कई बार कानूनी मामलों में इतने दांव पेच और तकनीकी पहलू जुड़े होते हैं कि उनसे सहूलियत की जगह परेशानियां ही पैदा होती हैं। जब दो देशों की कंपनियों के बीच कोई करार किया जाता है तो नियम कानूनों की एक लंबी फेहरिस्त का पालन करना पड़ता है।
सैकड़ों पन्नों में इस बात का जिक्र किया गया होता है कि क्या सही है और क्या गलत। और कई बार ये इतने जटिल भी हो जाते हैं कि औपचारिकताएं पूरी प्रक्रिया को जटिल बना देती हैं।
यही वजह है कि उच्चतम न्यायालय ने ग्रेट ऑफशोर लिमिटेड बनाम ईरानियन ऑफशोर इंजीनियरिंग एंड कन्सट्रक्शन कंपनी के मामले में जो फैसला दिया उससे मसौदा तैयार करने वाले और कानूनी पेशेवरों को बड़ी हैरानी हुई होगी।
अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के बीच हुए इस विवाद पर अदालत ने टिप्पणी दी, ‘दोनों ही पक्ष यह चाहते हैं कि उन्हें जल्द से जल्द विवाद का कारगर, प्रभावी और सस्ता हल मिल जाए, पर ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक मुहर, सील और यहां तक कि हस्ताक्षर जैसी तकनीकी जटिलताओं को अलग नहीं किया जाता है।’
आज की तारीख में कारोबार जगत में दफ्तरों में दूरसंचार के आधुनिक उपकरणों जैसे फैक्स और कुछ अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का इस्तेमाल किया जाता है। इनसे देशों की दूरियां कम हो गई हैं।
न्यायाधीश अक्सर यह कहते हैं कि, ‘प्रक्रियाएं हमेशा इसलिए बनाई जाती हैं ताकि न्याय पाने में सहूलियत हो सके, न कि इसलिए कि न्याय इन्हीं के मकड़जालों में फंस कर रह जाए।’
इस मामले में तेल-गैस की खोज के लिए ओएनजीसी की परियोजना के लिए उपकरण पाने के वास्ते दो कंपनियों के बीच एक चार्टर पार्टी समझौता किया गया था।
हालांकि क्रियान्वयन के दौरान आगे चलकर दोनों पार्टियों में कुछ विवाद पैदा हो गया और तब ये दोनों पक्ष आपस में सूचनाएं बांटने के लिए मुख्य तौर पर फैक्स का ही इस्तेमाल करते थे।
आगे चलकर इन दोनों ही पार्टियों के बीच विवाद इस बात को लेकर और गहरा गया कि एक महत्त्वपूर्ण संदेश में न तो पार्टी की ओर से कोई हस्ताक्षर किए गए थे और न ही कोई सीलिंग थी।
इसे देखते हुए एक पक्ष ने सर्वोच्च नयायालय में अपील की और मामले को निपटाने के लिए एक मध्यस्थ की मांग की। एक फैक्स संदेश में कहा गया था कि आर्बिटरेशन ऐंड कंसीलिएशन ऐक्ट में निहित प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
यहां सवाल यह पैदा हुआ कि फैक्स संदेश को लेकर उठे विवाद के लिए क्या कोई मध्यस्थ की नियुक्ति की जानी चाहिए। अदालत ने इसे स्वीकृति देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश को मध्यस्थ नियुक्त कर दिया।
इस कानून की धारा 7 में कहा गया है कि किसी भी विवाद का हल लिखित में होना चाहिए। यह विवाद पत्रों, टेलीग्राम या दूरसंचार के किसी भी नए साधन से जुड़ा हो सकता है जो समझौते के लिए रिकॉर्ड के रूप में रखा जा सकता हो।
इस मामले में एक दलील यह रखी गई कि फैक्स समझौता कोई मूल प्रति नहीं है बल्कि उसकी कॉपी होती है और अगर उस पर कोई मुहर नहीं लगाई गई हो, साथ ही हर पन्ने पर हस्ताक्षर नहीं किए गए हों तो ऐसे में उस फैक्स संदेश में लिखित करार की वैधता नहीं झलकती है।
पर उच्चतम न्यायालय ने इन दलीलों को ठुकरा दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि विवाद के बाद कोई समझौता हुआ हो तो कोई जरूरी नहीं है कि वह मूल कॉपी हो और उसमें सभी पक्षों की मुहर लगी हो या फिर हर पन्ने पर हस्ताक्षर किए गए हों। अदालत ने कहा कि फैक्स दूरसंचार का एक मान्य साधन है।
फैसले में यह भी साफ किया गया कि कानून का उद्देश्य यह होता है कि, ‘विवाद के मामलों में अदालत की निगरानी की भूमिका को कम किया जा सके।’
ऐसे में अगर अदालत मुहर, सील और मूल प्रति होने जैसी कुछ और औपचारिकताओं को जोड़ता है तो इससे विवाद के निपटारे की प्रक्रिया कम होने के बजाय और लंबी ही होती जाएंगी।
औपचारिकताओं को जितना बढ़ाया जाएगा कारोबार का खर्च उतना ही अधिक होगा। अदालत ने कहा, ‘ऐसी औपचारिकताओं को पूरा करने में समय बर्बाद होता है।’ अदालत ने जोर देते हुए कहा, ‘चिंता की बात यह है कि औपचारिकताएं पक्षों के विवाद के निपटारे की चाहत पर पानी फेरती हैं।’
अदालत के अनुसार इस तरह का रवैया मध्यस्थता के मूल विचार के प्रतिकूल जान पड़ता है जबकि दुनिया भर में ट्रिब्यूनल ने पार्टियों की मध्यस्थता की चाहत को बरकरार रखने के लिए थोड़ी नरमी दिखाई है।
अगर कुछ तकनीकी औपचारिकताओं को जोड़ा जाता है तो यह विवाद के समाधान के लिए मध्यस्थता की इच्छा को प्रभावित करता है। इस सिद्धांत का संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय व्यापार कानून में उल्लेख है जिस पर भारतीय कानून आधारित है।
उसी हफ्ते एक दूसरे फैसले में कहा गया कि भले ही अंतरराष्ट्रीय करार करने वाले पक्षों में कितनी भी योग्यता क्यों न हो इस बात का फैसला अदालत को करना है कि किसी मामले के निपटारे के लिए मध्यस्थ की नियुक्ति जरूरी है या नहीं।
यह मामला इंडटेल टेक्कल सर्विसेज लिमिटेड बनाम डब्लू एस एटकिन्स रेल लिमिटेड का है जिसमें दोनों पक्षों में भारतीय रेलवे से संबंधित एक परियोजना को लेकर सहयोग समझौते पर विवाद खड़ा हो गया था।
इंगलैंड और वेल्स के कानूनों के अनुसार ही इस करार के नियमों को तैयार किया गया था। मामले में कहा गया कि विवाद को निपटारे के लिए, ‘अदालत के निर्णायकों के पास भेजा जाएगा।’
मसौदा तैयार करने वाले ने मध्यस्थ के स्थान पर ‘निर्णायक’ का इस्तेमाल किया था जिससे पक्षों की क्या इच्छा है, यह साफ नहीं हो पा रहा था।
सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में काफी सोच विचार करने के बाद फैसला दिया कि पार्टियों का निर्णायकों से मतलब मध्यस्थ ही था।
यह पहली दफा नहीं है जब मसौदा तैयार करने वाले से यह स्पष्ट करने में चूक हुई हो कि विवाद का निपटारा मध्यस्थ के जरिए किया जाएगा या नहीं।
हालांकि आमतौर पर बहस में उलझे रहने से इस समस्या की ओर ध्यान ही नहीं जा पाता और विवाद निपटारे का खर्च और अदालतों पर बोझ बढ़ता ही जाता है।
