेकर चिंतित रहते हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत करने की रणनीति सही थी। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 2 जनवरी, 2009 को 255.24 अरब डॉलर था।
विदेशी मुद्रा भंडार (विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियां और सोना) से मिलने वाला प्रतिफल वर्ष 2007-08 में 5.1 प्रतिशत और 2006-07 में 4.7 प्रतिशत था। भारत और चीन और चार अन्य विदेशी मुद्राओं में ब्याज की दर तालिका क्रमांक 1 में दी गई है (इसमें प्रवासी भारतीय जमा दरें शामिल हैं)।
अमेरिकी डॉलर की प्रधान ब्याज दर सभी परिपक्वताओं के लिए कम है और तीन महीने परिपक्वता वाले ट्रेजरी बिल के लिए यह लगभग शून्य है।
यह भी अनुमान है कि वित्त वर्ष 2008-09 और 2009-10 में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर मिलने वाला प्रतिफल भी पिछले दो वर्षों की तुलना में कम ही रहेगा।
जैसा की तालिका एक में देखा जा सकता है कि विदेशी मुद्रा भंडार पर मिलने वाले प्रतिफल के मुकाबले भारत सरकार की प्रवासी भारतीय उधारी दर के अधिक बने रहने का अनुमान है। हालांकि अब एक अतिरिक्त जोखिम हमारे सामने आ खड़ा हुआ है।
आने वाले वर्षों के दरमियान डॉलर की कीमत में गिरावट की आशंका बन रही है। ऐसा होने का अर्थ है कि मूलधन घटने लगेगा। भारत के बाह्य ऋण के मुद्रा प्रबंधन के लिए इसके कई निहितार्थ हैं।
अब सवाल है कि भारत के विदेशी मुद्रा भंडार और उसकी विदेशी मुद्रा देनदारियां के बीच तालमेल कैसे बने। सितंबर 2008 के अंत तक एक साल या उससे कम परिपक्वता वाली भारत की कुल विदेशी मुद्रा देनदारियां करीब 91.4 अरब डॉलर थीं।
इस दौरान भारत का कुल विदेशी मुद्रा ऋण 222.6 अरब डॉलर था। तालिका क्रमांक दो में परिपक्वता के आधार पर भारत की देनदारियों का ब्योरा दिया गया है। करीब 79 प्रतिशत प्रवासी भारतीय जमाएं एक साल के भीतर परिपक्व होने वाली हैं।
विदेशों में मौजूदा आर्थिक हालात में हो सकता है कि कुछ एनआरआई जमाएं दोबारा जमा नहीं की जाएं। हालांकि अमेरिकी डॉलर एफसीएनआर(बी) जमा दरें 1.5 प्रतिशत से लेकर 2 प्रतिशत के बीच हैं जो प्रधान डॉलर ब्याज दरों के मुकाबले अधिक है।
इसलिए हो सकता है कि एनआरआई जमाएं खत्म न हों। हालांकि यह सवाल अभी भी बना हुआ है कि भारतीय बैंक एनआरआई जमाओं के लिए विदेशी मुद्रा में प्रतिफल अदायगी की गारंटी कैसे देंगे। भारतीय बैंकों द्वारा की जा रही इस तरह की जमा दरों के साथ बाजार, मुद्रा और ऋण जोखिम जुड़े हुए हैं।
पूरी बातचीत को समेटते हुए कहा जा सकता है कि प्रस्तावित सार्वजनिक ऋण कार्यालय (पीडीओ) को जल्द से जल्द पूरी तरह से चालू करना चाहिए और पीडीओ बाह्य ऋण के प्रबंधन के लिए पूरी तरह से जवाबदेह हो।
इसके अलावा पीडीओ को भारतीय रिजर्व बैंक के साथ मिलकर काम करना चाहिए। रिजर्व बैंक भारतीय मुद्रा भंडार के प्रबंधन के लिए जवाबदेह है। दीर्घावधि में भारत व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर अपने विदेशी मुद्रा भंडार के लिए निवेश के वैकल्पिक जरिए तलाश सकता है।
(लेखक बेल्जियम, लक्जमबर्ग और यूरोपीय संघ में भारत के राजदूत हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं)