कृषि मंत्रालय द्वारा जारी प्राथमिक अनुमानों को देखें तो देश में खरीफ सत्र में 15.05 करोड़ टन रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन हो सकता है। पिछला रिकॉर्ड गत वर्ष 14.95 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन का था। इससे मुद्रास्फीति, खासतौर पर खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद मिलनी चाहिए। लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी है। यदि अत्यधिक उत्पादन का सही ढंग से प्रबंधन न किया जाए तो इससे कृषि उपज की कीमत सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम हो सकती है। खास तौर पर ऐसे समय, जबकि बाजार में नई फसल आनी शुरू होती है। इससे किसानों के हितों को ही नुकसान पहुंचेगा जो पहले ही न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप से प्रभावी बनाने तथा प्रमुख तौर पर विवादास्पद कृषि कानूनों को समाप्त करने की मांग के साथ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इस समय भी खरीफ में उगाई जाने वाली 12 प्रमुख फसलों में से आठ की कीमत उनके तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम है। केवल चार उपज ऐसी हैं जो उत्पादकों को लाभकारी मूल्य दे रही हैं।
इनमें से पहली फसल कपास का कुल रकबा कम हुआ है क्योंकि मौसम अनुकूल नहीं है। अन्य फसलें हैं तुअर, मूंगफली तथा सोयाबीन। तुअर सबसे ज्यादा खाई जाने वाली दाल है जबकि शेष दो से तेल निकाला जाता है। बहरहाल, इन तिलहनी फसलों की कीमत में भी गिरावट आ सकती है क्योंकि सरकार ने घरेलू फसल कटाई के ऐन पहले पाम ऑयल पर आयात शुल्क कम किया है।
सरकार के समक्ष पहला काम तो यही है कि वह कम से कम प्रमुख फसलों को जरूरी मूल्य समर्थन प्रदान करे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो किसानों का संकट और गहरा होना तय है। उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे कुछ प्रमुख कृषि वाले राज्यों में अगले वर्ष के आरंभ में चुनाव होने हैं और उसके कुछ समय पश्चात अन्य राज्यों में भी विधानसभा चुनाव होंगे। ऐसे में केंद्र तथा राज्य सरकारों को ऐसा करने का अतिरिक्त दबाव झेलना होगा। परंतु खरीद आधारित मूल्य समर्थन इतनी अधिक फसलों के लिए व्यावहारिक नहीं रहता।
ऐसे में इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए अन्य तरीके तलाश करने होंगे। अधिशेष उत्पादन का निर्यात करना फिलहाल तो दूर की कौड़ी ही लगता है। खाद्यान्न समेत अधिकांश कृषि जिंसों की अंतरराष्ट्रीय कीमतें मजबूत बने रहने की संभावना हैं क्योंकि अमेरिका तथा ब्राजील समेत प्रमुख निर्यात देशों में खराब मौसम के चलते फसल को नुकसान पहुंचा है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के कृषि जिंस मूल्य सूचकांक में भी तेजी दिख रही है। भारत इस अवसर का लाभ अपने घरेलू बाजार और किसानों की आय बढ़ाने के लिए उठा सकता है।
बाजार समर्थन दिलाने के अन्य विकल्पों में स्थानीय खपत को बढ़ाना और प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा) को दोबारा खड़ा करना शामिल हैं। इस योजना को जोरशोर से शुरू करने के बाद भुला दिया गया था। इन दोनों उपायों को अपनाने के लिए अतिरिक्त व्यय करना होगा जिसका बोझ राजकोष पर पड़ेगा। पीएम-आशा, सरकारी एजेंसियों द्वारा तय मूल्य पर सीधे फसल खरीद के अलावा बाजार हस्तक्षेप के दो और तरीके पेश करती है। ये हैं भावांतर भुगतान व्यवस्था और निजी पक्ष द्वारा खरीद भंडारण करना जिसके लिए उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य का 15 फीसदी सेवा शुल्क के रूप में दिया जाएगा। जब तक सरकार ऐसे उपाय नहीं अपनाती या कुछ अन्य व्यावहारिक उपाय या कम से कम प्रमुख फसलों के लिए प्रभावी बाजार समर्थन तंत्र नहीं विकसित करती, तब तक क्रोधित किसानों को शांत करना या उनके विरोध प्रदर्शन को रोक पाना मुश्किल होगा।
