हम अपने नेटवर्क को 4जी, 5जी या 6जी कहकर पुकारें, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। असली बात है उपयोगकर्ताओं को सेवा की आपूर्ति। एक बार संचार सुविधा होने के बाद किसी नेटवर्क की क्षमता जांचने के लिए उसकी गति, क्षमता और प्रतिक्रिया में होने वाली देरी जैसी बातों पर ध्यान दिया जाता है। यदि सरकार निष्पक्ष आकलन करे और व्यवस्थित हकीकत के करीब तथा चरणबद्ध नियोजन तथा क्रियान्वयन करे तो सुधार भी संभव है। इसकी शुरुआत हमारे नेटवर्क तथा सेवा आपूर्ति की शेष विश्व के साथ तुलना करके वास्तविक आकलन करने के साथ की जा सकती है। अगला कदम है नीतियां और नियमन बनाना ताकि उपलब्ध संसाधनों का सेवा आपूर्ति के लिए बेहतर इस्तेमाल किया जा सके।
दूरसंचार का एक पहलू जो उपयोगकर्ताओं के लिए स्वाभाविक नहीं है वह है परतदार तकनीकों की हकीकत जो उन्नत माहौल में भी मौजूद है। उदाहरण के लिए नॉर्वे जैसे बेहतरीन मोबाइल सेवाओं वाले देश ने 4जी नेटवर्क में निरंतर निवेश के साथ 50 एमबीपीएस से अधिक की औसत गति हासिल की है। 4जी ने उल्लेेखनीय उभार हासिल किया और 5जी नेटवक्र्स के अतिरिक्त वह कोर नेटवर्क मुहैया कराती है। 4जी नेटवर्क में प्रतिक्रिया में होने वाली देरी दो डिजिट मिलिसेकंड है और 6 गीगाहट्र्ज से नीचे के बैंड में उसकी गति तुलनात्मक रूप से 5जी के समान है। उच्च तीव्रता वाली 5जी तकनीक 4जी प्लेटफॉर्म पर भी तेज पहुंच उपलब्ध कराती है।
हकीकत में हमें आगे बढऩे के लिए तकनीकी मिश्रण पर काम करना चाहिए क्योंकि 4जी का विकास अगले एक दशक में भी जारी रहेगा। बहरहाल हमें ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो अच्छी गुणवत्ता वाला 4जी कवरेज सुनिश्चित करें। कम किफायती स्पेक्ट्रम इस्तेमाल के कारण 3जी को चलन से बाहर किया जा रहा है, ऐसे में 4जी या उससे आगे की तकनीक में पूरी तरह स्थानांतरित होने में वर्षों का समय लगेगा। उदाहरण के लिए यूरोप में चुनिंदा ऐप्लिकेशन के लिए 2जी तकनीक भी 2025 तक जारी रहेगी। वे कौन सी नीतियां हैं जो हमें बेहतर सेवाएं दिला सकती हैं? इसके लिए फरवरी में पेश संसदीय समिति की रिपोर्ट से शुरुआत करना बेहतर होगा जिसका शीर्षक था, ‘5जी के लिए भारत की तैयारी।’ उसका प्रमुख निष्कर्ष यह है कि जहां 59 देशों ने 5जी तकनीक लागू की है लेकिन सीमित पैमाने पर, भारत ने अब तक ऐसा नहीं किया है। गत जनवरी तक 5जी का कोई परीक्षण नहीं किया गया था, न ही कोई खास तैयारी थी।
जिन चुनौतियों को रेखांकित किया गया है वे इस प्रकार हैं: अपर्याप्त स्पेक्ट्रम यानी हर सेवा प्रदाता को केवल 50 मेगाहट्र्ज जो कि वैश्विक औसत का आधा है। 4 जी के लिए प्रति सेवा प्रदाता औसत स्पेक्ट्रम और कम है यानी वैश्विक औसत का एक तिहाई, स्पेक्ट्रम की बहुत अधिक कीमत, 5जी उपयोग के मामलों में अपर्याप्त विकास, फाइबर नेटवर्क की कम उपलब्धता और एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की क्षमता मेंं कमी।
रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया कि फाइबर नेटवर्क का विकास करने के लिए भारी भरकम निवेश किया जाए और फिर निवेश तथा स्थानीय विनिर्माण जैसे पहलुओं में निवेश किया जाए।
फाइबर सबसे बेहतर संचार उपलब्ध कराते हैं। यह बहुत वांछित है लेकिन बहुत महंगा भी। टावरों तक फाइबर कनेक्शन को केवल तभी उचित ठहराया जाता है जब वे वित्तीय रूप से व्यवहार्य हों। दूसरा, 4जी, 5जी और 6जी के लिए बेतार तथा फाइबर लिंक की आवश्यकता होती है ताकि उपभोक्ताओं को नेटवर्क तथा वाई-फाई संपर्क मिल सके। सवाल यह है कि क्या वैकल्पिक तरीके अपनाने के बजाय पूरे या महत्त्वपूर्ण हिस्से में फाइबर संचार देने की बात हकीकत के करीब है?
दिलचस्प बात यह है कि जीएसएम एसोसिएशन ने फरवरी 2021 में इस विषय पर दो रिपोर्ट प्रकाशित कीं। पहली रिपोर्ट 40 देशों में बैकहॉल (किसी वस्तु को आपूर्ति मार्ग पर एक स्थान से उठाना और दूसरी जगह पहुंचाना) की स्थिति पर आधारित थी जिसका शीर्षक था ‘वायरलेस बैकहॉल इवॉल्युशन: डिलिवरिंग द नेक्स्ट जनरेशन कनेक्टिविटी।’ दूसरी रिपोर्ट स्पेक्ट्रम की आवश्यकता पर आधारित थी जिसका शीर्षक था, ‘स्पेक्ट्रम फॉर: वायरलेस बैकहॉल: जीएसएमए पब्लिक पॉलिसी पोजीशन।’
पहली रिपोर्ट बताती है कि 5जी के बढ़ते टै्रफिक और नेटवर्क क्षमताओं के लिए भारी भरकम बैकहाल क्षमता की आवश्यकता होगी। एक अनुमान के मुताबिक 2021 से 2027 के बीच वैश्विक बैकहॉल लिंक्स में वायरलेस लिंक्स की हिस्सेदारी 65 फीसदी होगी। अनुमान है कि इस अवधि में ई-बैंड यानी 70-80 गीगाहट्र्ज का वायरलेस बैकहॉल में दबदबा रहेगा। कई देश वी बैंड (60 गीगाहट्र्ज) का भी इस्तेमाल कर रहे हैं जिसे वाई-फाई के इस्तेमाल के लिए लाइसेंस रहित कर दिया गया है। जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश जहां फाइबर अधिक है वहां भी ई और वी बैंड का इस्तेमाल बैकहॉल के लिए हो रहा है। क्या हमें ऐसा नहीं करना चाहिए?
भारत में अनेक शहरी और ग्रामीण इलाके ऐसे हैं जहां कई वजहों से फाइबर का इस्तेमाल व्यवहार्य नहीं है। वहां वायरलेस बैकहॉल मददगार हो सकता है। इस बीच वायरलेस वी और ई बैंड अब एक किमी से लेकर 3-4 किमी या उससे अधिक दूरी के लिए उचित विकल्प हैं।
सक्रिय नेटवर्क साझेदारी
दुनिया भर के नियामक इस बात पर विचार कर रहे हैं कि व्यापक कवरेज के लिए सक्रिय नेटवर्क साझेदारी का लाभ कैसे लिया जाए। ऐसा करके कवरेज तो बढ़ेगी ही साथ ही लागत में कमी आएगी। मैकिंजी की 2018 में आई रिपोर्ट के अनुसार नेटवर्क साझेदारी मोबाइल सेवाप्रदाताओं के लिए मानक मॉडल बन चुकी है। इससे कुल स्वामित्व लागत में करीब 30 फीसदी की कमी आई है। साथ ही गुणवत्ता भी सुधरी है।
ऐसे में जरूरत इस बात की है कि नीतियों का निर्माण तथा कानून तथा अन्य नियमन का निर्माण स्पेक्ट्रम तथा नेटवर्क साझेदारी के साथ किया जाए। उचित राजस्व साझेदारी के लिए भुगतान किया जाए तथा मुनाफे की सीमा तय हो। इसके अतिरिक्त राजस्व अथवा मुनाफे को इधर-उधर करने वालों पर जुर्माना लगाने की व्यवस्था हो।