हाल में मीडिया में कानून मंत्री और उपराष्ट्रपति के ऐसे वक्तव्य सामने आए हैं जिनमें उन्होंने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया की समीक्षा करने की आवश्यकता है। सन 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम को संसद से मंजूरी मिल गई थी। उसके अंतर्गत देश के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय में उनके बाद के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति एनजेएसी के सदस्य बने। सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में एनजेएसी अधिनियम को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि यह संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ दिखता है। परिणामस्वरूप कॉलेजियम ने काम करना जारी रखा। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के लिए न्यायाधीश चुनते हैं।
तकरीबन आधी सदी पहले अप्रैल 1976 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने बंदी प्रत्यक्षीकरण के कुख्यात मामले में अपनी न्याय की समझ को तत्कालीन केंद्र सरकार के सामने समर्पित कर दिया था। देश के मुख्य न्यायाधीश ने 1975-77 के दौरान सरकार के कहने पर उच्च न्यायालय के उन न्यायाधीशों का स्थानांतरण कर दिया था जो मुश्किल हालात पैदा कर रहे थे। 1970 के दशक के मध्य से ही भारत की सरकारें अक्सर प्रयास करती रही हैं कि उच्च न्यायालयों में अथवा सर्वोच्च न्यायालय में उनकी पसंद के न्यायाधीश चुने जाएं। न्यायमूर्ति एम एन वेंकटचलैया आयोग ने 2002 में अनुशंसा की थी कि राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया जाना चाहिए जिसमें मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और मुख्य न्यायाधीश द्वारा अनुशंसित एक प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल हो। आयोग ने अनुशंसा की थी कि प्रस्तावित एजेंसी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन करे।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए अपनी संपत्ति का खुलासा करना जरूरी नहीं है जबकि सरकारी अधिकारियों तथा चुनाव लड़ने वालों के लिए ऐसा करना जरूरी है। अक्सर न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद पंचाट के सदस्य, राज्य सभा के सदस्य और राज्यपाल तक बन जाते हैं। कुछ मामलों में तो सेवारत न्यायाधीशों ने सार्वजनिक तौर पर सत्ता पक्ष के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर की और सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद उन्हें सरकार द्वारा महत्तवपूर्ण पदों पर बिठा दिया गया। फिर भी आम भारतीयों को उम्मीद है कि कुछ कमियों के बाद भी एक संस्थान के रूप में सर्वोच्च न्यायालय सरकार की अतियों के खिलाफ मजबूती से खड़ा रहेगा।
संविधान के अनुच्छेद 348(1) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही अंग्रेजी में होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे न्यायाधीश भी आते हैं जिन्हें अंग्रेजी का बहुत सीमित ज्ञान होता है। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने 1 अगस्त, 2022 को एक आदेश में कहा था, ‘हिमाचल उच्च न्यायालय का निर्णय पूरी तरह समझ से बाहर है।’ यहां संदर्भ हिमाचल प्रदेश बनाम हिमाचल एल्युमीनियम ऐंड कंडक्टर्स मामले का है।
लिखने के बुनियादी कौशल और समग्र शिक्षा को लेकर एक बचाव आवश्यक है ताकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नामित किसी संस्था द्वारा कराई जाने वाली प्रतिस्पर्धी परीक्षा संपन्न कराई जा सके। यह एक अलग और विशिष्ट परीक्षा होनी चाहिए जहां से सभी न्यायाधीशों का चयन हो सके। कुछ महीने पहले मैंने सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश से पूछा कि क्या ऐसी लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के जरिये न्यायाधीशों को चुनना व्यावहारिक और वांछित है तो उन्होंने बिना किसी हिचक के कहा कि ऐसा करना आवश्यक हो चुका है।
इस समय देश की निचली अदालतों में करीब चार करोड़ मामले लंबित हैं। उच्च न्यायालयों के समक्ष 56 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में 70,000 मामलों की सुनवाई चल रही है। अक्सर न्यायाधीश ही मामलों के स्थगन और अपील के दशकों तक खिंचने के लिए जिम्मेदार होते हैं। सरकारों को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए क्योंकि कई अदालती मामलों में वे भी शामिल होती हैं। इतने अधिक लंबित मामलों को देखते हुए क्या सर्वोच्च न्यायालय को खुद को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड, उपासना स्थलों या नोटबंदी जैसे मामलों से जोड़ना चाहिए? ऐसे मामले निचली अदालतों में निपट सकते हैं। शीर्ष न्यायालय को अभी चुनावी बॉन्ड के जरिये राजनीतिक दलों को गुप्त चंदे से संबंधित मामले को भी निपटाना है।
सरकार के पक्ष में काम करने की बात करें तो कुछ और ऐसे क्षेत्र हैं जहां नियंत्रण एवं संतुलन काम नहीं आया है। उदाहरण के लिए राज्यों के राज्यपाल, चुनाव आयुक्त तथा पुलिस आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तथा केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक आदि पदों पर होने वाली नियुक्तियां अक्सर सत्ताधारी दलों के समर्थन के आधार होती रही हैं। यह देश की चुनाव प्रक्रिया और हमारे मतदाता वर्ग की दृष्टि से दुखद है हमें ऐसी सरकारें मिलती हैं जिन पर हम यह विश्वास नहीं कर सकते कि वे अहम पदों पर निष्पक्ष और सक्षम लोगों का चुनाव करेंगी। न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया में सरकार के नामित लोगों को शामिल करने का प्रस्ताव हमारी न्यायपालिका की निष्पक्षता और शुचिता के लिए सही नहीं होगा।
जाहिर है हमें ऐसे न्यायाधीश चाहिए जो भ्रष्ट न हों। सभी न्यायाधीशों को सेवाकाल में अपनी संपत्ति सार्वजनिक करनी चाहिए और सेवानिवृत्ति के बाद भी 10 वर्षों तक सालाना ऐसा करना चाहिए। सक्षम न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय एक सात सदस्यीय समिति बना सकता है जिसमें मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश तथा दो गैर सरकारी प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल हों। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति की प्रक्रिया बिंदुवार ढंग से सामने रखी जानी चाहिए और यह सूचना सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर उपलब्ध होनी चाहिए। ऐसी समिति में कोई सरकार द्वारा नामित कोई व्यक्ति नहीं होना चाहिए। सहमति से नियुक्तियों को बढ़ावा देने की प्रक्रिया में इस समिति के किन्हीं दो सदस्यों को वीटो अधिकार होना चाहिए ताकि वे किसी संभावित नियुक्ति को रोक सकें। इसके साथ ही सरकार को यह अधिकार होना चाहिए कि वह चयन समिति द्वारा तय नामों को खारिज कर सके। बहरहाल, सरकार को इसके साथ ही विस्तार से यह भी बताना चाहिए कि वह किसी नाम को क्यों खारिज कर रही है। इस जानकारी को सदन पटल पर रखा जाना चाहिए।