लोक सभा चुनाव नजदीक हैं। आर्थिक मंदी से आम आदमी से लेकर उद्योगपति तक हलकान हैं।
हालात दिलचस्प हैं, कांग्रेस नीत यूपीए का शासन है, भाजपा सत्ता की प्रतीक्षा में है और तीसरा मोर्चा भी प्रधानमंत्री की हॉट सीट के लिए ललचा रहा है।
ऐसे में कौन सी पार्टी ऐसी है, जो देश की अर्थव्यवस्था को मंदी के अंधेरे से निकालकर उच्च विकास दर के प्रकाश पथ पर ला सकती है- आर्थिक समझ रखने वाले देशभर के प्रबुध्द मतदाताओं के लिए अहम सवाल है।
लिहाजा बिजनेस स्टैंडर्ड ने इस बार व्यापार गोष्ठी में इसी सवाल को उठाया। बड़ी तादाद में देश के कोने-कोने से प्रबुध्द पाठकों ने इसमें शिरकत की। कई पाठकों ने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अगुआई में तमाम आर्थिक सूरमाओं से लैस कांग्रेस नीत यूपीए को ही मंदी का महासंग्राम लड़ने में सबसे मुफीद बताया, जो मंदी का मर्ज मिटाने की दवा उसकी ही नीतियों में ढूंढ़ते नजर आए।
उनके अलावा, एक वर्ग ने वैश्विक मंदी से निबटने के लिए वैश्वीकरण से ही तौबा करने की वामपंथी नीतियों की भी जोरदार वकालत की। हालांकि दिलचस्प बात यह रही कि पाठकों में एक बड़ी संख्या उनकी भी रही, जो सभी दलों की आर्थिक नीतियों से निराश नजर आए।
उनकी राय कमोबेश यही थी कि आर्थिक मसलों पर इन सभी दलों में वह गंभीरता नजर नहीं आती, जो कि मंदी के इस दौर में होनी चाहिए। जहां तक विशेषज्ञों की राय का सवाल है, प्रख्यात आर्थिक विश्लेषक भरत झुनझुनवाला ने वामपंथी तौर-तरीकों का पक्ष लेते हुए मंदी से निपटने की सलाह दी है, सरकार चाहे जिस किसी दल की भी आए।
हालांकि उद्योग जगत की नुमाइंदगी करते हुए फिक्की के महासचिव अमित मित्रा ने जरूर किसी भी दल की आर्थिक नीतियों का समर्थन करने से गुरेज करते हुए सभी दलों को मंदी से निपटने के लिए जरूरी और कारगर कदमों की जानकारी देने का ही बीड़ा उठाया। उन्होंने साफ कहा कि चुनौतियां ढेरों हैं लिहाजा दल कोई हो, उसे फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा।
जरा याद करिए उस दौर को, ज्यादा पुरानी बात नहीं हुई, जब 90 के दशक में देश में आर्थिक बदहाली छाई हुई थी। आज महाशक्ति बन चुके हमारे मुल्क को उस वक्त सोना तक गिरवी रखना पड़ा था।
हालांकि दुखद बात यह है कि उस वक्त भी आम मतदाताओं और राजनीतिक दलों के बीच अर्थव्यवस्था चुनावी मुद्दा नहीं रहा था। इसमें इन दलों की गलती ही साफ नजर आती है, जिन्होंने हमेशा चुनाव में आर्थिक मसलों पर गंभीर बहस से परहेज किया।
यह गलती जून 2007 में ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी वाले देशों में शामिल हो चुके भारत के लिए इतनी भारी पड़ सकती है कि औंधे मुंह गिरते अमेरिका-यूरोप के विपरीत हो सकता है कि चांद तक तिरंगा फहराने वाले मुल्क को यह मंदी उस रसातल पर ले जाए, जहां से चांद तो क्या खुद अपने पैरों तले जमीन ही न नजर आ सकेगी।