रेलवे परीक्षा को लेकर पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र में राज-नीति चालू आहे।
एक ओर, मराठी मानुष की बात करने वाले नेतागण इसके लिए खुद रेलवे को कटघरे में खड़ा करते हैं तो दूसरी ओर रेलवे सांविधानिक नियम-कायदों का हवाला देती है।
दोनों के बीच चलती दलील-प्रतिदलील ही वह अहम वजह है, जिसने मराठी-गैर मराठी के बीच रस्साकशी की सूरत अख्तियार कर ली है। मराठी पक्ष रखने वाले दलील देते हैं कि मुंबई में काम करने वाली लगभग सभी बड़ी संस्थाओं में स्थानीय लोगों का ही वर्चस्व है लेकिन रेलवे में नहीं है। क्योंकि रेलवे सही जानकारी नहीं देती है।
उनका सवाल है कि मंत्रालय, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया सहित सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, ओएनजीसी, भेल और दूसरे भी सरकारी संस्थानों में 70 से 80 फीसदी स्थानीय लोगों को काम दिया जा रहा है तो रेलवे में क्यों नहीं? इन तर्कों के जवाब में रेलवे अधिकारियों का कहना है कि रेलवे अखिल भारतीय सेवा में आती है। लिहाजा इसमें सभी को मौका मिलता है।
क्षेत्रवाद के हिसाब से इसमें आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है। जहां तक नौकरियों की बात है, रेलवे इसकी जानकारी राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर के समाचार पत्रों के माध्यम से दे देती है। इस पर भी अगर कोई यह कहे कि महाराष्ट्र में जानकारी नहीं दी जाती तो यह सरासर गलत और लोगों को गुमराह करने वाली बात है।
बहरहाल, इसी मसले पर राज्य में हिंसक आंदोलन खड़ा करने का आरोप झेल रही मनसे के उपाध्यक्ष वागीश सारस्वत इस बाबत सफाई देते हुए कहते हैं कि पिछले 10 साल में राज ठाकरे कई बार प्रतिनिधिमंडल लेकर रेल अधिकारियों से मिले।
रेल मंत्री लालू प्रसाद से भी वह मिलने गए थे, पर उन्होंने मिलने से इंकार कर दिया। इसलिए जो भाषा उनकी समझ में आती है, हम उसी में बात कह रहे हैं। सबके लिए यह राजनीति होगी लेकिन हमारे लिए यह मराठी अस्मिता का सवाल है।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि राज्य का हर निवासी रेलवे की नौकरी के लिए हिंसक रवैया अपनाने का हिमायती हो। स्थानीय निवासी भरत का यह बयान इसका खुलासा करने के लिए काफी है। भरत कहता है- मैं मराठी हूं। मराठी पढ़ा और बोलता हूं। फिर भी मार खा गया। अगर सच में हमारे नेता सभी को रोजगार दिलाना चाहते हैं और मराठी मानुष की आवाज बुलंद करना चाहते हैं तो इसकी तैयारी के लिए सही किताबें और गाइड लाइन हमें मुहैया करवाएं।
चिंगारी, जो बन गई क्षेत्रवाद की आग
महाराष्ट्र में फैलती क्षेत्रवाद की आग की पहली चिंगारी 1920 में ही भड़क उठी थी, जब प्रबोधन ठाकरे केदोस्त वी.आई.तावड़े को मद्रास प्रेसिडेंसी ने अपने यहां काम यह कह कर नहीं दिया कि यहां पर काम सिर्फ मद्रास प्रेसिडेंसी के लोग ही कर सकते हैं।
अब इसे संयोग कहें या दुर्योग, यही वह दौर था, जब मुंबई में बाहरी लोगों की आने की संख्या भी बढ़ने लगी। क्योंकि उस समय मुंबई बेरोजगारों के लिए रोजगार का कारखाना तो कारोबारियों के लिए सोने की मुर्गी थी।
काम की कमी नहीं थी तो कौन क्या कर रहा है, यह सोचने की फुर्सत भी किसी के पास नहीं रही, लेकिन 80 और 90 के दशक में दत्ता सावंत के नेतृत्व में कपड़ा मिल मालिकों केखिलाफ चलाए गए आंदोलन से न सिर्फ मुंबई से कपड़ा मिलों की आवाज बंद हो गई बल्कि मुंबईकरों के सामने रोजी-रोटी का सवाल भी खड़ा हो गया।
परेल, दादर, एलिफिस्टन,भायखला और महालक्ष्मी जैसे इलाके, जो बेरोजगारों के लिए शरणगाह माने जाते थे, वह खुद रोजगार के लिए तरसने लगे। इन मिलों में काम करने वाले लाखों मजदूरों में से ज्यादातर मराठी थे और दूसरे नंबर पर उत्तर भारतीय लोग थे।
इसके अलावा, मुंबई को साफ-सुथरा रखने के मकसद से महाराष्ट्र सरकार ने एपीएमसी की स्थापना मुंबई से बाहर नवीं मुंबई में कर दी। सब्जी या अनाज व्यापार से जुड़े हजारों लोगों ने इसके चलते भी अपने-अपने काम खो दिए।
सामना (हिंदी) के संपादक प्रेम शुक्ला कहते हैं कि गरीबी के चलते ज्यादातर स्थानीय लोग बड़ी-बड़ी डिग्रियां नहीं ले पा रहे हैं और काम की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। ऐसे में जब वह देखते हैं कि बाहरी लोग आकर उनके यहां काम ले लेते हैं तो गुस्सा आना तो लाजिमी है।
1973 में लोकाधिकार कानून बनाया गया था, जिसका मकसद था कि स्थानीय लोगों (80 फीसदी) को मौका दिया जाए, लेकिन रेलवे ने इस कानून का हमेशा मजाक उड़ाया है।