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  ताजा खबरें  ब्याज दर की कड़वी गोली से मुनाफे की घटती मिठास
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ब्याज दर की कड़वी गोली से मुनाफे की घटती मिठास

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता | नई दिल्ली—August 11, 2008 2:44 AM IST0
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सुरसा की तरह मुंह फैलाती बेलगाम महंगाई को काबू में करने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक समय-समय पर चाबुक चलाते नजर आए।


इससे महंगाई रूपी राक्षस तो मरा नहीं, उलटे अर्थव्यवस्था की रीढ़ छोटी-मझोली कंपनियां व कारोबारी जरूर कराहने लगे। जैसे-तैसे कर्ज का जुगाड़ करने वाले इन कारोबारियों के लिए रिजर्व बैंक की कड़ी मौद्रिक नीति दम निकलने वाली प्रतीत हो रही है।

29 जुलाई को मौद्रिक नीति की समीक्षा के दौरान शीर्ष बैंक ने बाजार से करीब 8000 करोड़ रुपये की नकदी सोंखने के लिए सीआरआर और रेपो दरों में आधा-आधा फीसदी का इजाफा करने की घोषणा की है, जो 30 अगस्त से लागू होगा। हालांकि इससे पहले भी केंद्रीय बैंक ने सीआरआर और रेपो रेट में इजाफा करने के हथियार को आजमा चुका था, लेकिन महंगाई पर इसका खास असर होता नहीं दिखा।

मई महीने के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़ों में विकास दर 4 फीसदी से भी कम थी, जो चौंकाने वाले थे, क्योंकि यह गिरावट उम्मीद से कहीं ज्यादा थी। यही नहीं, ये आंकड़े इस बात की ओर भी इशारा करते नजर आए कि महंगाई पर नियंत्रण के लिए मौद्रिक नीतियों में जो कड़ाई बरती जा रही है, उसका असर विकास की रफ्तार पर पड़ रहा है, जबकि महंगाई पर अंकुश लगाने में यह कारगर होता नहीं दिख रहा है।

विशेषज्ञों का कहना है कि जिस महंगाई की दुहाई देकर कठोर मौद्रिक नीति अपनाई जा रही है, वास्तव में उसकी वजह बाजार में तरलता से कहीं ज्यादा लचर आपूर्ति व्यवस्था है। उनके मुताबिक, पहले ही कच्चे माल की किल्लत और महंगाई की मार झेल रहे छोटे-मझोले कारोबारियों को राहत देने के बजाय सरकार ने उनकी परेशानी और बढ़ा दी है।

कारोबारियों का कहना है कि अगर ब्याज दर में एक फीसदी का भी इजाफा होता है, तो 3-4 लाख रुपये का कर्ज लेने पर करीब 1500 रुपये अतिरिक्त मासिक भुगतान करना पड़ रहा है। इसकी वजह, उनका मुनाफा काफी घट गया है। यही वजह है कि कई राज्यों में कारोबारियों ने मजबूरन अपना धंधा समेटना शुरू कर दिया है। इससे जहां देश की विकास दर मंद पड़ने की आशंका है, वहीं लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा।

विश्व बैंक के मुताबिक, किसी भी देश के सकल घरेलू उत्पाद में छोटे-मझोले उद्योगों की भागीदारी तकरीबन 35 फीसदी होती है। यही नहीं, कुल निर्यात में इन उद्योगों की भागीदारी भी करीब 35-40 फीसदी है। ऐसे में छोटे उद्योगों पर संकट का तात्पर्य है-जीडीपी में सेंध और विकास दर की मंद रफ्तार। पंजाब-यूपी-महाराष्ट्र की बात करें, तो इन राज्यों में देश के कुल छोटे-मझोले उद्योगों की संख्या तकरीबन 70-75 फीसदी है। जिनमें ज्यादातर उद्योग पूंजी के लिए कर्ज पर निर्भर हैं।

ऐसे में बैंकों से ऊंची दरों पर कर्ज मिलने से उनका मुनाफा घटना लाजिमी है। यही नहीं, कई कारोबारियों को तो समय पर बैंकों से कर्ज तक नहीं मिल पाता है और उन्हें महाजनों-साहूकारों की शरण में जाना पड़ता है, जो अधिक दरों पर कर्ज देते हैं। ऐसे में अगर बैंक कर्ज की दर बढ़ा देता है, तो महाजन ब्याज दरों में बैंकों की अपेक्षा दोगुना वृद्धि कर देंगे, जिन्हें चुकाना कारोबारियों के लिए आसान नहीं होगा।

विशेषज्ञों का कहना है कि कर्ज की दर बढ़ने से कई इकाइयां अपनी विस्तार योजनाओं को ठंडे बस्ते में डालने पर मजबूर हो रही हैं, वहीं कईयों के कारोबार पर ताला जड़ चुका है। सच तो यह है कि कर्ज की दर बढ़ने से इकाइयों की लागत बढ़ जाती है, जिससे छोटे कारोबारी बड़ी कंपनियों का मुकाबला नहीं कर पाते हैं। वहीं चीन कंपनियों के सस्ते उत्पादों से भी उन्हें कड़ी टक्कर मिल रही है।

खासकर, ऑटो-इलेक्ट्रॉनिक्स और दवा कारोबारियों को। ऐसे में छोटे कारोबारी इनसे प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। दरअसल, बड़ी कंपनियां अन्य स्रोतों से भी धन की व्यवस्था कर लेती हैं, लेकिन छोटे कारोबारियों के लिए कर्ज का अन्य स्रोत भी नहीं होता है। महंर्गाई को काबू में करना अच्छी बात है, लेकिन विकास और छोटे-मझोले कारोबरियों को इसके लिए बली का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए।

सरकार को इनका भी ध्यान रखना होगा। एक मर्ज को कम करने के लिए दूसरी बीमारी को निमंत्रण देना कतई उचित नहीं होगा। अगर ऐसा हुआ तो विकास की जो सुनहरी तस्वीर सजोई जा रही है, वह चकनाचूर हो सकती है। बहरहाल, इस मुद्दे पर व्यापार गोष्ठी के तहत बिजनेस स्टैंडर्ड को पाठकों और विशेषज्ञों की ढेरों प्रतिक्रियाएं मिलीं। इनमें से ज्यादातर का यही कहना था कि कठोर मौद्रिक नीति से छोटे-मझोले कारोबारियों की मुश्किलें और बढेंगी, वहीं विकास की रफ्तार पर भी अंकुश लगने का खतरा है।

sweetness of profit is reducing from bitter tablet of interest rates
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