पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के करीबी सहयोगी रहे, कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष अहमद पटेल का बुधवार को 71 साल की उम्र में इंतकाल हो गया। उन्होंने पार्टी में ऐसा खालीपन छोड़ दिया है जिसे कोई नहीं भर सकता है। यह बात अतिरेक लग सकती है लेकिन आज पार्टी में कुछ ही लोग ऐसे हैं जो किसी मुश्किल वक्त में एक पुल की तरह समाधान बनने में सक्षम हैं और पटेल ने इस लिहाज से खुद को कई बार साबित किया था।
अहमद पटेल जब 1977 में सांसद बने थे तब वह महज 28 साल के रहे होंगे। कांग्रेस का सफाया होने ही वाला था लेकिन गुजरात से लोकसभा में भेजे गए सांसदों की बदौलत स्थिति संभली थी। वह अपने पैतृक जिले भरूच से निर्वाचित हुए थे जो एक ऐसा क्षेत्र है जहां से अब वह भले ही न चुने जाते हों लेकिन वहां लोग पटेल को काफी सम्मान देते हैं। हालांकि भाजपा पिछले दो दशकों से इस संसदीय क्षेत्र की पांच विधानसभा सीटों में से चार सीटें अपने खाते में रखने में सफल रही है।
जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई और राजीव लोकसभा में 400 से अधिक सीटों के बहुमत के साथ 1984 में सत्ता में आए तब पटेल ने राजीव के साथ उस वक्त अपना संपर्क मजबूत किया जब पूर्व प्रधानमंत्री, पार्टी महासचिव से ज्यादा हैसियत नहीं रखते थे और उन्हें पार्टी के नेता के रूप में तेजी से बढ़ाया गया था। राजीव ने 1986 तक कांग्रेस के पुराने नेताओं की जगह अपने परिचित युवाओं को लाने की अपनी योजना को औपचारिक रूप दे दिया था। पटेल को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में वापस गुजरात भेज दिया गया। इसके बाद राजीव की हत्या हो गई और उनके ज्यादातर समर्थकों की निष्ठा पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की तरफ बढऩे लगी। हालांकि पटेल लोकसभा चुनाव हार गए थे और साथ ही गुजरात में भी पार्टी में उनके पास कोई पद नहीं था। हालात ऐसे बन गए कि दिल्ली में न तो उनका कोई घर नहीं था, न कोई संरक्षक था। उनकी मित्र नजमा हेपतुल्ला ने मीना बाग में उनके लिए एक अतिथि आवास की व्यवस्था की थी। लेकिन उन्हें तीन दिन में ही उसे खाली करने का नोटिस दिया गया, वह भी ऐसे वक्त में जब उनका बेटा और बेटी दोनों ही बोर्ड की परीक्षा दे रहे थे। यह सब एक ऐसी सरकार द्वारा किया गया था जिसका नेतृत्व कांग्रेस के प्रधानमंत्री कर रहे थे। उस वक्त के बाद से ही पटेल ने संकल्प लिया कि वह नरसिंह राव की सरकार से न तो कोई मदद मांगेंगे और न ही स्वीकार करेंगे।
हालांकि, उन्होंने जवाहर भवन ट्रस्ट के सचिव पद को स्वीकार किया जो राजीव द्वारा शुरू की गई एक परियोजना थी और इसकी परिकल्पना कांग्रेस के एक थिंक टैंक के रूप में की गई थी लेकिन उनकी हत्या के बाद के वर्षों में सोनिया ने इसे दृढ निश्चय के साथ आगे बढ़ाने की ईमानदार कोशिश की। जवाहर भवन परिसर में मौजूद राजीव गांधी फाउंडेशन को तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा पेश किए गए पहले बजट में 20 करोड़ रुपये के खर्च का आवंटन किया गया जिसे सोनिया ने ठुकरा दिया था। लेकिन पटेल ने ही पैसे जुटाने के लिए अथक परिश्रम किया और ठेकेदारों तथा अन्य लोगों के पीछे लगकर इस परियोजना का काम पूरा कराया। जैसा कि कल्पना की जा सकती है कि इस नियुक्ति ने उन्हें सोनिया तक पहुंचने का एक अनूठा मौका दिया जो अन्य कांग्रेसियों को नहीं मिल सका। इस स्थिति के बावजूद बाद के वर्षों में पटेल अकेले ही रहे। लेकिन बाद के वर्षों में पार्टी के कई सारे पदों पर रहने की वजह से, उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता और कांग्रेस के ढांचे के बारे में उनकी समझ की वजह से उन्होंने जो एक बड़ा नेटवर्क बनाया था, उससे उनका अकेलापन कम हुआ। 1993 में तिरुपति में पार्टी सम्मेलन के दौरान इसका स्पष्ट अंदाजा मिला जहां वर्षों बाद कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) के लिए चुनाव कराए गए थे। सबसे ज्यादा वोट पाने वाले वह तीसरे व्यक्ति थे और संभवत: यह पहले किए गए एहसानों का नतीजा था। 1996 से 2000 तक का दौर कांग्रेस में काफी अस्थिरता का दौर रहा। 1999 में जितेंद्र प्रसाद ने कुछ समय के लिए नरसिंह राव का राजनीतिक सलाहकार रहते हुए पार्टी अध्यक्ष के लिए सोनिया गांधी को चुनौती देने का फैसला किया। नतीजा निश्चित तौर पर स्पष्ट ही रहा। पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी ने अहमद पटेल को अपना राजनीतिक सलाहकार नियुक्त किया था।
गांधी परिवार से पटेल की निकटता को नकारा नहीं जा सकता था। लेकिन अन्य लोगों की तुलना में उन्होंने इन संबंधों का इस्तेमाल करते हुए निजी कारोबार में इसका फायदा उठाने से परहेज किया। जिन लोगों ने उनकी सक्रियता देखी है उनका कहना है कि वह कुछ फोन कॉल कर 30 मिनट में गुजरात में 30 करोड़ रुपये जुटा सकते थे। कई संवाददाता इस बात का गवाह रहे हैं कि उनके कार्यालय के माध्यम से बोरी भरी नोटों की गड्डियां चुनाव अभियानों के लिए जाती रही हैं। उन्होंने मंत्री पद के सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया
और केवल संगठन के लिए काम करने का विकल्प चुना।
केवल दो ऐसे मौके आए जब उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की बात उठाई गई थी। हालांकि उन्होंने यह घोषणा की कि अगर वे साबित हो गए तो वह राजनीति छोड़ देंगे। कुछ दशक पहले मिजोरम के पूर्व राज्यपाल स्वराज कौशल ने उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था और दूसरा, 2009 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार से जब वामदलों ने समर्थन वापस लिया तब उन पर कुछ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए पैसे की लेन-देन में उनकी भूमिका को लेकर सवाल उठा था। पटेल को इस घटना की जांच में शामिल होने वाली समिति ने दोषमुक्त करार दिया था। नरेंद्र मोदी सरकार ने दूसरे चरण के कार्यकाल में पटेल के परिवार को धनशोधन मामले और प्रवर्तन निदेशालय की जांच में उलझाने की कोशिश की। जब तक वह बीमार नहीं पड़े थे तब पटेल को इस बात का भरोसा था कि वह इससे उबर जाएंगे। उनके परिवार का कोई अन्य सदस्य राजनीति में नहीं है।
वह व्यक्तिगत रूप से सादगी पसंद करने वालों में से थे और वह दोस्त बनाने या लोगों को प्रभावित करने के लिए शराब, कबाब या बिरयानी पार्टी नहीं किया करते थे। पटेल विशेष रूप से समृद्ध व्यक्ति नहीं थे। उनकी संपत्ति विशेष तौर पर उनकी पत्नी की ही है जिनका परिवार भरूच में स्थानीय जमींदार था। उन्होंने ही अंकलेश्वर और विशेष रूप से जामनगर रिफाइनरी में रासायनिक उद्योग के विकास को प्रोत्साहित किया जिसकी वजह से ही वह अंबानी परिवार के बेहद करीब हो गए और धीरूभाई अंबानी के साथ-साथ उनके बेटे मुकेश अंबानी से भी उनके ताल्लुकात अच्छे रहे।
राहुल ने जब पदभार संभाला था तब आमतौर पर यह मान लिया गया था कि संगठन में आमूलचूल परिवर्तन किया जाएगा। लेकिन जनार्दन द्विवेदी जैसे वरिष्ठों को संगठन में हाशिये पर लाने के बावजूद पटेल की जगह बरकरार रही। वह सोनिया वाले कांग्रेस और राहुल के कांग्रेस के बीच एक सहज सूत्रधार थे। उनके निधन के साथ कांग्रेस की कई तरह से क्षति हुई है जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती है।
