बीसवीं शताब्दी की समस्याएं पीछे छूट जाएंगी… खाद्यान्न की आपूर्ति… उसकी मांग से ज्यादा होगी। भुखमरी गायब हो जाएगी।
दुनिया में सभी को भोजन, वस्त्र, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया होंगी।’ यह विश्व की वह तस्वीर है जो लेखक ने पहले अध्याय में पेश की है। पर जब आप किताब के 12 वें अध्याय में पहुंचेंगे तो खुद लेखक की ही जुबान में कुछ ऐसा सुनने को मिलेगा, ‘अगले 50 सालों में ही तेल की किल्लत से कृषि का वर्तमान अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
तब क्या होगा? कृषि का अस्तित्व समाप्त हो जाने से करोड़ों-अरबों लोग भूखों मरने के लिए विवश हो जाएंगे।’ दरअसल लेखक अमरदीप एस दहिया अपनी इस किताब में खुद ही बड़ी दुविधा में नजर आए हैं।
22 वीं शताब्दी में विश्व का नजारा क्या होगा, इस बारे में कई मौकों पर वह खुद ही भटकते नजर आए हैं। उनका संशय तो आमुख से ही नजर आ जाता है जब वह शुरुआत ही कुछ इस तरह से करते हैं कि पूर्वानुमान कोई आसान काम नहीं है और पूर्वानुमान पूरी तरह सच ही होगा अथवा परिस्थिति बदलने पर बदलेगा नहीं… ऐसा होते तो सचमुच नहीं देखा गया है।
वह खुद कहते हैं कि जब उन्होंने यह किताब लिखने की सोची तो वह असफलता की आशंका से घिरे हुए थे। लेखक ने 22 वीं शताब्दी के परिदृश्य को समझाने के लिए किताब को विभिन्न विषयों और मुद्दों के हिसाब से 31 खंडों में बांटा है।
हालांकि लेखक ने छोटे छोटे खंडों में बांटकर पाठक को किसी एक विषय पर ऊब होने की स्थिति से बचाने की कोशिश की है, पर वास्तव में लेखक से चूक यह हो गई है कि इन खंडों में कोई तारतम्यता ही नजर नहीं आती।
लेखक अपनी बात को पाठकों से मनवाने के लिए इतने आतुर नजर आते हैं कि कई बार खुद ही भविष्यवाणियों को लेकर सवाल पूछे हैं और खुद ही इसका जवाब देते हुए लिखा है- ‘सच मानिए!’, ‘सचमुच’ और ‘जी हां’ बिल्कुल ऐसा ही होगा।
लेखक कहते हैं कि 22 वीं शताब्दी में जनसंख्या कोई समस्या नहीं रह जाएगी क्योंकि जनसंख्या वृद्धि दर धीरे धीरे नियंत्रण में आने लगी है या यूं कहें कि लक्ष्य से भी कम ही रहेगी। वह कहते हैं कि औसत प्रत्याशित दर भी पहले से बेहतर हो जाएगी और दुनिया में बुजुर्गों की संख्या बढ़ने लगेगी।
साथ ही यह कि कम आयु वर्ग के लोगों की जनसंख्या बढ़ती जाएगी। जब जनसंख्या वृद्धि दर लक्ष्य से भी कम होगी और लोगों की औसत जिंदगी भी बढ़ेगी तो फिर पाठकों को इस बात को पचाने में थोड़ी परेशानी जरूर हो सकती है कि आखिर कम आयु वर्ग के लोगों की जनसंख्या कैसे बढ़ेगी।
लेखक ने इस किताब में जल युद्ध, तेलविहीन विश्व, अतिवादी आतंक, ग्रीन हाउस पर्यावरण जैसे कुछ ज्वलंत मुद्दों पर भी चर्चा की है जिसे इस युग के बहुत से पाठक पढ़ना चाहेंगे। पर फिर भी पूरी किताब में अधिकांश मौकों पर लेखक का लगाव सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र से ही दिखा है।
तकनीकों का जिक्र करते हुए वह इतना आगे निकल गए हैं कि लगता है कि वह 80-90 साल के बाद की दुनिया की तस्वीर नहीं बल्कि 200-300 साल आगे चले गए हैं। लेखक कई विषयों को लेकर बहुत आशावादी नजर आए हैं तो कुछ मुद्दों पर उन्होंने सारी आस ही छोड़ दी है।
भाषा के पलड़े पर तौलें तो इतना कह सकते हैं कि लेखक ने आम पाठकों को विचार परोसने की पूरी कोशिश की है क्योंकि उन्होंने इस बात का पूरा ख्याल रखा है कि भाषा बोझिल न लगे। पर शायद भाषा को आसान रखने भर से किसी पुस्तक को पठनीय नहीं बनाया जा सकता है।
लेखक कई मौकों पर यही कहते नजर आए हैं कि वे एक भविष्यवक्ता हैं और उन्हें यही चिंता सताती रही है कि उनके अनुमान कितने सही होंगे। शायद यही वजह है कि पुस्तक का अंत भी उन्होंने कुछ इस अंदाज में किया है, ‘पर्यावरण और जलवायु, स्वास्थ्य और बीमारियां… कार्य स्थल और कार्य नीति की चर्चा न करें। इनकी चिंता पहले भी की जा चुकी है। भविष्यवक्ता के बारे में ज्यादा सोचें और ध्यान दें कि वे क्या कह रहे हैं!’
बाईसवीं सदी एक झलक
लेखक: अमरदीप एस. दहिया
प्रकाशक: कोणार्क पब्लिशर्स
पृष्ठ: 213
मूल्य: 400 रुपये