अपनी विभिन्न मांगों को लेकर देशभर के ट्रांसपोर्टर्स के काम नहीं करने से आम आदमी धीरे-धीरे प्रभावित होने लगा है। इस हड़ताल से रोजाना भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 10 अरब रुपये का नुकसान भी झेलना पड़ सकता है।
हड़ताल की हवा निकालने के लिए सरकार रेलवे की सहायता लेने की बात भी कर रही है, लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि रेल ट्रकों की कमी को कैसे पूरी करेंगी और पिछले कुछ सालों से ट्रांसपोर्टर्स बार-बार हड़ताल पर क्यों जा रहे हैं।
पिछली बार 2 जुलाई 2008 को जब ट्रक ट्रांसपोर्टरों ने हड़ताल की थी तो सरकार ने ट्रांसपोर्ट की समस्यों को सुलझाने के लिए एक कमेटी बनाने का वादा किया था जिसको छह महीने के अंदर रिपोर्ट सौंपनी थी लेकिन छह महीने बीत जाने के बाद भी कमेटी का गठन तक नहीं किया जा सका।
वर्ष 1997 में ट्रांसपोर्ट की हड़ताल सर्विस टैक्स के मुद्दे पर हुई थी जो पहली बार ट्रांसपोर्ट उद्योग पर लागू किया जा रहा था। तब सर्विस टैक्स वापस ले लिया गया और हड़ताल खत्म हो गई, लेकिन 2004 में सरकार ने एक बार फिर से सर्विस टैक्स के दायरे में इन्हें लाने की कोशिश की।
इस बार भी ट्रांसपोर्टर हड़ताल पर चले गए, नतीजतन सरकार ने ट्रांसपोर्ट पर सर्विस टैक्स न लगा कर सर्विस प्रोवाइडर पर टैक्स लागू कर दिया। 2008 में तक फिर से सर्विस टैक्स का जिन्न ट्रांसपोर्टर को सताने लगा और हड़ताल हो गई।
बाम्बे गुड्स ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन के प्रवक्ता महेन्द्र आर्य कहते हैं कि पिछले 10-12 साल से समस्या वही की वही है, सरकार वादा करती है और मामला शांत होने के बाद अपने वादे को भूल जाती है। सच पूछिए तो हड़ताल से सबसे ज्यादा नुकसान ट्रांसपोर्टर्स को होता है लेकिन मजबूरी में हमें चक्का जमा जैसे कदम उठाने पड़ते हैं।
ट्रांसपोर्ट सचिव ब्रम्ह् दत्त के बायन से लगता है कि सरकार हड़ताली ट्रक ट्रांसपोर्टर्स के आगे झुकने को तैयार नहीं है। बल्कि वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में रेलवे से जरूरी चीजों की ढुलाई कराने की योजना बना रही है।
ट्रासपोर्टर्स इस बयान को सिर्फ मुद्दे से बहकाने वाला ही बयान मान रहे हैं क्योंकि रेलवे बिना ट्रक के अधूरी है।