महाराष्ट्र के घटनाक्रम के राजनीतिक नतीजों के बारे में कोई संदेह नहीं है: उद्धव ठाकरे की विदाई होनी लगभग तय है और नेतृत्व में बदलाव के हालात बन रहे हैं। यह भी संभव है कि पुरानी सरकार के कुछ चेहरे नयी सरकार में भी नजर आएं।
बहरहाल अभी भी कानूनी रूप से नतीजे सामने आना शेष हैं। एकनाथ शिंदे और उनके समर्थक विधायक सरकार कैसे बनाएंगे? क्या सदन में साधारण ढंग से बहुमत साबित करके ऐसा करेंगे? या फिर यह प्रक्रिया थोड़ी जटिल होगी?
चाहे जो भी कदम उठाया जाए लेकिन दो व्यक्ति महाराष्ट्र के नये मुख्यमंत्री के नाम के निर्धारण में अहम भूमिका निभाएंगे। एक है विधानसभा के कार्यवाहक अध्यक्ष नरहरि जिरवाल, जो कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के हैं और इसलिए वह उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास आघाडी (एमवीए) सरकार के साथ होंगे। दूसरे व्यक्ति हैं राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी जो इस बात की पूरी कोशिश करेंगे कि मामला उनके पास आए। बीएस कोश्यारी सितंबर 2019 में राजभवन आने के बाद से ही कभी केवल एक निष्क्रिय पर्यवेक्षक की भूमिका में नहीं रहे। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उनको उत्तराखंड की राजनीति से बाहर कर दिया जाएगा लेकिन उनकी आयु 75 वर्ष हो चुकी थी। भाजपा आलाकमान के लिए उन्हें राज्य की राजनीति से बाहर करने के लिए इतना काफी था। वह वैसे भी राज्य की राजनीति में काफी उथलपुथल मचा चुके थे।
कोश्यारी आरएसएस के प्रचारक थे और कुमाऊं में छात्र नेता के रूप में निर्वाचित होने के बाद से ही वह राजनीति में सक्रिय रहे हैं। सन 1975 के आपातकाल के दौरान उन्हें उनकी विरोधी गतिविधियों के कारण जेल भी जाना पड़ा था। वह सन 1977 में अल्मोड़ा और फतेहगढ़ की जेलों से छूटे लेकिन उन्हें राजनीति में पहला औपचारिक मौका सन 1997 में मिला जब वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य बने। सन 2000 में उत्तराखंड के निर्माण के बाद उन्हें लगा कि नये बने प्रदेश पर उनका भी दावा है लेकिन उन्हें और उनके अनुयायियों को झटका देते हुए नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री बना दिया गया। स्वामी हरियाणा में पैदा हुए थे लेकिन वह उत्तरांचली होने का दावा करते थे क्योंकि वह उत्तराखंड में पले-बढ़े थे। जल्दी ही ‘बाहरी’ व्यक्ति के खिलाफ प्रचार आरंभ हो गया और हालांकि कोश्यारी ने स्वामी के मंत्रिमंडल में ऊर्जा, सिंचाई और कानून मंत्री का पद स्वीकार कर लिया था लेकिन उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ आरंभ में शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार किया। वह सरकार में शामिल थे लेकिन स्वामी को बाहर करने का उनका अभियान चलता रहा। एक वर्ष बाद ही भाजपा नेतृत्व को स्वामी की जगह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा।
लेकिन कई कारणों से यह कदम भाजपा के हित में साबित नहीं हुआ। एक वर्ष बाद ही पार्टी राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में हार गई। जबकि पहला चुनाव होने के नाते भाजपा के पास पूरा मौका था कि वह प्रशासन पर अपनी छाप छोड़ पाती। कोश्यारी नेता प्रतिपक्ष बने और उन्हें प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष भी बनाया गया। 2007 में जब चुनाव करीब आए तो भाजपा ने चुनाव में जीत दर्ज की लेकिन कोश्यारी की जगह भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके बाद खंडूड़ी को हटाने का अभियान शुरू कर दिया गया।
अब तक भाजपा नेतृत्व भी आजिज आ चुका था और कोश्यारी से कहा गया कि वह अपनी विधानसभा सीट से इस्तीफा देकर राज्य सभा जाएं। इससे एक और संकट उत्पन्न हो गया क्योंकि राज्य में भाजपा को बहुत मामूली बहुमत हासिल था। लेकिन अंतिम निर्णय राजनाथ सिंह का था और उन्हें यह बात याद थी कि कोश्यारी 2002 में पार्टी को जीत नहीं दिला सके थे।
संसद आने के बाद भी कोश्यारी ने उत्तराखंड की राजनीति में अपनी रुचि कभी नहीं छिपाई। खंडूड़ी को एक दिन भी चैन से बिताने का मौका नहीं मिला। 2009 के चुनाव में जब भाजपा पांचों लोकसभा सीटों पर कांग्रेस से चुनाव हार गई तो खंडूड़ी ने इस्तीफा दे दिया और कोश्यारी के अनुचर निशंक प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। लेकिन एक अनुयायी को हमेशा अनुचर मानना भूल होती है। आखिरकार खंडूड़ी और कोश्यारी ने हाथ मिलाया और निशंक को हटाने के प्रयास शुरू किए। 2012 के विधानसभा चुनाव के कुछ माह पहले खंडूड़ी दोबारा मुख्यमंत्री बने जबकि कोश्यारी दिल्ली में बने रहे।
कोश्यारी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में नैनीताल सीट से जीत हासिल की। 2017 में जब राज्य में विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा को 70 सीटों में से 57 पर जीत मिली। एक बार फिर कोश्यारी को किनारे करके त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया। एक समय कोश्यारी के साथी रहे रावत को अमित शाह का वरदहस्त प्राप्त था। तब कोश्यारी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वह 2019 का आम चुनाव नहीं लड़ेंगे। पार्टी आलाकमान ने उन्हें महाराष्ट्र का राज्यपाल बनाकर संभावित खतरे को निपटा लिया।
महाराष्ट्र में कोश्यारी ने वही किया है जो करना उन्हें पसंद है। राजभवन ने अब तक उन 12 नामों को मंजूरी नहीं दी है जो राज्य कैबिनेट ने 2020 में विधान सभा के उच्च सदन के लिए राज्यपाल कोटे के तहत भेजे थे। उच्च सदन में नौ रिक्तियों के लिए राज्यपाल को चुनाव कराने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हस्तक्षेप करना पड़ा। मुख्यमंत्री के विधानसभा का सदस्य बनने के लिए ये चुनाव आवश्यक थे। उसके बिना उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ता। ऐसे में हमें यह देखना होगा कि क्या राजभवन शिवसेना-भाजपा गठजोड़ के साथ उससे ज्यादा नरमी बरतेगा जितनी वह एमवीए के साथ बरत रहा था। यह बहस भुला दी जाएगी कि किसने कब क्या कहा। लेकिन राजभवन के कदम इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो जाएंगे।
