2021 में जेल में बंद लोगों में दोबारा अपराध करके आए दोषियों की संख्या कई वर्षों बाद सबसे कम है। 2021 में दोषी ठहराए गए 1,04,735 लोगों में से कुल 3,333 अपराधी ऐसे लोग थे जिन्हें पहले से ही दोषी ठहराया गया था। इनकी संख्या कुल अपराधों की 3.2 फीसदी रही। गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में जेलों को और पुनर्वासित करने की वकालत की और एक नए जेल कानून पर काम करने की बात कही।
अपराधी द्वारा फिर से अपराध दोहराने की दर या पहले कैद किए गए दोषियों का अनुपात, 2020 में 4.7 फीसदी और 2019 में यह 3.6 फीसदी था। हाल के कुछ वर्षों में 2016 में 2.8 फीसदी के साथ सबसे कम था।
नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर क्रिमिनोलॉजी ऐंड विक्टिमोलॉजी रिसर्च के असिस्टेंट एस. मणिकंदन और रक्षा शक्ति यूनिवर्सिटी के अपराध- विज्ञान विभाग के प्रोफेसर के.जयशंकर के द्वारा 2018-19 में किए गए अध्ययन ‘तिहाड़ जेल में कैदियों के बीच पुनरावृत्ति और योगदान कारक: एक गुणात्मक अध्ययन’ के मुताबिक ऐसे अपराधों की कम दर इसलिए नहीं है क्योंकि भारत में पुनर्वास तकनीक या देखभाल कार्यक्रम अच्छी तरह से चल रहा है, बल्कि इसका कारण कम सजा दर है।
अध्ययन में कहा गया है कि 2016 में दोषसिद्धि दर 46.8 फीसदी थी और लंबित मामलों की संख्या 87.4 फीसदी थी। 2021 के हालिया राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, दोषसिद्धि दर 57 फीसदी है जबकि लंबित मामले बढ़कर 91.2 फीसदी हो गए हैं। राज्यवार संख्या अपराधों के दोहराव में बड़े अंतर को दर्शाती है।
यह दिल्ली में 28.5 फीसदी, मिजोरम में 15.3 फीसदी और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के लिए 8.8 फीसदी है। उत्तराखंड में यह 0.8 फीसदी, तमिलनाडु में 0.2 फीसदी और मध्य प्रदेश में 0.1 फीसदी है, ये कुछ ऐसे राज्य हैं जहां बार-बार अपराधी की सजा की रिपोर्ट करने वालों की कम है। अरुणाचल प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, गोवा और गुजरात सहित 12 क्षेत्रों में दोबारा किए गए अपराधों की संख्या शून्य है।
वैश्विक अध्ययनों से यह बात साबित हो गई है कि लोगों को जेल भेजने से यह जरूरी नहीं है कि सोसाइटी की सुरक्षा में सुधार आ जाए। ‘प्रिजन्स डू नॉट रिड्यूस रिसिडिविज्म: द हाई कॉस्ट ऑफ इग्नोरिंग साइंस’ नामक 2011 के एक अध्ययन के अनुसार, इससे ज्यादा लोग अपराध में संलिप्त हो सकते हैं। इस अध्ययन में सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के फ्रांसिस टी. कलन, उत्तरी केंटकी विश्वविद्यालय के चेरिल लेरो जोंसन और कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी के डेनियल एस. नागिन शामिल थे।
उन्होंने कहा कि हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि कुछ सबूतों के अनुसार कि कैदी बार-बार अपराध करना बंद कर देता है और कम से कम कुछ ऐसे मामले भी आए हैं जिनमें आपराधिक प्रभाव पाया गया हो। इस अध्ययन के नीतिगत निहितार्थ महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इसका मतलब है कि अक्षमता के माध्यम से बचाए गए अपराध के अलावा हिरासत प्रतिबंधों के उपयोग से समाज को कम सुरक्षित बनाने का अप्रत्याशित परिणाम हो सकता है।
2011 के एक दूसरे अध्ययन के मुताबिक किया गया जिसका शीर्षक जेल की स्थिति और पुनरावृत्ति था। इसमें नेपल्स विश्वविद्यालय के फ्रांसेस्को ड्रैगो, रॉबर्टो गैल्बिएती (सीएनआरएस इकोनॉमिक्स एंड साइंसेज-पीओ) और बर्गामो विश्वविद्यालय के पिएत्रो वर्टोवा सहित कई लेखकों ने एक सुझाव दिया कि अत्यंत कठोर सजा भी कम अपराध की ओर इशारा नहीं करती हैं।
उन्होंने कहा, ‘अध्ययन में ऐसा कोई मजबूत सबूत नहीं मिला है जिससे यह कहा जा सके कि जेल की सख्ती से कोई निवारण निकल पाएगा। जेल की कठोर सजा के उपाय पुनरावृत्ति की संभावना को कम नहीं करते हैं। इसके बजाय कठोर जेल की स्थिति रिहाई के बाद आपराधिक गतिविधि को बढ़ाती है, हालांकि उनका हमेशा सटीक अनुमान नहीं लगाया जाता है।’
