अर्थव्यवस्था में काले धन के प्रवाह पर नजर रखना और इस पर अंकुश लगाने के लिए उपाय करना सरकार के लिए स्वाभाविक सी बात है। तुलनात्मक रूप से अधिक परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में सर्वाधिक उत्पादक कार्यों को कर दायरे में लाने का पूरा ध्यान रखा जाता है ताकि कर वंचना या कर भुगतान में आनाकानी की गुंजाइश नहीं रह जाए।
मगर यह पारदर्शी एवं प्रभावी तरीके से किया जाता है ताकि आम लोगों एवं करदाताओं को किसी तरह की असुविधा नहीं हो। वर्तमान भारतीय प्रशासन कई बार कह चुका है कि वह करदाताओं को परेशानी या अत्यधिक हस्तक्षेप से बचाना चाहता है। इस दिशा में सरकार ने मानव रहित कराधान (फेसलेस टैक्सेशन) सहित कई कदम भी उठाए हैं। मगर हाल में दो ऐसे अवसर आए हैं जिनसे पता चलता है कि सरकार कितनी जल्दी सुधार की दिशा से भटक जाती है।
हाल ही में 2,000 रुपये के नोट के संबंध में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की अधिसूचना ऐसा पहला उदाहरण है। आरबीआई ने पिछले सप्ताह कहा था कि 2,000 रुपये के नोट वापस लिए जाएंगे, यद्यपि इनकी वैधता बनी रहेगी।
हालांकि, इस नवीनतम कदम का 2016 में की गई नोटबंदी की घोषणा से कुछ लेना देना नहीं है मगर इससे उस समय मची अफरा-तफरी की यादें एक बार फिर ताजा हो गई हैं। जब से 2,000 रुपये के नोट वापस लिए जाने की घोषणा हुई है तब से कई लोग यह समझ नहीं पा रहे है कि उनके पास ऐसे जो भी नोट हैं उन्हें कैसे बदलेंगे।
ऐसी भी खबरें आ रही हैं दुकान एवं प्रतिष्ठान इन्हें लेने से मना कर रहे हैं। लोगों के मन से डर दूर करने के लिए आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास को पहल करनी पड़ी है।
केंद्रीय बैंक ने कहा है कि 2,000 रुपये जारी करने का उद्देश्य पूरा हो गया है और इसकी ‘समय सीमा’ भी समाप्त हो गई है मगर यह पहल किसी विशेष अधिसूचना या 30 सितंबर की ‘अंतिम तिथि’ के बगैर भी की जा सकती थी। लिहाजा, इस बात को लेकर शक बहुत कम रह गया है कि नकदी और उच्च मूल्य वाले नकदी लेनदेन को कम से कम करना इस पहल का एक मकसद था। लेकिन सरकार 2016 के समय की नोटबंदी की तरह आम भारतीयों पर होने वाले प्रभाव को ध्यान में रखने में विफल रही।
कुछ दिनों पहले सरकार ने उदार धन प्रेषण योजना (एलआरएस) में कुछ बदलाव किए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने 2,000 रुपये के नोट वापस लेने की तरह ही उसमें भी समझ-बूझ के साथ काम नहीं लिया है। एलआरएस के तहत भारतीय विदेश में निवेश या अन्य विशेष प्रयोजनों के लिए एक साल में अधिकतम 2,50,000 डॉलर तक भेज सकते हैं। अब सरकार ने ऐसे लेनदेन के लिए स्रोत पर काटे गए कर का स्तर बढ़ाने का निर्णय लिया है।
अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड से होने वाले लेनदेन पर भी यह नियम लागू होगा। सरकार के इस कदम का काफी विरोध हुआ जिसके बाद उसने अपना रुख नरम किया है। सरकार ने कहा है कि 7 लाख रुपये से कम भुगतान 20 प्रतिशत विदहोल्डिंग टैक्स के दायरे में नहीं आएगा।
यह अभी तय नहीं है कि यह सीमा कैसे लागू की जाएगी क्योंकि किसी व्यक्ति द्वारा वास्तविक समय में किए खर्च से संबंधित ब्योरा शायद ही उपलब्ध रहता है। यद्यपि ऐसे कर संबंधित व्यक्ति के साल के अंत में कर बिल में समायोजित किए जाएंगे मगर इससे कागजी माथापच्ची और अनुपालन बोझ काफी बढ़ जाएंगे।
कारोबारी व्यय से जुड़े पक्षों को स्रोत पर काटे गए कर के दायरे में लाने से भी अनावश्यक परेशानी होगी। खासकर, इससे मालिक या अपेक्षाकृत छोटे उद्यमों के कर्मचारियों के लिए झंझट बढ़ जाएगी।
स्पष्ट है कि सरकार के इस कदम का उद्देश्य बेहतर प्रणाली की स्थापना किए बिना ही कर संग्रह और निगरानी बढ़ाना है। अगर सरकार वास्तविक समय में लेनदेन का ब्योरा रखने के लिए ठोस प्रयास करेगी तो इससे कर वंचना और रकम की हेराफेरी रुक जाएगी। सरकार को बार-बार अपने कदमों पर सफाई देने की शर्मिंदगी से बचने के लिए नागरिकों पर उसके निर्णयों के होने वाले प्रभावों की विवेचना पहले ही कर लेनी चाहिए। एक उपयुक्त कर प्रशासन में करदाताओं की चिंताओं के प्रति अधिक गंभीरता एवं उनकी परेशानियों को समझना पड़ता है।