सुख के सब साथी, दुख में न कोय…
जिस संस्कृति से नाता तोड़कर पाकिस्तान जन्मा, उसी संस्कृति में सदियों से रची-बसी इस लोकोक्ति की समझ शायद अब जाकर ही उसे हो पाई होगी।
क्योंकि मंदी की आग से तड़प रहे पाकिस्तान को बचाने वाला आज कोई नहीं है। इससे पहले कि वह इस आग में जलकर भस्म हो जाए, उसे इतनी बड़ी दुनिया के बीच अपने एक अदद दोस्त को ढूंढ़ निकालना है। और इसके लिए उसके पास वक्त भी बेहद कम है, यानी छह दिन। वरना दिवालिया होने वाले दुनिया के पहले मुल्क आईसलैंड के बाद अब पाकिस्तान की ही बारी है।
हैरत की बात तो यह है कि अमेरिका, सऊदी अरब और भाई जैसा दोस्त करार देने वाला चीन, जो कि दशकों से उसके साथी रहे हैं, लगातार उनके दर पर जा-जाकर गुहार करने के बावजूद उसे बचाने के लिए कोई सामने नहीं आया। शायद इसकी वजह यही है कि उन्हें इस दोस्ती से ज्यादा अपने घर तक पहुंच चुकी मंदी की आग बुझाने की दरकार ज्यादा है।
यही नहीं, वर्ल्ड बैंक ने भी उसे हाल ही में 30 करोड़ डॉलर की इमदाद रोक कर करारा झटका दे दिया, जो कि उस 1.5 अरब डॉलर की मदद की एक किश्त थी, जिसे बैंक पाकिस्तान की बीमार अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए देने वाला था। मदद रोकने के पीछे उसकी दलील थी कि आईएमएफ ने इसको लेकर कड़ी आपत्ति जाहिर की थी।
लिहाजा अब उसके पास महज एक ही आस बची है, और वह है अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ)। पाकिस्तान को उससे तत्काल 4.5 अरब डॉलर की मदद चाहिए ताकि वह विदेशी कर्जों का भुगतान कर सके और 10 से 15 अरब डॉलर की रकम आयात के लिए जरूरी भुगतान के मद में चाहिए ताकि वह दिवालिया होने से बच सके।
फिलहाल उसके पास 4 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा ही बची है, जिससे केवल तीन हफ्ते की जरूरत पूरी की जा सकती है। अपनी बदहाली और सभी दोस्तों के दगा देने के बाद अंतत: आईएमएफ की शरण में वह झोली लेकर पहुंच भी चुका है। वह भी तब जबकि उसे अच्छी तरह से पता है कि यह मदद उसे कितनी भारी पड़ने वाली है। वह ऐसे कि इस कर्ज के एवज में उस पर ढेरों कड़ी शर्तें भी लगाई गई हैं।
मीडिया रपटों के मुताबिक, इनमें उसके रक्षा बजट में अगले 10 साल के लिए 30 फीसदी की कटौती, सरकारी महकमों के जंबो आकार को घटाने, कृषि पर कर और आईएमएफ की सीधी निगरानी में कर वसूली और बजट जैसी शर्तें शामिल हैं।
इधर कुआं, उधर वाली खाई ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के सामने इन शर्तों को मानने के सिवा कोई चारा भी नहीं है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि आखिर आतंकवाद के खिलाफ जंग में अमेरिका और पश्चिमी देशों के सबसे प्रिय मोहरे और परमाणु ताकत के रूप में दुनियाभर में चर्चित रहे पाकिस्तान की ऐसी दुर्दशा क्यों हुई?
वह भी तब, जबकि 2007 तक लगातार चार साल से उसकी आर्थिक विकास दर सात फीसदी के उच्च स्तर पर बनी हुई थी। यही नहीं, प्रति व्यक्ति 2942 डॉलर की सालाना आय वाले इस मुल्क का कराची स्टॉक एक्सचेंज तो पिछले साल तक दुनिया के तेजी से उभरते चंद बाजारों में शुमार था। इसके अलावा, टेलीकम्युनिकेशन, रियल एस्टेट और ऊर्जा जैसों क्षेत्रों में विदेशी निवेशकों की थैली से धन बरसात भी मूसलाधार थी।
विशेषज्ञ मानते हैं कि महज एक साल के भीतर ही उसकी चौतरफा खुशहाली को ग्रहण लगने की मुख्य वजह उसका कृषि से मुंह मोड़ना रहा है। काफी अरसे तक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर रहने के बावजूद उसने हाल के दशकों में इससे किनारा कस लिया था।
फिलहाल उसकी जीडीपी में अब कृषि का योगदान महज 20 फीसदी है जबकि सेवा क्षेत्र का 53 फीसदी। इसके अलावा, महंगाई का बढता दबाव और बेहद कम बचत दर भी इसके लिए घातक साबित हुईं। रही-सही कसर कच्चे तेल की कीमतों में लगी आग, रुपये में हो रही जबरदस्त गिरावट और खाद्यान्न की ऊंची कीमतों ने पूरी कर दी। ज्यादातर खाद्य उत्पाद को आयात करना ही कच्चे तेल के आयात बिल की तरह उसके गले की हड्डी बन गया।
वैसे आईएमएफ के सामने झोली फैलाने वालों में पाकिस्तान ही अकेला नहीं है। आईसलैंड को उसने 2 अरब डॉलर का कर्ज दिया है तो यूक्रेन को 16.5 अरब डॉलर का। हंगरी भी 12.5 अरब डॉलर की याचना कर रहा है। आईएमएफ के पास मंदी केलिए कुल 200 अरब डॉलर का फंड है।