क्या पठान ने फिल्मों के विपणन की पूरी दलील को उलट कर रख दिया है? क्या इससे सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का उद्धार होगा?
गत 25 जनवरी को रिलीज हुई सिद्धार्थ आनंद (यशराज फिल्म्स) की फिल्म पठान की सफलता से ये दो प्रश्न उत्पन्न हुए हैं। शाहरुख खान अभिनीत यह फिल्म अब भारतीय सिनेमा की सबसे कामयाब फिल्मों में से एक बनने की ओर अग्रसर है।
फिल्म का वैश्विक कारोबार 1,000 करोड़ रुपये के करीब पहुंच रहा है। शाहरुख खान जो बीते चार सालों से बड़े परदे से गायब थे, उन्होंने जबरदस्त वापसी की है।
ये आंकड़े तब और अधिक चौंकाने वाले लगते हैं जब आपको पता चलता है कि यशराज की अन्य फिल्मों की तरह पठान को लेकर कोई धूमधड़ाके वाला प्रचार अभियान नहीं चलाया गया। 250 करोड़ रुपये बजट वाली यह फिल्म जिसमें शाहरुख खान, दीपिका पडुकोणे और जॉन अब्राहम जैसे सितारे थे उसे लेकर कोई शोरशराबा नहीं था। कुछ पोस्टर, प्रचार सामग्री, साउंड बाइट और ट्विटर पर 10-15 मिनट के आस्क एसआरके जैसे कार्यक्रम जरूर आयोजित किए गए। लेकिन बस इतना ही। मीडिया से कोई बातचीत नहीं, कलाकारों के साथ साक्षात्कार नहीं, प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं, पॉडकास्ट नहीं और कपिल शर्मा शो या अन्य टेलीविजन शो पर भी कोई प्रस्तुति नहीं दी गई। ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया कि एक बड़ी फिल्म रिलीज होने वाली है।
यहां शाहरुख खान के प्रशंसक काम आए। टाइम मैगजीन के मुताबिक उनकी तादाद 3.5 अरब के करीब है। बीड़, जलगांव, नाशिक से लेकर ऑस्ट्रिया, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया तक उनके फैन क्लब में धूम मच गई। उन्होंने ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक, जोश आदि के माध्यम से पूरी दुनिया को फिल्म के बारे में बताया। सोशल मीडिया ने उन्हें वह आवाज दी जो पहले कभी उनके पास नहीं थी। ज्यादातर लोगों ने वहां गानों, टीजर और ट्रेलर को लेकर चर्चा की। फिल्म के बारे में तमाम बारीकी से बात की गई। इन्हीं लोगों ने टिकट की बिक्री खुलते ही पूरे थिएटर बुक कर लिए और फिल्म सिनेमाघर में लगने के पहले ही दुनियाभर में 50 करोड़ रुपये के टिकट बिक चुके थे।
इस तरह भारतीय सिनेमा में बहुत समय के बाद ‘अग्रिम बुकिंग’ शब्द सुनने को मिला। उसके बाद लोगों ने ही एक दूसरे से फिल्म का जमकर प्रचार किया।
इस प्रकार के प्रशंसक और उनके जरिये होने वाला प्रचार तमिल और तेलुगू सिनेमा में आम हैं लेकिन हिंदी में ऐसा देखने को नहीं मिलता। इसे पठान की कामयाबी माना जा सकता है। खान एक बड़े वैश्विक सितारे हैं इसलिए संभव है यह सिलसिला बाकी फिल्मों में दोहराया न जा सके। लेकिन निश्चित तौर पर यह बड़ी फिल्मों की रिलीज में एक अहम भूमिका निभाएगा। स्टूडियो पहले ही पत्रकारों की तरह फैन क्लबों तक प्रचार सामग्री और प्रेस विज्ञप्ति पहुंचाना शुरू कर चुके हैं।
पठान की सफलता ने सिंगल स्क्रीन सिनेमा मालिकों को भी खुश किया है। खासकर हिंदी भाषी इलाकों में। कारोबारी रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में 25 स्क्रीन दोबारा खुली हैं। क्या इसकी और आरआरआर तथा पुष्पा जैसी फिल्मों की सफलता हिंदी क्षेत्र में सिंगल स्क्रीन में नई जान फूंकेगी?
एक दशक पहले देश में 10,000 स्क्रीन थीं जो अब करीब 8,700 रह गई हैं। इनमें से 3,500 मल्टीप्लेक्स स्क्रीन हैं और इनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही हैं।
उनके कारोबारी मॉडल एकदम अलग हैं। मल्टीप्लेक्स पोर्टफोलियो आधार पर काम करते हैं। वहां 4-6 स्क्रीन होती हैं जिनमें 100 से 400 के बीच सीट होती हैं और वहां कई शो चलते हैं। उनका समय, टिकट की कीमत और यहां तक कि खाने की चीजें भी फिल्म के मुताबिक तय होती हैं। इससे फिल्म या राजस्व के एक स्रोत पर निर्भर रहने का जोखिम कम हो जाता है। मल्टीप्लेक्स अक्सर राजस्व साझेदारी के आधार पर काम करते हैं।
दूसरी ओर सिंगल स्क्रीन को वितरक को न्यूनतम गारंटी देनी होती है। ऐसा इसलिए कि एक अनुमान के मुताबिक कुल 5,200 में से 2,500-3,000 सिंगल स्क्रीन अभी भी कंप्यूटर से जुड़ी नहीं हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल रहता है कि कितनी टिकट बिकीं और कितना पैसा एकत्रित हुआ। ऐसे में कारोबारी और स्टूडियो शुरुआत में न्यूनतम राजस्व चाहते हैं और बाद के लिए समझौते करते हैं। बीते कुछ वर्षों में शायद ही ऐसा देखने को मिला हो।
800-1,000 सीट वाले सिंगल स्क्रीन के संचालन की लागत को तब तक नहीं निकाला जा सकता है जब तक कि साल में कई अवसरों पर हॉल पूरी तरह भरा न रहे।
बीते तीन दशकों से यानी सैटेलाइट के आगमन और फिर वीडियो और डीवीडी के चलन के बाद हर सिनेमा घर के सामने ऐसी फिल्मों की चुनौती रही है जो दर्शकों को अपने घरों से निकलकर हॉल आने पर विवश कर सकें। वीडियो स्ट्रीमिंग अब ऑनलाइन हो चुकी है। इस समय सिनेमाघरों में अगर फिल्में भीड़ जुटा पा रही हैं तो वे हैं आरआरआर या पठान जैसी बड़ी और शानदार फिल्में।
यह बात तेलुगू या तमिल सिनेमा की तुलना में हिंदी फिल्मों के लिए अधिक सच है। तमिलनाडु में स्थानीय सरकार टिकट कीमतें तय करती है। इससे हुआ यह कि मल्टीप्लेक्स जिनकी औसत कीमत अक्सर अधिक होती है उनको बहुत अधिक पकड़ बनाने का अवसर नहीं मिला। दो तेलुगू भाषी राज्यों में बड़े निर्माताओं की सिंगल स्क्रीन पर पकड़ है और वे तय करते हैं कि फिल्म कब रिलीज होगी।
अंतिम सामान्य वर्ष यानी 2019 में फिल्म कारोबार से 19,100 करोड़ रुपये आये। इसमें 50 फीसदी हिस्सेदारी हिंदी की थी। ऐसे में हिंदी दर्शकों का वापस सिनेमाघर आना अच्छी खबर है। लेकिन साल में केवल चार बड़ी फिल्में होना पर्याप्त नहीं है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 17 सिंगल स्क्रीन थिएटर की चैन आशीर्वाद थिएटर्स के निदेशक अक्षय राठी कहते हैं कि दृश्यम जैसी मझोले बजट की हिट फिल्मों की जरूरत है ताकि बड़ी फिल्मों के आने-जाने के बीच थिएटर व्यस्त रह सके। कई सिंगल स्क्रीन मालिकों के लिए ज्यादा आकर्षक विकल्प यह रहा कि वे मौके की अपनी जमीन बेचकर पैसे को बैंक में जमा कर दें।
कारोबार अब सामान्य हो चला है। फिल्म दुनिया के लोग यह जुगत लगा रहे हैं कि महामारी के बाद की नई जनता को कैसे मनोरंजन दिया जाए। फिलहाल तो उम्मीद यही है कि इस क्षेत्र में पूरा सुधार आ जाएगा।