डॉलर हमारी मुद्रा है, लेकिन आपके लिए यह सिरदर्द है।’
… कितने हैरत की बात है कि दशकों तक दुनिया के शहंशाह बने रहने वाले अमेरिका के एक वित्त मंत्री का यह दंभ भरा बयान धूल चाट रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था के दौर में भी उतना ही खरा साबित हो रहा है, जितना कि उन्होंने इसे अपने सुनहरे काल में जताने के लिए कहा था।
भले ही इसके मायने अब बदल गए हों। वह ऐसे कि उनकी इस गर्वोक्ति का अर्थ उस समय यह था कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था और कारोबार के विकास के लिए डॉलर ही सबसे ज्यादा अहम है जबकि आज डॉलर यानी अमेरिका पर निर्भरता या किसी भी तरह का वास्ता पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बन चुका है।
ऐसा सिरदर्द, जिसके चलते कई देश दिवालिया तक होने की कगार पर पहुंच गए हैं। इसी का नतीजा है कि दुनियाभर में बर्बाद हो रहे वित्तीय संस्थान और कंपनियां अपने यहां बड़े पैमाने पर कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा रही हैं। कई विकसित देशों में तो कोई भी क्षेत्र इस मंदी से बच नहीं सका है लेकिन इनमें भी नौकरियों से हाथ धोने वाले ज्यादातर लोग प्रमुखत: विनिर्माण, रियल एस्टेट, वित्तीय सेवाओं और ऑटो सेक्टर के हैं।
यही नहीं, आसार तो इस बात के हैं कि निजी क्षेत्र को अभी आगे और भी बुरे दिन देखने हैं। क्योंकि अगर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की मानें, तो 2009 के अंत तक दुनियाभर में इस मंदी के चलते दो करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा।
जाहिर है, इतने बड़े पैमाने पर छंटनियों के चलते न सिर्फ उन बदकिस्मत कर्मियों का जीना मुहाल होगा बल्कि बाजार, अर्थव्यवस्था और सरकार के लिए भी मंदी का शिकंजा इससे लंबे समय के लिए मजबूत हो जाएगा। भले ही भारत में अभी अमेरिका और यूरोप की तरह हजारों-लाखों की तादाद में छंटनियां न हुई हों लेकिन छिट-पुट शुरुआत यहां भी हो चुकी है। और जब खुद प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री यह मान रहे हैं कि हम पर भी इसका शिकंजा कसता जा रहा है तो यह सवाल हमारे लिए और भी अहम हो जाता है कि निजी क्षेत्र में छंटनी पर सरकार अंकुश लगाए या नहीं?
लिहाजा व्यापार गोष्ठी में बिजनेस स्टैंटर्ड ने इस बार इसी सवाल का जवाब देशभर के प्रबुध्द पाठकों और विशेषज्ञों की विचार शक्ति से जानने की कोशिश की। कई लोगों का मानना है कि सरकार निजी क्षेत्र पर अंकुश लगाने के लिए कई तरीके अख्तियार कर सकती है।
इनमें सबसे बड़ा हथियार उसके पास श्रम कानून ही है, जिसमें वह रोजगार की शर्तों और छंटनी के प्रावधानों को और कड़ा करके कंपनियों पर कुछ नकेल कस सकती है। इसके अलावा, किसी डगमगाती कंपनी को बड़े पैमाने पर छंटनी से रोकने के लिए वह राहत पैकेज को भी बतौर हथियार इस्तेमाल कर सकती है।
जैसा कि हाल ही में उसने जेट के मामले में किया। सरकार ने जेट को साफ तौर पर बता दिया कि ईंधन भुगतान के जिस संकट से वह गुजर रही है, उसके लिए अगर किसी रियायत की सरकार से दरकार है तो उसे छंटनी से परहेज करना होगा। अब जेट के मालिक नरेश गोयल भले ही बिना किसी दबाव के छंटनी का फैसला बदलने का दावा करें लेकिन यह तो जगजाहिर है कि सरकार ने इसको लेकर जो नाखुशी जाहिर की थी, उसका उन पर खासा दबाव पड़ा ही होगा।
वैसे तो खुद सरकार ही मंदी की इस आंधी से कब तक बच पाएगी, यह कह पाना भी बेहद कठिन काम है। क्योंकि मंदी की यह आंधी इस कदर तेज है कि निजी क्षेत्र में छंटनी को लेकर सरकारी अंकुश की उम्मीद रखने वालों का दिल इसकी रफ्तार का अंदाजा लगते ही टूट जाएगा। हालत यह है कि अमेरिका-यूरोप में खुद वहां की सरकारें ही अपने विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों के हजारों कर्मचारियों की नौकरियां छीन चुकी हैं।
यानी अगर यहां भी हालात वहां की तरह भयावह हुए तो निजी क्षेत्र में छंटनी पर अंकुश की बात तो दूर, खुद हमारी सरकार को अपने कर्मचारियों को मोटी तनख्वाह देना बहुत महंगा साबित होने लगेगा। तो अब सवाल यह उठता है कि हजारों-लाखों लोगों की नौकरियों पर लटकती इस तलवार से बचने का रास्ता क्या किसी के पास नहीं है? विशेषज्ञ कहते हैं कि इसका रास्ता सरकार और निजी क्षेत्र को कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलते हुए ढूंढ़ना होगा।
सरकार को यह समझना होगा कि मंदी के चलते कंपनियों को किन-किन तरह की मुश्किलात का सामना करना पड़ा रहा है तो इसी तरह उद्योग जगत को भी सरकार के इस दर्द को समझना होगा कि बड़े पैमाने पर छंटनी करने से न सिर्फ सरकार, अर्थव्यवस्था बल्कि बाजार की सेहत भी खराब होगी, जो कि अंतत: बूमरैंग की तरह फिर उनके ही सिर पर आन पड़ेगी।
एक सीमा तक नियंत्रण आवश्यक
निजी क्षेत्र में की जाने वाली नियुक्तियां निर्धारित अनुबंध के आधार पर होती हैं और अनुबंध में लिखी गई सेवा-शर्तों व परिस्थितियों के अधीन छंटनी की जाती है। ऐसे में छंटनी नियोक्ता का अधिकार है। हालांकि नियोक्ता को इस अधिकार का उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिए। थोक में की जाने वाली छंटनी के बजाय इसे क्रमश: किश्तों में करनी चाहिए। निजी क्षेत्र में की जाने वाली छंटनी पर सरकार का अंकुश भले ही न हो किन्तु एक सीमा तक नियंत्रण आवश्यक है।
योगेश जैन, पेंटालून्स,
ट्रेजर आइलेण्ड मॉल, एम. जी. रोड, इंदौर