पिछले हफ्ते जब सिंगापुर ने फ्लडलाइट के तले पहली बार फॉर्मूला वन रेस का आयोजन किया था, उसी हफ्ते भारतीय अखबारों ने गुड़गांव में सड़कों की बद से बदतर होती हालत के बारे में खबरें और तस्वीरें छपी थीं। राष्ट्रीय राजधानी के इस सैटेलाइट शहर को कभी भारत के सिंगापुर के तमगे से नवाजा गया था। आज इसे सुनकर कोई भी शख्स हंसे बिना नहीं रह सकता। गुड़गांव और सिंगापुर की सड़कों के बीच अंतर उस दूरी को भी दिखलाता है, जिसे हासिल करने के लिए भारत को भ्रष्टाचार के राक्षस को साधना पड़ेगा। साथ ही, यह मुल्क की उस राजनीतिक व्यवस्था के बारे में भी बताता है, जो आर्थिक सुधारों के फायदों के बारे में काफी कम जान पाई है।
वैसे, भारत की तुलना सिंगापुर के साथ करना गलत होगा क्योंकि सिंगापुर तो अपने मुल्क के एक जिले के बराबर है। इसलिए मैं उसकी तुलना केवल गुड़गांव के साथ करूंगी। गुड़गांव के प्रशासकों को शहर में जीवन स्तर और कारोबार करने के मौकों को बढ़ाने में कोई फायदा नजर नहीं आता है। वहीं, सिंगापुर की सरकार और आम लोग, दोनों जन सुविधाओं को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने के लिए दिन–रात काम में जुटे रहते हैं। वे इस तरह से सोचने के आदी हो चुके हैं क्योंकि वे ज्यादा से ज्यादा कारोबार के मौके मुहैया करवाने के फायदों का फल चख चुके हैं। गुड़गांव में आपको चमक–दमक से भरपूर कई खूबसूरत इमारतें और मॉल तो मिल जाएंगे। दूसरे देसी शहरों के मुकाबले यहां आपको प्रति वर्ग किलोमीटर में विदेशी कंपनियों के सबसे ज्यादा दफ्तर मिल जाएंगे, लेकिन इन्हें जोड़ने वाली सड़कों की हालत को देखकर गांवों की कच्ची पगडंडियों को भी शर्म आ जाए। बेंगलुरु और पुणे की तरह गुड़गांव भी आर्थिक उदारीकरण के फायदों को दिखलाता है। लेकिन यह भी बराबर का सच है कि इसके बुनियादी ढांचे की तुलना गृहयुद्ध से ध्वस्त हुए किसी अफ्रीकी शहर से आसानी से की जा सकती है। यह दिखलाता है कि इस तेजी से तरक्की कर रहे शहर के प्रशासक इसे एक आदर्श के रूप में स्थापित करने में कितने ज्यादा उत्साहित हैं।
अच्छी सड़कें किसी भी मुल्क की तरक्की की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। इस बात को अमेरिकी राष्ट्रपति डी. आइजनहॉवर 1950 के दशक में समझ गए थे, इसलिए तो उन्होंने अमेरिका में इंटर स्टेट हाईवे सिस्टम की शुरुआत की थी। चीन भी इस बात को बीस साल पहले ही समझ गया था। घटिया सड़कें हमेशा से ही सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार का खुला प्रतीक रही हैं। घटिया सड़कें तो पहली बारिश में ही बह जाती हैं। जिस घटिया तरीके से इन घटिया सड़कों की मरम्मत की जाती है, वह यह दिखलाता है कि कैसे पीडब्ल्यूडी और स्थानीय प्रशासन में कुछ लोग इतनी मोटी कमाई करते हैं। लेकिन इस बुरी हालत के बारे में कोई कदम नहीं उठाया जाना दिखलाता है कि इसमें लगे लोगों को किसी की शिकायत से कोई फर्क नहीं पड़ता। साथ ही, एक बड़ी वजह यह भी है कि रिश्वत की रकम से होने वाली कमाई आज भी विदेशी निवेश से कहीं ज्यादा है। एक लाइन में कहूं तो हिंदुस्तानी नेताओं की आर्थिक सुधारों में व्यक्तिगत रुचि कतई नहीं है।
इस बात को तो इस साल का ट्रांसपैरेंसी इंटरनैशनल का ग्लोबल करप्शन पर्सेप्शन इंडेक्स भी सच साबित करता है। एक ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया हमारी तरक्की की दास्तां सुना रही है, भारत ईमानदार देशों की सूची में नीचे गिरकर 85वें स्थान पर आ गया है। यह एशिया प्रशांत क्षेत्र में फिलीपीन्स के अलावा इकलौता ऐसा मुल्क है, जहां के लोगों को लगता है उनके मुल्क में भ्रष्टचार बढ़ा ही है। इस वक्त हमारे देश की सबसे दिक्कत आर्थिक सुधारों के साथ कदम–कदम मिलाकर चलने की है। यह दिक्कत किसी खास इलाके की नहीं, बल्कि पूरे मुल्क की हो चुकी है। हालांकि, आज सरकार अपना कारोबारी चोला तेजी से उतार रही है और अब विदेशी तथा देसी निवेशकों के लिए मंजूरी पाना काफी आसान हो चुका है। लेकिन फिर भी यह बदलाव आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया है। भारतीय सूबों को अब छोटी–मोटी घूसखोरी से मुक्ति पाने के लिए दूसरी पीढ़ी के सुधारों के साथ तेजी से आगे बढ़ाना होगा। इन छोटी–मोटी घूसखोरी की वजह से तो मुल्क में अपना कारोबार शुरू करना इस हद तक मुश्किल हो चुका है। हमें विश्व बैंक की किसी सूची की जरूरत नहीं है यह दिखाने के लिए कि अपने देश के इतने उद्योगपति अब कमाई और विस्तार के वास्ते क्यों बाहरी मुल्कों की शक्ल देख रहे हैं।
पिछले हफ्ते सिंगापुर की मरीना बे स्ट्रीट पर फॉर्मूला वन कारों का दौड़ना, हमारे मुल्क की फॉर्मूला वन कारों को हिंदुस्तान में दौड़ने के लिए राजी करने की आधे–अधूरे दिल से की गई कोशिश को दिखलाती है। सिंगापुर के पास वह काबिलयत है कि वह अपनी आम सड़कों पर भी फॉर्मूला वन कारों को दौड़ा सकती है। वह भी फ्लडलाइट के तले। लेकिन हमारे मुल्क की ज्यादातर जनता तो आज भी ठीकठाक सी और इक्का–दुक्का बत्तियों वाली सड़कों के लिए तरस रही है, जिस पर कम से कम आम कारें तो चल सकें। सिंगापुर के संस्थापक प्रधानमंत्री ली क्वान यू और उनके परिवार को संत की उपाधि तो कतई नहीं दी जा सकती है। लेकिन ली एक बात बड़ी अच्छी तरह से जानते थे कि भ्रष्टाचार से कभी भी किसी भी मुल्क के लोगों को फायदा पहुंचाकर नहीं जाता। यह काम केवल कारोबार कर सकता है। लेकिन दूसरी तरफ हैं भारत के राजनेता, जो आज भी इस बात को नहीं समझ पाए हैं। दिक्कत यह है कि सोच में यह बदलाव केवल तेज सुधारों के जरिये ही हो सकता है।