लगातार दो साल से संसद में संशोधित अनुमान के रूप में पेश बजट के कर राजस्व आंकड़ों की शुद्धता खत्म हो गई है। वित्त वर्ष 2018-19 में वास्तविक शुद्ध कर संग्रह संशोधित अनुमान के आंकड़ों से 1.67 लाख करोड़ रुपये या जीडीपी का 0.9 फीसदी कम रहा। वित्त वर्ष 2019-20 में कमी 1.49 लाख करोड़ रुपये या जीडीपी की 0.7 फीसदी रही।
इतना बड़ा अंतर गहरी चिंता का विषय है। ये अंतर बजट के आंकड़ों में हर किसी का भरोसा कम करते हैं। इनसे नीति-निर्माता भी भ्रमित होकर अवास्तविक आंकड़ों में भरोसा कर सकते हैं। ऐसी कमी का चालू वित्त वर्ष में दोहराव रोकने के लिए सुधार के कदम उठाए जाने चाहिए, जिसे सरकार को सबसे अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए। मगर चालू वित्त वर्ष में इसके दोहराव के पूरे आसार हैं।
वित्त वर्ष 2020-21 में अर्थव्यवस्था में पांच फीसदी से अधिक की कमी के अनुमान जताए गए हैं। ऐसे में सरकार के लिए अपने बजट राजस्व के आंकड़ों को फिर से पेश करने के बारे में विचार करना बेहतर होगा, भले ही ये आंकड़े घटने से ज्यादा घाटे की पहले ही पहचान हो जाए। पहले ही यह घोषणा करना बेहतर और बुद्धिमानी है। बजाय बाद में अस्थायी वास्तविक आंकड़े जारी कर यह झटका दिया जाए कि संशोधित अनुमान में कर राजस्व के आंकड़े अपने अनुमान से बहुत दूर रहे हैं।
सरकार और क्या कर सकती है? निस्संदेह इसे फरवरी के अंत में सालाना बजट पेश करने की पुरानी व्यवस्था पर लौटने के बारे में विचार करना चाहिए। बजट चार सप्ताह पहले पेश करने से वित्त मंत्रालय की राजस्व के आंकड़ों के संशोधित अनुमानों का सही पूर्वानुमान लगाने की क्षमता प्रभावित हो रही है। हालांकि ऐसा करने से वर्ष की पहली तिमाही में व्यय की रफ्तार बढ़ाने में मदद मिली है। मगर कोष को तेजी से खर्च करने का लक्ष्य हासिल करने की तुलना में राजस्व के आंकड़ों की शुचिता बनाए रखना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
वहीं बजट को जल्द पेश करने का मूल मकसद भुलाया जा चुका है। वर्ष 2016 यानी नोटबंदी के साल में सरकार ने इस बारे में विचार किया था कि क्या वित्त वर्ष मौजूदा अप्रैल-मार्च के बजाय जनवरी से दिसंबर तक के ग्रेगोरियन कैलेंडर वर्ष में बदला जा सकता है। इस दिशा में पहला कदम बजट पेश करने की तारीख पहले रखने को माना गया। यह विचार बनाया गया था कि एक या दो साल में बजट पेश करने की तारीख नवंबर का अंतिम सप्ताह कर दी जाएगी, जिससे वित्त वर्ष में बदलाव हो जाएगा।
इस समय सरकार का कोई भी नुमाइंदा वित्त वर्ष को बदलकर जनवरी-दिसंबर करने केबारे में बात नहीं कर रहा है। इसलिए यह अच्छा विचार होगा कि फिर से बजट पेश करने की तारीख फरवरी के आखिर में कर दी जाएगी। इससे वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को संशोधित अनुमान में घोषित किए जाने वाले अपने राजस्व के आंकड़ों पर विचार करने के लिए ज्यादा समय मिलेगा। इससे राजस्व के आंकड़ों में इतना बड़ा अंतर खत्म होगा या कम से कम घट जाएगा।
मगर इतना ही काफी नहीं होगा। कुछ और बुनियादी समस्याओं ने हाल के वर्षों में कर राजस्व के अनुमानों के तरीकों को प्रभावित किया है। विशेष रूप से पिछले कुछ वर्षों के दौरान वित्त मंत्रालय यह पहचानने में नाकामयाब रहा है कि केंद्र सरकार की टैक्स बॉयंसी (जीडीपी वृद्धि के मुकाबले राजस्व वृद्धि) में अहम कमजोरी आई है। मोदी सरकार ने 2015-16 में सकल टैक्स बॉयंसी में तेज उछाल के लिए काफी श्रेय लिया था। उस समय यह बढ़कर 1.63 पर आई थी, जबकि गत वर्ष घटकर 0.85 रही थी।
तब से केंद्र के सकल कर संग्रह में बॉयंसी लगातार घट रही है। यह वर्ष 2015-16 में 1.63 थी, जो 2016-17 में गिरकर 1.54, 2017-18 में 1.05, 2018-19 में 0.77 और 2019-20 में (-)0.47 पर आ गई। प्रत्यक्ष कर बॉयंसी में भी समान रुझान रहा है। यह 2018-19 में 1.23 थी, जो 2019-20 में (-)1.21 पर आ गई। ये ऐसे दो वर्ष थे, जब वित्त मंत्रालय को कर राजस्व को लेकर अपने संशोधित अनुमानों में भारी अंतर पर शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। इन दो वर्षों में व्यक्तिगत आयकर में बॉयंसी क्रमश: 1.15 और 0.22 रही।
केंद्र सरकार की टैक्स बॉयंसी कभी ऊंची नहीं रही। पिछले तीन दशक के दौरान केंद्र के सकल कर संग्रह में बॉयंसी 2 से अधिक एक बार 2002-03 में रही थी। प्रत्यक्ष करों और व्यक्तिगत आयकर के मोर्चे पर बॉयंसी का थोड़ा बेहतर रिकॉर्ड रहा है। करीब आठ वर्षों में प्रत्यक्ष करों में बॉयंसी 2 से अधिक रही। इसके विपरीत व्यक्तिगत आयकर में बॉयंसी पिछले तीन दशक के दौरान केवल तीन बार ही 2 के पार निकली है।
सरकार बिगड़ती टैक्स बॉयंसी को हल्के में नहीं ले सकती। इसे यह पड़ताल करनी चाहिए कि इस गिरावट के लिए कौनसे कारक जिम्मेदार हैं। क्या इसकी वजह बढ़ती कर वंचना है? या कर प्रशासन पिछले एक साल में अपने कर्मचारियों की तादाद में 76 फीसदी बढ़ोतरी के बावजूद अपनी कुशलता में कमजोर है? गौर करने वाली बात यह है कि कुल कर संग्रह में स्रोत पर कर कटौती (टीडीएस) और अग्रिम कर का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है। यह वर्ष 2016-17 में 74 फीसदी था, जो 2018-19 में बढ़कर 78 फीसदी हो गया। क्या इसकी वजह यह है कि सरकार की प्रत्यक्ष कर चुकाने में ज्यादा लोगों को छूट देने की मंशा से पिछले कुछ वर्षों के दौरान कर आधार सिकुड़ा है?
पिछले दो बजटों में सरकार ने उन लोगों को आयकर चुकाने से छूट दी है, जिनकी कर योग्य आय सालाना पांच लाख रुपये तक है। मार्च 2018 के अंत में 5.5 करोड़ करदाता थे, जिनमें से करीब 3.5 करोड़ ने कुल सालाना आय पांच लाख रुपये से कम दिखाई थी। नए नियमों के तहत ये 3.5 करोड़ करदाता अपने रिटर्न भरते रहेंगे, लेकिन उन्हें कोई कर नहीं भरना पड़ेगा। उनकी संयुक्त रूप से कुल आय 2017-18 में करीब 11 लाख करोड़ रुपये या सभी करदाताओं द्वारा बताई गई कुल आय का एक तिहाई थी। इतने बड़ी तादाद में करदाताओं के कर मुक्त होने का निश्चित रूप से टैक्स बॉयंसी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। ऐसी चिंताओं को दूर करने के लिए नए सिरे से प्रयास किए जाने चाहिए। इसी तरह वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में यथासंभव छूटों को हटाने की दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। सरकार का लक्ष्य अप्रत्यक्ष करों को तर्कसंगत एवं कम करना और ज्यादा करदाताओं को शामिल करने के लिए इसके दायरे में बढ़ोतरी होना चाहिए।
इसके अलावा गैर-कर राजस्व पर भी ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है। इसमें उन पिछले कुछ वर्षों के दौरान भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है, जब कर राजस्व में वृद्धि धीमी रही है। छह साल पहले केंद्र के शुद्ध कर राजस्व में गैर-कर राजस्व का हिस्सा महज 22 फीसदी था, लेकिन पिछले साल यह बढ़कर 24 फीसदी पर पहुंच गया।
मगर कर राजस्व के कमजोर आंकड़ों का बड़ा संदेश यह है कि सरकार को कर राजस्व में ऐसी कमी से पैदा होने वाली अपनी राजकोषीय घाटे की स्थिति के बारे में सच्चाई बयां करनी चाहिए। इसने अच्छी शुरुआत की है। बजट दस्तावेज बेहतर तस्वीर दिखाने वाले हथकंडों का खुलासा करते हैं। इसने बजट की घोषणा से ज्यादा बजट से इतर उधारी का रास्ता बंद कर दिया है। यही वजह है कि वित्त वर्ष 2019-20 में संशोधित अनुमानों के मुकाबले राजस्व में कमी की भरपाई अतिरिक्त उधारी से की गई, बजाय बजट से इतर उधारी जुटाने के। हालांकि इसका मतलब अधिक राजकोषीय घाटे को स्वीकार करना था। अब इतना ही जरूरी राजस्व वृद्धि और टैक्स बॉयंसी की बुनियादी समस्या पर ध्यान देना है।
