राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने गत सप्ताह अपने आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) की वार्षिक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट जुलाई 2019 से जून 2020 की अवधि की है। इस अवधि में वर्ष 2020 की दूसरी तिमाही भी शामिल है जब भारतीय अर्थव्यवस्था कोविड-19 महामारी के प्रसार से निपटने के लिए लगाए गए कड़े लॉकडाउन से जूझ रही थी। इसके बावजूद महामारी और लॉकडाउन ने व्यापक भारतीय श्रम शक्ति पर जो असर डाला वह प्रथम दृष्टया पीएलएफएस में परिलक्षित नहीं होता। व्यापक तौर पर यही रिपोर्टिंग की गई कि 2019-20 में पीएलएफएस ने बेरोजगारी में बढ़ोतरी के बजाय इसमें कमी दर्ज की। बेरोजगारी 2018-19 के 5.8 फीसदी से घटकर 2019-20 में 4.8 फीसदी रह गई। दोनों वर्ष के आंकड़े जुलाई से जून तक के हैं। ध्यान देने वाली बात है कि देश के अधिकांश हिस्सों में जैसे हालात हैं, उनमें आमतौर पर बेरोजगारी की दर हमेशा मायने नहीं रखती। आय के कम स्तर पर बेरोजगारी विलासिता है। जो लोग अपने अस्तित्व के लिए दैनिक वेतन पर निर्भर करते हैं वे ज्यादा समय बिना काम किए नहीं बिता सकते। इसके बावजूद बेरोजगारी के आंकड़ों पर करीबी नजर डालना जरूरी है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पीएलएफएस अर्थव्यवस्था की तस्वीर में अपनी उपयोगिता रखता है। ज्यादा करीबी नजर डाली जाए तो पीएलएफएस के आंकड़ों से एक रुझान उभरता है। मसलन सर्वेक्षण रोजगार और बेरोजगारी के दो अलग-अलग अनुमान पेश करता है। एक तो कर्मियों की उपयोगिता अथवा बीते वर्ष में उनकी काम तलाशने की क्षमता पर आधारित है तो दूसरा उनके मौजूदा साप्ताहिक दर्जे पर आधारित है यानी जिस सप्ताह उनसे प्रश्न किया गया उससे ठीक पहले वाले सप्ताह में उन्हें पर्याप्त रोजगार उपलब्ध था अथवा नहीं। सामान्य स्थिति में बेरोजगारी में कमी आई जबकि वर्तमान सप्ताह वाले आकलन में बेरोजगारी की दर 2017-18 और 2019-20 में 8.8 फीसदी के साथ अपेक्षाकृत ऊंचे स्तर पर बनी रही।
बुरे समय के कारण उपजे दबाव में किसी तरह आजीविका चला रही श्रम शक्ति का गणित भी काफी हद तक वैसा ही है जैसा कि आर्थिक सिद्धांत में अनुमान जताया गया। जैसा कि हमने ऊपर कहा भी अगर बेरोजगारी विलासिता है तो आंकड़ों में यह बात छिप जाएगी कि ऐसे लोग जो बिना काम के घर में नहीं रह सकते उन्होंने कम आकर्षक या कम वेतन भत्ते वाले कामों को भी अपना लिया होगा। पीएलएफएस में भी ऐसा होने के कुछ संकेत नजर आते हैं। उदाहरण के लिए ग्रामीण महिला कामगारों की बात करें तो घरेलू उद्यमों में सहायिका की श्रेणी में काम करने वालों की तादाद 2019-20 में 5 फीसदी से अधिक बढ़कर 42.3 फीसदी हो गई। पीएलएफएस के रोजाना की औसत आय के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते नजर आते हैं कि लॉकडाउन ने लोगों की आय में तेजी से कमी की है। खासतौर पर इसने अनियत मजदूरों के मेहनताने को काफी प्रभावित किया जबकि इससे पहल 2019-20 की तीन तिमाहियों में इसमें लगातार सुधार हुआ था। हालांकि अप्रैल-जून 2020 तिमाही में इसमें तेज गिरावट आई।
हालांकि नीतिगत दृष्टि से देखें तो बुनियादी समस्या यह है कि पीएलएफएस एक ओर जहां श्रम शक्ति की स्थितियों के बारे में मूल्यवान जानकारी मुहैया कराता है, वहीं वह ठोस नीतिगत बदलाव में बहुत मददगार नहीं दिखता। ऐसी कोई स्पष्ट वजह नहीं नजर आती है कि आखिर भारतीय सांख्यिकी प्रतिष्ठान ऐसे संकेतकों पर ध्यान क्यों नहीं केंद्रित कर सकता जो उपयोगी जानकारी मुहैया कराएं। उदाहरण के लिए औसत आय दर और उच्च तीव्रता वाले आंकड़े मुहैया कराएं जो नीति निर्माण में उपयोगी साबित हों। ऐसे आंकड़ों का अभाव गत वर्ष लॉकडाउन के दौरान महसूस किया गया। यदि ऐसे आंकड़े उपलब्ध होते तो इससे सरकार को कल्याण योजनाओं को प्रभावी और लक्षित तरीके से चलाने में मदद मिलती।
