लॉकडाउन की वजह से अनुपमा मंडल को पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना के अपने गांव में दुकान बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 18 साल की अनुपमा की जिंदगी इससे पहले भी नरक में ही गुजरी थी। 2016 में उन्हें दिल्ली से छुड़ाया गया था जहां उन्हें जबरदस्ती एक साल तक देह कारोबार में धकेल दिया गया था। घर लौटने के कुछ साल बाद वह किराने की एक छोटी दुकान खोलने में कामयाब रहीं। लेकिन कोविड-19 महामारी फैलने की वजह से मार्च में देश भर में लॉकडाउन लगाया गया जिससे स्थिति खराब हुई। उनके गांव में लोगों को दोहरी मार पड़ी और महामारी के साथ-साथ भयावह अम्फ न चक्रवात का भी सामना करना पड़ा। उनके पड़ोसी अब सामान खरीदने के लिए खर्च नहीं कर सकते थे जिसे बेचने के लिए वह गांव के बाहर से लाती थीं।
पिछले साल इंडियन लीडरशिप फोरम अगेंस्ट ट्रैफिकिंग (आईएलएफएटी) नाम का एक संगठन गठित किया गया था जिसका हिस्सा रही अनुपमा अब एक स्वयं सहायता समूह की मदद से ऋण लेकर कारोबार को बढ़ाने की योजना बना रही हैं। अनुपमा अपने माता-पिता, दादा-दादी और दो भाई-बहिन के साथ रहती हैं और वह उन भाग्यशाली लोगों में से एक हैं जिन्हें अवैध तस्करी के जरिये बेचा गया लेकिन आखिरकार वह बच गईं। उनका परिवार उनके पिता की खेती की आय पर निर्भर हैं। तफ्तीश के तहत गैर-सरकारी संगठनों के एक समूह द्वारा हाल ही में किए गए एक विश्लेषण से पता चलता है कि लॉकडाउन ने अवैध कारोबार के चंगुल से निकली इन महिलाओं के आर्थिक जीवन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। इस समूह में अवैध तस्करी से बची महिलाएं, पेशेवर और सक्रिय कार्यकर्ता भी जुड़े हैं।
यह विश्लेषण पश्चिम बंगाल में चार ऐसे ही संगठनों मसलन बंधनमुक्ति, विजयिनी, पश्चिम बंगाल में उत्थान और आंध्रप्रदेश में विमुक्ति के मई से सितंबर के अंत तक एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित है। इन संगठनों से अवैध तस्करी के चंगुल से बची लड़कियां जुड़ी हैं।
अवैध तस्करी के चंगुल से छुड़ाए गए करीब 236 महिलाओं से इस अध्ययन के लिए बात की गई जिनमें से 79 (33 फीसदी) के पास लॉकडाउन से पहले कोई आमदनी नहीं थी। लॉकडाउन के बाद यह संख्या बढ़कर 183 (या 77.5 फीसदी) हो गई। 236 महिलाओं में मानव तस्करी, व्यावसायिक यौन शोषण और देह व्यापार से जुड़ी महिलाएं शामिल हैं। लॉकडाउन से पहले इन 65 महिलाओं (27 फीसदी) के परिवार के कमाने वाले लोगों की कोई आमदनी नहीं थी। लॉकडाउन के बाद यह तादाद बढ़कर 206 या 87 फीसदी तक हो गई।
इन कमजोर महिलाओं में से 41 ने बताया कि उनके पास कोई राशन कार्ड नहीं है जबकि 25 के पास राशन कार्ड के साथ-साथ लॉकडाउन के दौरान मुफ्त या सब्सिडी वाला राशन प्राप्त हासिल करने के लिए जरूरी कूपन नहीं था। इनमें से 56 ने कहा कि उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दिया जाने वाला नियमित राशन नहीं मिलता है।
करीब 199 महिलाओं के पास रोजगार कार्ड की भी कमी थी। इसका मतलब यह है कि अगर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी सरकारी योजनाएं उनके इलाकों तक पहुंचती हैं तब भी उन्हें कोई काम नहीं दिया जा सकता है।
मंडल के साथ-साथ आईएलएफएटी के साथ-साथ अपने गांव में बंधन मुक्ति का हिस्सा रहीं रहिमा खान कहती हैं, ‘लोगों को राशन और सहायता मुहैया कराने में पंचायत और ब्लॉक के अधिकारी मददगार नहीं रहे हैं।’ 2017 में देह व्यापार के चंगुल में फंसी रहिमा को पुणे से बचाया गया और अब वह अन्य महिलाओं की भी मदद करती हैं और घरेलू हिंसा के कई मामले को सुलझाने की कोशिश करती हैं। शहरों से गांवों की ओर प्रवासी मजदूरों का पलायन हुआ और मजदूर अपने घर लौट गए। 24 वर्षीय रहिमा का कहना है कि जो लोग घर वापस आए उनके पास कोई काम नहीं था और ऐसे में कई पुरुष हिंसक हो गए। वह कहती हैं कि उनके पास भी काम नहीं है ऐसे में वह तस्करी केचंगुल से बाहर निकली महिलाओं को सुझाव देती रहती हैं। वह कहती हैं कि यौन तस्करी से बची महिलाओं को लॉकडाउन के दौरान भी तस्करों की धमकियों से जूझना पड़ा। उनकी तरह ही कई लड़कियों ने शादी न करने का फैसला किया है क्योंकि उनको डर है कि उनके भावी पति भी वेश्यावृत्ति में वापस जाने को मजबूर कर सकते हैं ।
रहिमा को अवैध तरीके से तब बेचा गया था जब वह महज 12 साल की थीं और वह अब भी राज्य सरकार से मिलने वाले मुआवजे का इंतजार कर रही हैं। उनके परिवार में छह भाई-बहन हैं जो अपने पिता की कमाई पर निर्भर हैं जो एक टैक्सी ड्राइवर हैं। उनके पिता ने लॉकडाउन के बाद फिर से काम करना शुरू कर दिया है। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल मानव तस्करी के 2,260 मामले दर्ज किए गए। कुल करीब 6,616 पीडि़तों में से 2,914 बच्चे थे। इसके अलावा 6571 पीडि़तों को तस्करों के चंगुल से बचाया गया। तफ्तीश के अध्ययन के मुताबिक लॉकडाउन से पहले 143 महिलाओं ने कर्ज लिया था और 106 ने भी मार्च के अंत में वित्तीय संकट से निपटने के लिए कर्ज लिया था। कर्ज की राशि 1,500 रुपये से 4,30,000 रुपये तक है। आंध्र प्रदेश की महिलाओं ने पश्चिम बंगाल में अपने जैसी औरतों की तुलना में ऊंची ब्याज दरों के साथ भारी कर्ज लिया था।
