बीमारी अमीर-गरीब का फर्क नहीं जानती।
मगर अफसोस उसका इलाज करने वाले चिकित्सकों की नजर में किसी धन्ना सेठ को हुआ जुकाम, अमूमन किसी गरीब को हुए कैंसर से ज्यादा अहम नजर आता है।
ऐसा ही कुछ नजारा है, इन दिनों मंदी की बीमारी की गिरफ्त में आने वाली हमारी अर्थव्यवस्था का। यहां डॉक्टर मनमोहन सिंह का पूरा अमला शेयर बाजार और बड़े उद्योगों-कंपनियों की तीमारदारी में तो पूरी ताकत से जुटा हुआ है लेकिन दम तोड़ते छोटे और मझोले उद्योगों और कारोबारियों की सुध लेने वाला कोई नहीं दिख रहा।
वैसे, बड़े और छोटे की सरकारी समझ भी किस आधार पर विकसित हुई है, यह सवाल भी अपने में खासा अहम है। क्योंकि जिन्हें हम छोटे और मझोले उद्योग मानकर मरने के लिए उनके हाल पर ही छोड़ रहे हैं, वही हमारे देश की अर्थव्यवस्था की जान हैं।
तकरीबन डेढ करोड़ से ज्यादा की तादाद में मौजूद छोटे और मझोले उद्योगों की इन इकाइयों से ही देशवासियों को सबसे ज्यादा नौकरियां मिलती हैं। जाहिर है, करोड़ों की संख्या में लोगों को रोजगार देने वाला यह क्षेत्र अगर बीमार हुआ तो किस कदर भुखमरी और बेरोजगारी फैलेगी, इसका अंदाजा क्या सरकार को नहीं है?
उद्योग का कोई क्षी क्षेत्र हो, छोटे और मझोले उद्योगों का योगदान हर कहीं सबसे ज्यादा नजर आता है। मसलन, देश से किए जाने वाले निर्यात की बात करें तो इसमें छोटे और मझोले उद्योगों का योगदान करीब 34 फीसदी है। इसके अलावा औद्योगिक निर्यात में लघु उद्योगों का योगदान करीब 40 फीसदी के आसपास है।
यही नहीं, लघु उद्योगों द्वारा करीब 8000 उत्पादों का उत्पादन किया जाता है। यही वजह है कि देश की जीडीपी में लघु उद्योगों का योगदान 9 फीसदी के आसपास है।इसके बावजूद, मौजूदा आंकड़े साफ चेतावनी दे रहे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था की ‘बैकबोन’ कहे जाने वाले इन उद्योगों की कमर अब टूट रही है।
ऊपर से वैश्विक मंदी की मार भी इन पर जबरदस्त पड़ने लगी है। एसोचैम द्वारा अगस्त महीने में जारी किए गए एक आंकड़े के मुताबिक, लघु उद्योगों के उत्पादन में 10 फीसदी की कमी आई है। इनके द्वारा सृजन किए जाने वाले रोजगारों में भी 7 फीसदी तक की कमी आई है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अभी कुछ महीने पहले तक जहां मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में लघु उद्योगों की भागीदारी 45 फीसदी थी, वहीं चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में यह हिस्सेदारी घटकर 35 फीसदी रह गई है। उद्योग जगत तो यहां तक आशंका जता रहा है कि साल 2008 खत्म होते-होते लघु उद्योगों की हालत कब्र में लटकने जैसी हो जाएगी।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इनकी यह हालत क्यों और कैसे हुई? या फिर मंदी की सबसे ज्यादा मार इन पर ही क्यों पड़ रही है? विश्लेषक इसके जवाब में स्पष्ट करते हैं कि ऋण किसी भी व्यापार की जीवन रेखा होती है, फिर चाहे वह उद्योग छोटा हो या बड़ा। लिहाजा मंदी के दौर में लघु उद्योगों के सामने सबसे बड़ी समस्या आसमान छूती ब्याज दरों की ही है।
वर्तमान में लघु उद्योगों को 15-16 फीसदी की दर से ऋण मुहैया कराया जाता है। वैसे तो कहने को सरकार ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को ऋण मुहैया कराने के लिए क्रेडिट गारंटी फंड स्कीम भी चला रखी है। लेकिन हकीकत किसी से छिपा नहीं है। होता यह है कि बैंक इस योजना को ताक पर रखते हुए बिना किसी अमानत के इन इकाइयों को ऋण मुहैया कराने से साफ इनकार कर देते हैं।
वह भी तब, जबकि आरबीआई ने भी इन बैंकों को बार-बार सख्त ताकीद की है कि वे लघु इकाइयों को ऋण दें। लघु उद्योगों के सामने इंस्पेक्टर राज, कच्चे माल की कीमतों में वृध्दि की तलवार भी लटक रही है। इन्हीं वजहों से उनके उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। बिजनेस स्टैंडर्ड ने व्यापार गोष्ठी के माध्यम से जब देशभर के प्रबुध्द पाठकों, कारोबारियों और आर्थिक विशेषज्ञों से इस गंभीर मसले पर राय-मश्विरा किया, तो कमोबेश सभी ने एक सुर में माना कि अगर सरकार समय रहते नहीं चेती तो हालात बद से बदतर हो जाएंगे।
सरकार अगर देश की विभिन्न लघु इकाइयों को जल्द से जल्द ऋण मुहैया कराने के इंतजामात नहीं करेगी तो हजारों लघु इकाइयों पर ताला लग जाएगा और लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे।
उम्मीद है कि प्रबुध्द जनों के बीच आयोजित इस गोष्ठी के नतीजों को सरकार गंभीरता से लेकर जरूरी कदम उठाने के लिए तत्पर होगी। वरना आने वाले समय में एसोचैम की उस रिपोर्ट पर शायद ही कोई यकीन कर सकेगा, जिसमें उसने मंदी की मार पड़ने से कुछ अरसा पहले ही उम्मीद जताई थी कि 2012 तक देश की जीडीपी में लघु उद्योगों का योगदान 9 फीसदी से बढ़कर 25 फीसदी हो जाएगा।