सर्वप्रथम मैं हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे का आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने यह बहस छेड़ी कि आखिर भारत को यूक्रेन युद्ध से क्या सबक लेना चाहिए। द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक आलेख में उन्होंने बहुत समझदारी से और जमीनी हकीकत को ध्यान में रखते हुए बातें कहीं।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने समूचे रणनीतिक समुदाय को बहस के लिए एक से अधिक मुद्दे दिए। उनका यह लेख आदर्श वैचारिक लेख है। खासतौर पर इसलिए कि यह लेख एक ऐसे व्यक्ति ने लिखा है जो न केवल अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ है बल्कि समकालीन समझ से लैस भी है। बतौर एक असैन्य व्यक्ति उनसे बहस करने का प्रयास तो मैं कर रहा हूं लेकिन यह भी सही है कि यह बहसपसंद व्यक्ति यानी कि मैं उम्र में उनसे कुछ वर्ष बड़ा भी हूं।
जनरल नरवणे ने अहम सबक गिनाए:
► ऐतिहासिक समय से ही युद्ध क्षेत्र अपना स्वरूप बदल रहे हैं। अगर पहले विश्वयुद्ध से शुरू करें तो टैंक का आविष्कार इसलिए किया गया था ताकि खंदकों के जरिये होने वाली लड़ाई का गतिरोध समाप्त किया जा सके। उसके पहले मशीन गन का आविष्कार किया गया था ताकि घुड़सवारों को रोका जा सके और सैनिकों को खंदक तक पहुंचाया जा सके।
► उसके बाद 20वीं सदी में टैंक और टैंक रोधी सिस्टम के बीच टक्कर देखने को मिली। यूक्रेन में हमने इसे एक अलग स्तर पर पहुंचते देखा।
► ड्रोन सबसे पहले सन 1990 के दशक के अंत में सामने आए और बहुत कम समय में सैन्य वैज्ञानिकों और उद्योग ने उन्हें युद्ध के मुताबिक ढाल लिया। यूक्रेन ने हमें यह भी बताया कि ये कितने घातक हो सकते हैं।
► अगर यूक्रेन युद्ध पर नजर डालें तो आधुनिक युद्ध में बड़े हथियारों, युद्धपोतों और लड़ाकू विमानों की भूमिका पर प्रश्नचिह्न है।
हम इन सभी के बारे में विस्तार से जांच परख कर सकते हैं, खासकर इसलिए भी कि जनरल नरवणे ने कहा है कि आमतौर पर तकनीकी बदलाव पहले आते हैं और सैन्य नेतृत्व बाद में उनका अनुसरण करता है। क्या हमेशा ऐसा ही हुआ है? उत्तर है नहीं। प्रथम विश्वयुद्ध का इतिहास ऐसी दर्दनाक कहानियों से भरा हुआ है जहां जनरल, खासकर ब्रिटिश जनरल अपनी घुड़सवार सेनाओं को मशीन गनों के सामने झोंक रहे थे। इसमें हताहत होने वाले जवानों में से ज्यादातर उपनिवेशों से और खासकर भारत से थे।
बदलाव को लेकर लापरवाह, दंभी और असंवेदनशील ब्रिटिश सैन्य नेतृत्व के कारण ऐसी तमाम चूक हुईं। इनका नतीजा 1853-56 के क्राइमियाई युद्ध से लेकर 1899-1902 के बोअर युद्ध तक में देखने को मिला। इन्हीं बातों ने नॉर्मन डिक्सन को ‘ऑन द साइकॉलजी ऑफ मिलिट्री इन्कम्पीटेंस’ लिखने को प्रेरित किया। चूंकि डिक्सन कुछ खुले दिलोदिमाग वाले ब्रिटिशों की बात कर रहे थे इसलिए उन पर देशद्रोह का आरोप नहीं लगा। अब उनकी किताब भारत समेत दुनिया भर की सैन्य अकादमियों में पढ़ाई जाती है। मैंने खुद देहरादून में एक सैन्य किताबों की दुकान से इसकी प्रतियां खरीदी थीं। मैंने कुछ प्रतियां अपने न्यूजरूम में आने वाले युवाओं के लिए सुरक्षित रखीं जो रक्षा क्षेत्र की रिपोर्टिंग करना चाहते हैं।
जाहिर है मैं उन्हें केवल यही किताब पढ़ने को नहीं देता हूं। यह तो केवल इसलिए ताकि वे दोनों पक्षों को समझ सकें। इसलिए कि एक ईमानदार बहस से ही महान देश और विजेता सेना तैयार होती है। इसका सार यह है कि सशस्त्र सेनाएं कई बार परंपरा में बंधी हो सकती हैं और इसलिए बदलाव को बहुत धीमे अपनाती हैं। इसी बात से समझा जा सकता है कि पुराने सोवियतयुगीन सैन्य सिद्धांत कैसे पुराने पड़ चुके हैं जिनके तहत बख्तरबंद वाहन और फौज यूरोप को रौंद देते थे। यह तब हुआ है जब टैंकों की कोई आपसी लड़ाई नहीं हुई। यूक्रेन ने छिपकर लड़ने में पूरी सावधानी बरती है। उन्होंने या तो ड्रोन और सैटेलाइट संचार का इस्तेमाल करके निशाने लगाए या फिर अमेरिकी-ब्रिटिश हथियारों से छापामार शैली में हमले किए। नॉर्मन डिक्सन की किताब के नये संस्करण में रूसी जनरलों की नाकामी या उनके आलस को भी शामिल किया जाना चाहिए। उन्हें एक वर्ष से भी अधिक पहले चेतावनी मिल गई थी जब अजरबैजान ने तुर्की के उन्हीं ड्रोनों का इस्तेमाल करके आर्मीनिया को हराया था और अपने सैनिकों को किसी खास क्षति के बिना उसकी सेनाओं, तोपों और रडार आदि को नष्ट कर दिया था। यह क्षेत्र रूस से दूर नहीं है। दोनों ही देश पूर्व सोवियत संघ के सदस्य थे, उनके पास वही उपकरण प्रशिक्षण और सैन्य सिद्धांत थे। इसके अलावा आर्मीनिया को रूसी संरक्षण भी हासिल था और है। अजरबैजान ने बदलाव को समझा और जमीन के बजाय ड्रोन की मदद से आसमान के रास्ते लड़ना चुना। रूसी सैन्य अधिकारियों के पास विचार के लिए एक वर्ष से अधिक वक्त था। क्या उन्होंने कुछ सीखा या बदलाव किया? उन्होंने वही किया जो रूसी जनरलों ने सौ वर्ष पहले किया था। सेनाएं बदलती हैं लेकिन इसमें काफी वक्त ले लेती हैं। अक्सर इस दौरान बहुत कुछ गंवा दिया जाता है। कुछ पुरानी पंक्तियां याद कीजिए: सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया…। रूसी सेना मुख्यालय के लिए इस समय यही गीत उपयुक्त है।
अब चौथे बिंदु की बात करें तो फॉकलैंड युद्ध में चार दशक पहले ही यह पता चल गया था कि बड़े युद्धपोत नई कम लागत की मिसाइलों के सामने जोखिम में हैं। तब से अब तक मिसाइलें और उपयोगी हुई हैं। काले सागर में रूस के प्रमुख पोत मॉस्कवा का डूबना यही बताता है।
अब रूसी सेना के सबसे संरक्षित हवाई ठिकाने सेवस्तोपोल में समुद्री ड्रोन हमला। ऐसे में पोत, पूंजीगत परिसंपत्तियां आदि बहुत जोखिम में रहेंगी और बोझ नहीं तो भी लागत की दृष्टि से भारी पड़ेंगी, बशर्ते कि आपके पास इनको मिसाइल से बचाने के लिए बड़ी जलीय या जमीनी संरचनाएं न हों। यही बात विमानों पर भी लागू होती है। यदि संदेह हो तो रूसियों से पूछा जा सकता है कि आखिर क्यों उनकी ताकतवर वायुसेना यूक्रेन के हवाई क्षेत्र में अब नहीं घुस रही? इसलिए कि उनकी इलेक्ट्रॉनिक रचना मिसाइलों से बचाव करने लायक नहीं है, न ही उनमें यह क्षमता है कि दूर से प्रहार किया जा सके। हवाई और समुद्री क्षेत्रों में भी सबक वही है जो जमीन के मामले में। रूसी सेना बदलाव को अपनाने में नाकाम रही। जनरल नरवणे ने मूल बात अपने निष्कर्ष में कही। उन्होंने कहा कि चाहे जिस रणनीति, सिद्धांत या हथियार प्रणाली का इस्तेमाल किया जाए लेकिन किसी भी जंग का अंतिम लक्ष्य जमीन पर कब्जा करना होता है। उन्होंने लिखा कि अगर युद्ध का लक्ष्य राजनीतिक है तो भी इसका अर्थ जमीन पर कब्जा करना ही है। अपनी बात को समझाने के लिए वह चीन का उदाहरण लेते हैं कि कैसे वह नैंसी पेलोसी को ताइवान जाने से नहीं रोक पाया। अगर वहां की जमीन पर चीन का नियंत्रण होता तो वह ऐसा कर पाता। हम यहां तीन बातें संक्षेप में रखने का साहस दिखा रहे हैं:
► अगर माओ और चीन की सेना के पास मजबूत नौसैनिक और हवाई क्षमता होती तो क्या च्यांग काई-शेक भाग पाते?
► जब तक चीन अमेरिका का प्रतिरोध करने लायक मजबूत नौसेना नहीं बनाता, ऐसी हवाई क्षमता नहीं विकसित करता कि वह ताइवान और उसके सहयोगियों का प्रतिकार कर सके तब तक वह ताइवान को जीत नहीं सकता।
► अंत में क्या च्यांग और कुओमिनथांग बिना अमेरिकी मदद के ताइवान जा सके? क्या पेलोसी बिना अमेरिका और सहयोगियों की मदद के वहां उतर पातीं? क्या चीन ऐसे विमान को गिराने का साहस करता जिसमें अमेरिका का तीसरा सबसे शक्तिशाली व्यक्ति सवार हो? उसे ऐसा करने से रोकने की वजह केवल सैन्य नहीं है।
हमारा मानना है कि आज की दुनिया में या चीनी क्रांति के दौर में भी देशों के बीच की राजनीति और गठबंधन सबसे अहम हैं और थे। सेना राजनीतिक इच्छाशक्ति को जाहिर करने का माध्यम है जो जरूरी नहीं कि हमेशा जमीन ही हो।
