आज की तारीख में जब कोई शख्स अपने लिए एक वकील को चुनता है, तो उसकी सबसे बड़ी चिंता यही होती है कि वकील उसका पक्ष रखने के लिए अदालत में आएगा भी या नहीं।
हम यहां पुलिस के हाथों पिटाई के बाद होने वाली वकीलों की हड़ताल के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। और न ही यहां बात हो रही है कुछ खास सूबों के बार एसोसिएशनों की, जो अपने सदस्यों को कुछ खास विचारधारा वाले आतंकवादियों की वकालत करने से रोक देते हैं।
हकीकत यही है कि सामान्य वक्त में भी आप इस बात की गारंटी नहीं ले सकते कि आपका वकील अदालत में हाजिर होगा ही। एक कामयाब वकील अक्सर इतने सारे मामले ले लेता है, जितने वह संभाल भी नहीं सकता। इसलिए आपको कोर्ट के गलियारों में अक्सर कामयाब वकील एक अदालत से दूसरे में भागते मिलेंगे।
सुप्रीम कोर्ट में हफ्ते के जिन दिनों (सोमवार और शुक्रवार) नए मामलों की सुनवाई होती है, उस वक्त कॉर्पोरेट वकीलों और उनके मातहतों की भीड़ से जूझने में आपको खासी मेहनत करनी पड़ सकती है। कुछ वकील तो अक्सर उन मामलों से गायब हो जाते हैं, जहां उन्हें कम पैसे मिलते हैं।
हालांकि, कानूनन पेशगी नहीं मिलने के बावजूद भी वकीलों के लिए अपने मुव्वकिलों की वकालत करनी जरूरी है। बावजूद इसके ज्यादातर मामलों में पेशगी नहीं मिलने की वजह से वकील अदालत में हाजिर ही नहीं होते हैं।
अदालत से गायब रहने वाले वकीलों में एक नस्ल ऐसी भी है, जिन्हें किसी खास जज से खुन्नस होती है। इसी वजह से वे ऐसे मामलों की सुनवाई में भी नहीं आते, जिसमें वे खास जज होते हैं। ऐसे वकीलों की एक और नस्ल भी काफी दिलचस्प है। ये वकील अक्सर अपने मुवक्किल के हक में मिलने में अंतरिम आदेश के बाद अदालत से गायब हो जाते हैं।
जब एक वरिष्ठ वकील ने वकीलों के अदालत से गायब रहने के पीछे के कारणों के बारे में जानना चाहा, तो सुप्रीम कोर्ट का एक मामले में कहना था कि ‘हो सकता है, आपकी बात सच हो। लेकिन इसकी अनदेखी करने में ही हमारी भलाई है।’ अब ऐसे हालात में बेचारा मुवक्किल क्या करे? अभी पिछले ही महीने सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था कि ‘वकीलों के गायब रहने की सजा मुवक्किलों को नहीं उठानी चाहिए।’
इस मामले की शुरुआत कोई 30 साल पहले हुई थी और इसके अंजाम में एक ऐसा फैसला आया, जिसने वकीलों द्वारा बीच मंझधार में छोड़े गए लोगों के अधिकारों पर जोर दिया। यह मामला 1977 में चंडीगढ़ के बागवानी विभाग के खिलाफ रघुराज नाम के एक माली ने दायर किया था।
दरअसल, उसे विभाग ने बर्खास्त कर दिया था। जिस शिद्दत के साथ उसने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक लड़ने में अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी गुजार दी, उसका जोड़ आपको केवल उसके वकीलों की लापरवाही में मिल सकता है।
वे वकील, जो बार-बार उसकी वकालत करने के लिए अदालत में गैरहाजिर रहे। इस मामले में रघुराज का पक्ष लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा, ‘हम यह तो नहीं कह सकते कि वकीलों को किसी मामले में अदालत से गैर हाजिर रहने का कोई हक नहीं है। लेकिन यह उसका फर्ज है कि वह या तो सुनवाई के वक्त अदालत में हाजिर रहे या फिर कोई वैकल्पिक व्यवस्था करे।
वाजिब वजह के बगैर किसी वकील का गैरहाजिर रहना कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इस तरह से गैर हाजिर रहना, न केवल मुवक्किलों के साथ नाइंसाफी है। साथ ही, यह अदालत की भी तौहीन है। इसलिए इसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।’
अक्सर जब वकील हाजिर नहीं होते, कुछ हाईकोर्ट और निचली अदालतें सीधे-सीधे मामलों को रद्द कर देती हैं। इस आदत पर जोर नहीं देने की बात सुप्रीम कोर्ट ने 1981 में ही कही थी। मुल्क की सर्वोच्च अदालत ने रफीक बनाम मिंशीलाल मामले में कहा था कि, ‘अगर कोई शख्स अपने वकील की गलतियों, गैरमौजूदगी या उसकी भूलों की सजा भुगते, तो यह गलत होगा।’
इस मामले में अदालतों के रवैये को देखते हुए दीवानी प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) में संशोधन किया गया। संशोधन में यह बात अच्छी तरीके से साफ कर दी गई कि इन हालात में मामलों को सीधे-सीधे न नकार कर उन्हें भूल की वजह से नकारा जाए। इससे मुवक्किलों को कुछ हद तक राहत तो मिली है।
दरअसल, अगर किसी मामले को भूल की वजह से नकारा जाता है, तो उसे फिर से सुनर्वाई के लिए अदालत के सामने लाया जा सकता है। लेकिन अगर उन्हें सीधे-सीधे नकार दिया गया, तो वही अदालत उस मामले की फिर से नहीं सुनवाई कर सकती। लेकिन इसके बावजूद चंडीगढ़ के उस माली के मामले में वकीलों के गैरहाजिर रहने की वजह से अदालत ने सीधे-सीधे खारिज कर दिया था।इसलिए सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में स्पष्टीकरण की जरूरत लंबे वक्त से थी।
हालांकि, सीपीसी में फेरबदल और सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी वकीलों की गैरमौजूदगी की समस्या का मुकाबला नहीं कर सकते। काले कपड़े वाले इस बात को अच्छी तरीके से जानते हैं कि अदालत उनकी गैरमौजूदगी में भूल की वजह से मामले को रद्द करेंगे। इस वजह से उनके मौजूद नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
हो सकता है कि कोर्ट मामले से जुड़े वकीलों को डांटे-फटकारे। लेकिन चूंकि उसे मुवक्किल की बात सुनकर इंसाफ करना है, इसलिए वकीलों की सेहत पर इससे कोई असर नहीं पड़ने वाला। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? उन्हें बस अपने मुवक्किल को आने-जाने पर खर्च हुए पैसे का ही भुगतान करना पड़ेगा।
अदालत ने वकील से चंडीगढ़ के उस माली, रघुराज को पिछले 30 सालों में आने-जाने पर खर्च हुए 20 हजार रुपये का ही भुगतान करने का आदेश दिया। लेकिन इससे उस वकील पर कोई फर्क नहीं पड़ा। हालांकि, यहां बात पेशे से बेईमानी करने की है, लेकिन बार कॉउंसिल मुवक्किलों की दिक्कतों पर नजर भी डालना पसंद नहीं करते।
अभी पिछले हफ्ते ही दिल्ली की एक अदालत में एक वकील बीमारी को कारण बताकर गायब रहा, जबकि वह उसी दिन दूसरी अदालत में वह भला-चंगा केस लड़ रहा था। जब अदालत को यह बात पता चली तो उसे सजा देने का काम खुद अदालत ने किया। बात केवल इसी की नहीं है। बार कॉउंसिलों का हड़तालों और गंभीर मामलों पर भी ऐसा ही रवैया है।
शायद इसका जल्द हल तभी निकल सकता है, जब धोखा खाए मुवक्किल अपने वकीलों के खिलाफ उपभोक्ता फोरम में जाएंगे। हालांकि, इससे भी इंसाफ की उम्मीद कम ही है। दरअसल, किसी वकील के खिलाफ उपभोक्ता फोरम में मुकदमा लड़ने के लिए वकील मिलना भी काफी मुश्किल है।