भारत का आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन (एबीडीएम) का मुफीद समय आ गया है लेकिन आगे की राह मुश्किलों से भरी लगती है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘इस पहल में भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है।’ हालांकि चुनौतियां इससे भी कई गुना हैं। डेटा-साझेदारी और योग्यता से लेकर बुनियादी ढांचे और गोपनीयता के मुद्दों पर स्पष्टता बनाने की आवश्यकता है। डिजिटल स्वास्थ्य पहल के जरिये न केवल मरीज और डॉक्टरों को पिछली इलाज की जानकारी आसानी से मिल जाती है बल्कि रोग का बेहतर इलाज मिल जाता है। इन डेटा का इस्तेमाल गांव या ब्लॉक स्तर तक के सरकारी स्वास्थ्य उपायों के लिए किया जा सकता है जिससे संभव है कि शुरुआती स्तर पर ही रोग की पहचान करने में मदद मिल जाए।
हालांकि, सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ उस प्रायोगिक परियोजना के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हैं जिसे छह केंद्र शासित प्रदेशों में राष्ट्रीय स्तर पर इस योजना की शुरुआत के मानक के रूप में चलाया गया था। प्रायोगिक परियोजना अगस्त 2020 में चंडीगढ़, लद्दाख, दादरा और नागर हवेली, दमन व दीव, पुदुच्चेरी, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप में शुरू की गई थी। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी ने कहा, ‘प्रायोगिकपरीक्षण में यह जरूरी नहीं है कि सभी गड़बडिय़ों का अंदाजा मिल जाएगा क्योंकि ये परीक्षण अपेक्षाकृत नियंत्रित परिस्थितियों में किए गए हैं जहां केंद्र सरकार का प्रशासन पर सीधा नियंत्रण होता है। जब इसे बड़े राज्यों में लागू किया जाता है तब हम नहीं जानते कि तंत्र कितनी अच्छी तरह काम करेगा या डेटा की गुणवत्ता उभर कर सामने आएगी।’
वैश्विक स्तर के उदाहरण भी बहुत उत्साहजनक नहीं हैं। ब्रिटेन जैसी परिपक्व अर्थव्यवस्था ने मजबूत राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा के लिए एक डिजिटल प्रणाली शुरू करने का असफल प्रयास किया ताकि देश भर के डॉक्टरों के लिए मरीजों का रिकॉर्ड सुलभ हो जाए। साल 2011 में इस कार्यक्रम को बंद कर दिया गया क्योंकि यह डॉक्टरों का भरोसा हासिल करने या डेटा-गोपनीयता के मुद्दों को ठीक करने में विफल रहा।
सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि डिजिटल स्वास्थ्य मिशन सही दिशा में उठाया गया एक कदम है और यह तभी कारगर हो सकता है जब अगर सरकार इसे व्यवस्थित तरीके से करती है। एक शीर्ष स्तर के निजी अस्पताल के प्रमुख ने कहा कि इस पहल से शुरुआत में परेशानी होगी और जमीनी स्तर पर इसके कारगर होने में कम से कम पांच साल लगेंगे। हालांकि, यह इतनी खराब बात नहीं हो सकती है। पूर्व स्वास्थ्य सचिव के सुजाता राव ने कहा, ‘यह महत्त्वपूर्ण है कि एक वर्ष में फैले स्थानिक और जनसांख्यिकीय आयामों का जायजा लेने के लिए प्रौद्योगिकी का परीक्षण चार से पांच अलग-अलग जगह और सामाजिक आर्थिक समूहों में किया जाता है। स्वास्थ्य सेवा कोई, राशन कार्ड या बैंक क्रेडिट कार्ड की तरह नहीं है।’
निजी अस्पतालों को अभी इससे जुडऩा बाकी है और उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि यह तंत्र कैसे काम करेगा और क्या उन्हें अतिरिक्त निवेश करना होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि अतिरिक्त लागत का मतलब मरीज की देखभाल की लागत में भी जरूर वृद्धि होगी। कई निजी अस्पताल चेन में पहले से ही इलेक्ट्रॉनिक मरीज रिकॉर्ड सिस्टम हैं जिस तक निजी नेटवर्क के जरिये पहुंच बनाई जा सकती है। मणिपाल अस्पताल के प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी दिलीप जोस कहते हैं, ‘हमें यह समझने की जरूरत है कि हमारे डेटा निगरानी तंत्र और एबीडीएम के बीच किस तरह की पोर्टेबिलिटी है। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत में यह एक बड़े अस्पताल चेन से एक निजी डॉक्टर के क्लिनिक में पोर्टेबिलिटी किस तरह सुगम होगी। क्या किसी डॉक्टर को भी तंत्र का इस्तेमाल करने के लिए निवेश करने की आवश्यकता होगी।’ विशेषज्ञों का कहना है कि डॉक्टरों के लिए डेटा-एंट्री इंटरफेस का इस्तेमाल सहज और अनुकूल होना चाहिए ताकि वे मरीजों के डेटा की कुंजी बना सकें। यह विशेष रूप से तब अधिक आवश्यक होगा अगर इस योजना में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (या आशा) को शामिल करना होगा और ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को कवर करने की जरूरत होगी।
पूरे तंत्र को लेकर स्पष्टता की जरूरत के साथ ही मुख्य रूप से गोपनीयता को लेकर भी चिंताएं हैं।
