आम लोगों की बचत पर सरकार का नियंत्रण कम करने की आवश्यकता है ताकि मांग तथा निजी ऋण को बढ़ावा दिया जा सके। इस विषय में जानकारी दे रहे हैं नितिन देसाई
केंद्रीय वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में सात ऐसे कार्य क्षेत्रों की ओर इशारा किया जिनके तहत करीब 100 नई पुरानी परियोजनाएं आती हैं। इनमें से ज्यादातर परियोजनाएं अन्य मंत्रालयों के दायरे और निगरानी वाली हैं। परंतु इस दौरान ऐसी किसी रणनीति का जिक्र नहीं किया गया जो अर्थव्यवस्था के माध्यम से इन्हें बढ़ावा दे सके।
कहने की जरूरत नहीं कि बजट भाषण में ऐसा किया जाना चाहिए था। वित्त मंत्रालय का मुख्य काम है सार्वजनिक वित्त का प्रबंधन करना और वित्तीय क्षेत्र के नियोजन और निगरानी के अपने काम को अंजाम देना। विकास नीति और सार्वजनिक व्यय को जरूरी प्राथमिकता संबंधी वक्तव्य वास्तव में अलग-अलग आने चाहिए थे। शायद इन्हें प्रधानमंत्री द्वारा विकास की स्थिति से संबंधित सालाना रिपोर्ट में अलग से पेश करना चाहिए। खासकर इसलिए कि प्रधानमंत्री नीति आयोग के अध्यक्ष भी हैं।
बजट के रणनीतिक प्रभाव को विस्तार से बताया जाना चाहिए, खासतौर पर राजस्व प्रस्तावों में जो बजट भाषण के भाग 2 में शामिल होते हैं जबकि पहले भाग में शामिल व्यय संबंधी चर्चा में केवल उन रणनीतिक बदलावों को शामिल किया जाना चाहिए जिनका अपेक्षाकृत गहरा वृहद आर्थिक प्रभाव हो।
वर्ष 2023-24 के व्यय संबंधी बजट अनुमान दिखाते हैं कि 2022-23 के संशोधित अनुमान की तुलना में 3.16 लाख करोड़ रुपये का इजाफा है। ब्याज भुगतान में इजाफा तथा राज्यों को ऋण अनुदान में बढ़ोतरी व्यय में बढ़ोतरी के 76 फीसदी के लिए उत्तरदायी है। परंतु बजट कुछ अन्य क्षेत्रों में भी अहम बढ़ोतरी दर्शाता है। इसमें पूंजीगत आवंटन शामिल है।
कमी की बात करें तो सब्सिडी में भारी कमी आई और वह वित्त वर्ष 2023 के संशोधित अनुमान 5.6 लाख करोड़ रुपये से घटकर वित्त वर्ष 2024 में 4 लाख करोड़ रुपये रहने वाली है। ऐसा इसलिए हुआ कि खाद्य, उर्वरक और एलपीजी सब्सिडी में काफी कमी आई है। वहीं अनुसूचित जाति एवं जनजाति कल्याण, युवा कल्याण तथा जेंडर बजट में कुल मिलाकर 9.2 फीसदी का इजाफा किया गया है। हालांकि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए प्रावधान को 89,400 करोड़ रुपये से कम करके 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया।
व्यय के नजरिये से देखें तो आजादी की सौवीं वर्षगांठ के लिए जो सात लक्ष्य तय किए गए हैं उनमें बजट में सबसे अधिक जोर बुनियादी ढांचे और निवेश पर दिया गया है। वित्त वर्ष 2024 के बजट में पूंजीगत आवंटन में भारी इजाफे में यह नजर भी आता है।
बजट में 10 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत आवंटन दिखाया गया है। वास्तविक निवेश की बात करें तो पूंजीगत आवंटन हमेशा पूंजीगत व्यय के समान नहीं होता। अगर सरकारी उपक्रमों के इक्विटी योगदान और राज्यों को दिए जाने वाले ऋण तथा अनुदान को भुला दिया जाए तो बजट में किया गया पूंजीगत आवंटन दो लाख करोड़ रुपये तक कम हो जाएगा। बहरहाल अगर केंद्र के सरकारी उपक्रमों के पूंजीगत व्यय को शामिल कर दिया जाए तो कुल राशि 11.5 लाख करोड़ रुपये तक होगी। यह राशि 2023 के संशोधित बजट से करीब दो लाख करोड़ रुपये अधिक होगी यानी 20 फीसदी की वृद्धि जबकि बजट में 33 फीसदी वृद्धि दर्शाई गई है।
अधिकांश पूंजीगत आवंटन परिवहन अधोसंरचना में है। ऐसे में बजट में रेलवे के पूंजीगत आवंटन में 50 फीसदी इजाफे की बात कही गई है। बहरहाल, अगर हम बजट आवंटन और सार्वजनिक उपक्रमों से रेलवे विकास के लिए हासिल होने वाले बजट से इतर संसाधनों को मिला दें तो यह इजाफा 50 फीसदी नहीं केवल 6 फीसदी है क्योंकि 2024 में बजट से इतर संसाधनों का योगदान कम है। यह बात रेलवे बजट सूचना के वक्तव्य दो में स्पष्ट है। सड़क परिवहन पूंजी आवंटन में 24 फीसदी का इजाफा प्रभावित नहीं है क्योंकि इस क्षेत्र में बजट से इतर संसाधनों का योगदान काफी कम है।
सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा अधोसंरचना पर पूंजी आवंटन वृद्धि पर अल्पकालिक असर डालेगा हालांकि मांग में इजाफे का असर खासकर स्टील और सीमेंट जैसी चीजों की मांग में इजाफे तथा विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में इजाफे के रूप में नजर आएगा।
हमें तत्काल ऐसे उपायों की आवश्यकता है जो निजी क्षेत्र के निवेश में तत्काल इजाफा करें। विभिन्न कंपनियों, स्टार्टअप तथा सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों से ऐसा निवेश हासिल करने के लिए मांग में इजाफा करना होगा। बजट में इसके लिए बस आय कर रियायत तथा कुछ आयात शुल्क समायोजन के रूप में मामूली कदम उठाए गए हैं ताकि निर्यात को गति मिले। लेकिन हमें निजी निवेश के लिए संसाधनों की उपलब्धता पर सार्वजनिक व्यय के प्रभाव का भी आकलन करना होगा।
व्यवहार में देखें तो वेतन और पेंशन, सरकारी कर्ज के ब्याज भुगतान, प्रशासन, रक्षा तथा सुरक्षा आदि जैसी देनदारियों के लिए बहुत अधिक राजस्व संसाधनों की आवश्यकता है। उदारीकरण के बाद के प्रदर्शन पर नजर डालें तो 1992-93 से लेकर 2008-09 के बीच की अवधि में एक खास अंतर नजर आता है। यही वह अवधि थी जब निजी निवेश तेजी से बढ़ा और उसके बाद भी गतिशील बना रहा। पहली अवधि में केंद्र सरकार तथा राज्यों की शुद्ध बाजार उधारी तथा छोटी बचत के बकाये में विशुद्ध वृद्धि, परिवारों की विशुद्ध वित्तीय बचत का 48 फीसदी रहा। दूसरी हालिया अवधि में यह औसत बढ़कर 76 फीसदी हो गया। इसकी एक वजह निजी निवेश वृद्धि में धीमापन भी रहा। वित्त वर्ष 2024 में भी इस प्रतिशत के इसी अनुरूप बने रहने की आशा है। संभव है कि यह तात्कालिक समस्या न हो क्योंकि अनेक कंपनियों के पास पर्याप्त नकदी मौजूद है लेकिन मध्यम से लंबी अवधि में यह निजी निवेश बढ़ाने में समस्या बनेगी।
तथ्य तो यह है कि उदारीकरण के बाद विनिर्माण तथा अधोसंरचना में निजी निवेश बढ़ने के बावजूद केंद्र तथा राज्यों के बजट में शायद निजी क्षेत्र के लिए पर्याप्त फंड की गुंजाइश नहीं बनी। ऐसा इसलिए हुआ कि कर जीडीपी अनुपात में बहुत धीमी वृद्धि हुई और सार्वजनिक व्यय तथा जीडीपी का अनुपात बढ़ता रहा।
सन 1992-93 और 2019-20 के बीच वास्तविक जीडीपी पांच गुना बढ़ा। इसके बावजूद केंद्र और राज्यों के व्यय तथा केंद्र और राज्यों के के कर राजस्व के बीच 14 फीसदी का अंतर बना रहा। यानी निजी बचत को लेकर सरकार के मसौदे में उस समय से अब तक कोई बदलाव नहीं आया है जब गैर कृषि निवेश काफी हद तक सार्वजनिक क्षेत्र में था।
ज्यादा स्पष्ट कहा जाए तो सार्वजनिक क्षेत्र ने निजी क्षेत्र के निवेश के लिए जरूरी जिम्मेदारी त्याग दी लेकिन निजी बचत पर अपना दखल बरकरार रखा। इस वर्ष का बजट भी केंद्र और राज्यों की आम बचत में उल्लेखनीय कमी नहीं दिखाता। यह तथा निजी खपत के लिए ऋण बाजार का प्रोत्साहन राजकोषीय नीति का अहम बिंदु होना चाहिए।