ताबड़तोड़ गोलियों की बौछार में भी कोई दुश्मन किसी फौजी को छूने की हिम्मत कर सकता है? उससे भी बढ़कर क्या वह फौजी का शिकार कर सकता है?
जी हां, पूर्वोत्तर राज्यों में ऐसा है और भारतीय फौज के दुश्मन हैं, मच्छर, जिनकी फिक्र शाम होते ही फौजियों को सताने लगती है और जिनसे मोर्चा लेना उनके लिए बेहद टेढ़ी खीर होता है।
मच्छरों का खौफ कोई आज का नहीं है। अंग्रेजों की फौज दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब बर्मा में जापानियों से मोर्चा ले रही थी, तो 14वीं आर्मी के कमांडर फील्ड मार्शल विलियम स्लिम को महसूस हुआ कि जापानियों की गोलियों से ज्यादा उनके जवान एनॉफिलीज मच्छर के डंकों से मर रहे हैं, जिनकी वजह से उन्हें मलेरिया हो रहा है।
फौजी सनक में आकर उन्होंने फरमान जारी कर दिया कि मलेरिया का शिकार बनना किसी भी जवान के लिए गुनाह होगा और बीमार होने पर उसे सेना के जेल में डाल दिया जाएगा। कई दशक बीत चुके हैं, लेकिन मच्छरों से भरे हुए पूर्वोत्तर के जंगलों में भारतीय सेना आज भी स्लिम के हुक्म की तामील कर रही है।
सूरज डूबते ही वर्दी की आस्तीन नीचे कर दी जाती हैं और रात में मच्छरदानी जरूर इस्तेमाल की जाती है। लेकिन अब जवानों को मच्छरों के साथ इस जंग में तेजपुर की रक्षा अनुसंधान प्रयोगशाला (डीआरएल) का भी साथ मिल रहा है।
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की बाकी प्रयोगशालाएं अत्याधुनिक हथियार और सेंसर बनाने में जुटी रहती हैं, लेकिन तेजपुर की प्रयोगशाला का मकसद पूर्वोत्तर की आम समस्याओं मसलन मलेरिया, खतरनाक मक्खियां, साफ पानी और बिजली की कमी को दूर करना ही है।
डीआरएल तेजपुर इस मुहिम में इस कदर जुटी कि वह इस मच्छर दूर भगाने के उपायों की मौजूदा नाकामी की तह तक ही पहुंच गई। 4 महीने पहले उसकी मॉलिक्युलर बायोलॉजी फैसिलिटी ने विश्व जीन बैंक को उस जीन का विस्तृत ढांचा थमा दिया, जिसकी वजह से मच्छरों पर कीटनाशकों का असर नहीं होता। अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मच्छरों पर शोध करने वाले इसका इस्तेमाल करेंगे।
दरअसल डीआरएल कामयाबी हासिल करने के लिए एक ही मंत्र पर काम करती है- स्थानीय जनजातियों के पारंपरिक ज्ञान का लाभ उठाना। यहां के लोग जानते हैं कि मच्छरों, जोंक और दूसरे कीड़ों को दूर भगाने वाली जड़ी बूटियां और पौधे कौन से हैं और उनके हमले से निजात किस तरह हासिल की जाए।
तेजपुर में डीआरएल के वैज्ञानिक आधुनिक तकनीकों के प्रयोग से पता लगाते हैं कि बूटियों में कौन सा तत्व मच्छरों से बचाता है। बाद में इन्हें डिसपेंसर में भरकर जवानों और आम लोगों को दिया जाता है। डीआरएल के निदेशक डॉ. आर बी श्रीवास्तव ने हमें चिट्ठियों का एक ढेर दिखाया। इनमें तमाम निजी कंपनियों ने डीआरएल से उसके उत्पादों की तकनीक मांगी है।
डीआरएल 9 मई को मच्छर भगाने वाले 5 उत्पाद बनाने की तकनीक वाणिज्यिक उत्पादन के लिए दे भी देगी। इसमें बूटियों से बना एक मलेरिया रोधी भी है, जिसे गुड नाइट की जगह इस्तेमाल किया जा सकेगा। डीआरएल यह मानने के लिए भी तैयार नहीं होती कि मलेरिया पर अनुसंधान जैसे कामों को अस्पतालों या स्वास्थ्य मंत्रालय के भरोसे छोड़ देना चाहिए।
डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं कि डीआएल के वैज्ञानिकों ने तकनीकी प्रशिक्षण और विश्लेषणात्मक सहयोग के लिए राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान के साथ गठबंधन किया है। लेकिन पूर्वोत्तर जैसे दुर्गम सीमावर्ती इलाकों में अनुसंधान करने के लिए केंद्र सरकार के संस्थान आसानी से तैयार नहीं होते। यही वजह है कि इन राज्यों की सरकारें भी अक्सर डीआरएल का ही मुंह ताकती हैं।
अरुणाचल प्रदेश में पानी की गुणवत्ता सुधारने का काम डीआरएल के पास है और त्रिपुरा सरकार की विज्ञान प्रदर्शनी में उसके मलेरिया संबंधी उत्पाद और उपकरण पहला पुरस्कार जीत चुके हैं। मजे की बात है कि यहां उसने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) को भी पछाड़ दिया।
डीआएल के कदम और भी आगे बढ़ चुके हैं। वह मशरूम की खेती भी इन राज्यों में युवाओं को सिखा रही है। 25 या 30 के समूह में उन्हें यह काम सिखाया जाता है और डीआएल का मानना है कि हरेक प्रशिक्षित युवा मशरूम की खेती शुरू कर कम से कम 30 स्थानीय लोगों को रोजगार दे सकता है। इससे उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने में मदद मिलती है और उग्रवादियों का असर यहां कम होता है।
