जिस प्रदेश में सकल घरेलू उत्पाद का 32 फीसदी हिस्सा कृषि से आता हो, वहीं के किसान अगर हाड़-तोड़ मेहनत और जमा-पूंजी लगा देने के बाद उपजी फसलों को ही अपना मानने से इनकार कर दें, तो समझ नहीं आता कि दोष किसे दिया जाए।
कृषि के विकास के नाम पर सरकारी रोटी तोड़ रहे 5 कृषि निदेशक, 10 अपर कृषि निदेशक, 50 वरिष्ठ अधिकारी और लगभग 1,000 हजार से ज्यादा कर्मचारियों की फौज को या फिर सरकार को।
बात हो रही है, उत्तर प्रदेश की, जहां के कन्नौज जिले में हाल ही में 80 हजार क्विंटल आलू को कोल्ड स्टोरेज वालों ने सड़कों पर फेंक दिया।
वह इसलिए क्योंकि बंपर फसल हो जाने के बाद एक रुपये किलो बिक रहे आलू के भंडारण के लिए कोल्ड स्टोरेज का किराया देना भी किसानों को नागवार गुजरा और उन्होंने उसे उठाने से ही इनकार कर दिया।
आलू की फसल इस साल इस कदर घाटे का सौदा रही कि इसकी बुवाई के लिए किसानों ने 250 रुपये प्रति क्विंटल खर्च किया ।
जबकि बेचने पर उन्हें 50 रुपये प्रति क्ंविटल भी हाथ नहीं लग रहा है। सरकार और भारी-भरकम कृषि विभाग होने के बावजूद 286 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि वाले उत्तर प्रदेश किसानों को कोई यह तक बताने वाला नहीं है कि किस मौसम में कौन सी फसल बुवाई क्षेत्र और बाजारी कीमतों के उतार-चढ़ाव के आधार पर उन्हें बोनी चाहिए।
इसी का नतीजा है कि राज्य में ज्यादातर किसानों ने भेड़-चाल का अनुसरण करते हुए आलू ही बो दिया। यही नहीं, बंपर फसल होने की दशा में उसकी भंडारण क्षमता और निर्यात मदद में भी सरकार हाथ खड़े कर देती है। कृषि विभाग के आंकड़ो को देखे तो तस्वीर और भी साफ हो जाती है।
उत्तर प्रदेश में इस साल आलू का उत्पादन 123 लाख टन हुआ है। जबकि राज्य में आलू की कुल खपत 13 लाख टन और भंडारण क्षमता केवल 87 लाख टन ही है। राज्य में होने वाली खपत को हटा दिया जाए तो निर्यात भी शेष उत्पादन का 40-45 फीसदी ही है।
आलू की ही मार से लुटे-पिटे अलीगढ़ के किसान हीरेन्द्र सिंह कहते हैं- पिछले तीन साल में मेरे साथ ऐसा तीन बार हो चुका है। जब मैं अपनी उपज की कुल लागत को भी वसूल नहीं कर पाया हूं।
इसका कारण हर साल आलू के बुवाई क्षेत्र में हुई बढ़ोतरी का अंदाजा नहीं लगा पाना है। सरकार भी किसानों को बुवाई क्षेत्र के आंकड़े उपलब्ध नहीं कराती है।
ऐसे में इन इलाकों में प्रत्येक 100 किसानों में से 80 किसान आलू की ही बुवाई करते हैं। ढाई महीने की फसल होने से यह तैयार भी जल्दी हो जाती है।
किसान कीमतों के बढ़ने की उम्मीद में बिक्री नहीं करते हैं, और जब आलू की बिक्री को शुरू किया जाता है। तो कीमत लागत से भी पांच से छह गुना नीचे गिर चुकी होती है।
हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार की दलील ठीक इसके उलट है। राज्य के कृषि मंत्री लक्ष्मीनारायण कहते हैं – किसान आलू की कीमतों में बढ़ोतरी के लिए बिक्री नहीं करते हैं। कीमतें बढ़ने पर जब सभी किसान आलू स्टॉक को बिक्री के लिए लाते हैं तो मांग न होने और ओवरसप्लाई के चलते कीमतें गिर जाती हैं।
इस बार भी यही हुआ है। परिवहन में 50 फीसदी की छूट देने के बावजूद भी किसान कोल्ड स्टोरेज से आलू निकालने को तैयार नहीं थे। ऐसे में हमारा ध्यान राज्य में कोल्ड स्टोरेज की संख्याओं को बढ़ाने का है ताकि भंडारण की उचित व्यवस्था हो सके ।
कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने के लिए हमनें 50 लाख रुपये तक की छूट देने की योजना भी बना रखी है। निर्यात को बढाने के लिए हम प्रयास कर रहे हैं।
लेकिन राज्य में पैदा हुए आलू में शर्करा की मात्रा ज्यादा होने से अंतराष्ट्रीय बाजार में इसकी मांग कम रहती है। ऐसे में हम राज्य में आलू आधारित उद्योग-धंधों को लगाने की योजना बना रहे हैं।
दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश कोल्ड स्टोरेज एसोसिएशन के अध्यक्ष महेन्द्र स्वरूप अग्रवाल ने बताया कि कोल्ड स्टोरेज मालिकों ने कृषि लागत ऋण के तहत बैंको से कर्ज ले रखा है।
इस कर्ज की पूर्ति उपज के किराये मिलने के बाद ही संभव होती है। लेकिन किसान आलू बाहर निकालने को तैयार नहीं होते हैं।