अब लोगों की आम बातचीत में मास्क शामिल नहीं है। पहले भी ज्यादातर लोग नाक के नीचे ही मास्क लगाते थे। इसमें कोई शक नहीं है कि मास्क न लगाने के चलन ने भी कोविड महामारी की दूसरी भयानक लहर में योगदान दिया है। लोग अस्पताल में बेड और ऑक्सीजन की भारी कमी की वजह से जूझ रहे हैं, ऐसे में मास्क पर चर्चा करना थोड़ा अजीब लग सकता है। लेकिन येल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर मुशफिक मुबारक के मुताबिक यह एक भयानक गलती हो सकती है। उनका कहना है, ‘दक्षिण एशिया में टीकाकरण से एक प्रतिरोधक क्षमता तैयार करने में अभी वक्त लग सकता है तब तक मास्क सबसे जरूरी है।’
मुबारक और उनकी टीम ने अर्ध ग्रामीण और ग्रामीण क्षेत्रों में मास्क के इस्तेमाल का अध्ययन करने के लिए बांग्लादेश में करीब 350,000 लोगों का एक बड़ा आरसीटी अध्ययन किया है। इस अध्ययन की उत्साहजनक बात यह है कि लोगों को अपने मास्क लगाने के लिए आश्वस्त किया जा सकता है। यह एक व्यापक अध्ययन है जिससे कई निष्कर्ष निकलते हैं जिनमें लागत की भारी बचत भी शामिल है। लेकिन इसका बुनियादी निष्कर्ष काफी प्रभावशाली है जिसके मुताबिक केवल टीकाकरण के बलबूते महामारी की मौजूदा दूसरी लहर नहीं रोकी जा सकती है। मास्क के इस्तेमाल को देश के सुदूर इलाकों में भी बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए। शहरों में महामारी की रफ्तार थोड़ी धीमी होने के साथ ही छोटे कस्बों और गांवों में इसकी रफ्तार बढ़ेगी।
राज्यों के अधिकारी इनके तर्कों को सुनते नजर आ रहे हैं। बिहार, गुजरात और तेलंगाना में राज्य सरकारों और स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों ने लोगों को लोगों को मास्क पहनने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया है। इस रणनीति का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसकी लागत काफी कम है। स्वरोजगार महिला संगठन ‘सेवा’ ने अपने 20 लाख सदस्यों वाले संगठन के लिए इस सबक को अपनाया। मुबारक ने बताया, ‘राज्य सरकारों की तुलना में ‘सेवा’ ने अगले ही हफ्ते हमें जवाब दे दिया।’ कोविड के प्रभाव की वजह से राज्य सरकार के स्तर पर भी कुछ हिचक थी। बिहार स्वास्थ्य विभाग में वरिष्ठ अधिकारियों की अच्छी-खासी तादाद बीमार थी। ‘सेवा’ ने गुजरात और राजस्थान में परीक्षण शुरू कर दिया।
येल विश्वविद्यालय, स्टैनफर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं के साथ-साथ इनोवेशन फॉर पॉवर्टी एक्शन से जुड़े लोग और स्थानीय भागीदारों ने पाया कि लोगों के टोकने पर भी मास्क नाक के किनारे तक ही रहता है। लोग एक दूसरे को देखते हैं और इस साल के शुरू में किए गए बड़े अध्ययन से भी उन्होंने परहेज किया। इस महीने एनसीएईआर में एक सेमिनार में रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए मुबारक ने कहा कि समय-समय पर खुद से मास्क की निगरानी करना भी कारगर होता है। जमीनी आधार तैयार करने के लिए शोधकर्ताओं ने अध्ययन में शामिल गांवों में प्रभावी लेकिन सस्ते सर्जिकल मास्क बांटे थे। इसके अलावा लोगों को मशहूर हस्तियों मसलन बांग्लादेश क्रिकेट के मशहूर खिलाडिय़ों के वीडियो भी दिखाए गए जिसमें वे लोगों से मास्क पहनने का आग्रह कर रहे हैं। मस्जिदों में यह संदेश देने के लिए इमामों की मदद ली गई।
गांवों को नियंत्रण समूहों में विभाजित किया गया था जहां कोई फॉलोअप कार्रवाई नहीं बनाम इलाज वाला समूह था और यहां जांच टीमें यह जानने के लिए आई कि शुरुआती प्रचार-प्रसार के बाद कितने फीसदी लोग अब भी मास्क का इस्तेमाल कर रहे थे।
जब स्थानीय बाजारों में इन गांवों के लोग बिना मास्क के नजर आए तब उन्हें मास्क लगाने का अनुरोध करने के साथ ही मौके पर ही एक मास्क देने की पेशकश की गई अगर वे मास्क ले जाना भूल गए हों ताकि वे इस सबक को भविष्य में याद रखें। इस तरह इन गांवों में मास्क पहनने की रफ्तार बढ़ गई। इन नियंत्रण समूह गांवों के औसत 13 फीसदी के मुकाबले यह तादाद करीब तीन गुना बढ़कर 42 फीसदी हो गई। मस्जिदों में यह तादाद सबसे ज्यादा 49 फीसदी हो गई। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि राज्य द्वारा दंड या अन्य बलपूर्वक कार्रवाई से लोगों के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया। जब शोधकर्ताओं ने उन लोगों से बात की जिन्हें निगरानी का काम सौंपा गया था तो अंदाजा हुआ कि वे लंबी अवधि के लिए कोई बदलाव नहीं ला पाए।
यह रुझान परीक्षण के दस हफ्ते तक भी कायम रहा जबकि मास्क को बढ़ावा देने की कवायद आठ हफ्ते में खत्म हो गई। कोविड की 12 हफ्ते की लहर को देखते हुए यह एक उल्लेखनीय सबक है। ऐसे में इस बात का अंदाजा उन्होंने कैसे लगाया कि गांव वाले मास्क पहनना जारी रख रहे हैं?
उन्होंने कहा कि परीक्षण के दौरान और बाद में भी शोधकर्ता निर्धारित सार्वजनिक स्थानों पर जाएंगे और अपने ऐप को ट्रैक कर मास्क पहनने के रुझान के पैटर्न को समझेंगे। यह सुनिश्चित करने के लिए कि स्थानीय लोग उन्हें नहीं पहचानें इसके लिए शोधकर्ताओं के अलग-अलग समूहों ने प्रचार-प्रसार किया और फॉलोअप किया।
वेलूर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में माइक्रोबायोलॉजी की प्रोफेसर गगनदीप कांग ने एनसीएईआर की चर्चा में कहा कि भारतीय आबादी कहीं अधिक विषम है, मुमकिन है कि वे एक ही तरीकों पर प्रतिक्रिया न दें। हालांकि मुबारक ने महसूस किया कि अगर प्रयोग ग्रामीण इलाकों के बाजारों या शहर के मॉल में किया जाता तो इसे सुलझाया जा सकता है। दोनों सार्वजनिक मंच है जहां लोग सार्वजनिक तौर पर शर्मसार हो सकते हैं और उनके व्यवहार में लंबे समय में बदलाव लाना संभव था।
उन्होंने कहा, ‘वैज्ञानिक साक्ष्य कोविड-19 के मुख्य रूप से हवा जनित संचरण की ओर इशारा कर रहा है। इससे पता चलता है कि सरकारें ऑक्सीजन की आपूर्ति की व्यवस्था करने, अस्पताल की क्षमता बढ़ाने और टीके की उपलब्धता बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं लेकिन मास्क पहनने की प्रभावी रणनीतियों को भी तत्काल गंभीरता से लेना चाहिए।’ एनसीएईआर के महानिदेशक शेखर शाह ने भी कहा कि थिंक टैंक राज्यों के सभी स्वास्थ्य विभागों के सबक का विस्तार करने की योजना बना रहा है। उनका कहना है, ‘सचिवों मौजूदा संकट से निपटने के लिए बुरी तरह से फंसे हुए हैं हालांकि ज्यादातर लोगों का कहना है कि वे यह सीखना चाहते हैं कि वे अपने राज्यों में इस पर कैसे अमल करें।’
