उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक बार फिर सरकार गठित करने जा रही है। राज्य में पिछले 35 वर्षों में पहली बार किसी सतारूढ़ मुख्यमंत्री को लगातार दूसरा कार्यकाल मिला है। इस जीत के साथ ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं राज्य के संसदीय क्षेत्र वाराणसी का प्रतिनिधित्व करते हैं और पार्टी के सर्वाधिक संख्या में सांसद भी इसी राज्य से हैं। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले पार्टी को इस बार 59 सीटें कम मिली हैं मगर इसका मत प्रतिशत 39.67 प्रतिशत से बढ़कर 41.9 प्रतिशत हो गया है। यह इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता विरोधी रुझान भाजपा को खास नुकसान नहीं पहुंचा पाया है।
भाजपा और योगी आदित्यनाथ की जीत से एक बड़ा संकेत यह मिल रहा है कि भाजपा की राष्ट्रीय योजना में उत्तर प्रदेश का महत्त्व बहाल हो गया है। 2004 के बाद से भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश अपना पुराना रसूख खो बैठा था जब अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा सता में आने में विफल रहे थे। मोदी जरूर राज्य के वाराणसी संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधत्व करते हैं मगर वह अब भी अपने गृह राज्य गुजरात के लिए जाने जाते हैं। राज्य में चुनावी जीत ने 49 वर्षीय योगी आदित्यनाथ को भी भाजपा का शीर्ष नेतृत्व संभालने वाले अहम दावेदारों की अग्रिम पंक्ति में ला दिया है। अपनी स्वंतत्र सोच के बावजूद योगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के चहेते माने जाते हैं।
जब राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव प्रचार अभियान समाप्त हुआ तो भाजपा और आदित्यनाथ के सामने कई चुनौतियां थीं। भाजपा की राज्य इकाई को यह शिकायत थी कि आदित्यनाथ विधायकों, सांसदों और संगठन प्रभारियों से अधिक संवाद नहीं करते हैं। कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर में ऐसी शिकायतें और बढ़ गईं। पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों का विरोध प्रदर्शन बढ़ता जा रहा था जिससे इस क्षेत्र के संपन्न जाट किसानों के बीच भाजपा की लोकप्रियता कम होने का खतरा पैदा हो गया था। कृषि कार्यों की लागत बढऩे और आय कम होने और पिछले वर्ष नवंबर के अंत में यूरिया एवं अन्य उर्वरकों की कमी से किसानों के मन में रोष उत्पन्न हो गया था। सूक्ष्म सिंचाई व्यवस्था की कमी और फसलों को पशुओं से होने वाले नुकसान से किसानों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। इन सभी कारणों से भाजपा के समर्थक समझे जाने वाले छोटे एवं पिछड़े किसानों की माली हालत और खराब हो गई।
नोटबंदी से नुकसान झेल चुके व्यापारी एवं कारोबारी समुदाय को कोविड महामारी के बाद और चोट पहुंची। उनकी शिकायत थी कि राज्य सरकार ने उनका ‘नुकसान’ कम करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं। ये समस्याएं तो अपनी जगह थीं मगर विधानसभा चुनाव की तिथियां तय होने के बाद पार्टी से कुछ बड़े नेता निकल लिए। इससे 2014 के बाद पिछड़ी जातियों और दलितों को साथ लेकर बना भाजपा का राजनीतिक समीकरण बिगड़ता नजर आया।
मगर इन चुनौतियों से लडऩे में योगी आदित्यनाथ की व्यक्तिगत छवि काम आई। आदित्यनाथ को एक दृढ़ एवं अपराध एवं अनुचित कार्यों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने वाले व्यक्ति को रूप में देखा गया। लोगों को लगा कि मुख्यमंत्री का कोई पारिवारिकजीवन नहीं है और वह कभी भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देंगे। इसके अलावा भाजपा ने प्रधानमंत्री मोदी की शख्सियत को भुनाया और गृह मंत्री अमित शाह की चुनावी रणनीति भी काम आई। आरएसएस का संसाधन और समर्थन तो भाजपा को प्राप्त था ही।
आपराधिक छवि वाले मुस्लिम नेताओं अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी और आजम खान जैसे लोगों के खिलाफ सख्त रवैया शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने में सफल रहा। सरकार ने अवैध जायदाद को ध्वस्त करने के लिए बुलडोजर का इस्तेमाल किया और बाद में यह आदित्यनाथ एक ‘उपनाम’ बन गया।
कुछ हद तक समाजवादी पार्टी (सपा) के खिलाफ भाजपा की चुनावी रणनीति भी कारगर साबित हुई। भाजपा ने सपा को वंशवादी पार्टी के रूप में पेश किया और अखिलेश यादव और उनके परिवार पर मुस्लिमों और अपराधियों का मसीहा होने का आरोप लगाया।
कुल मिलाकर यह चुनाव योगी आदित्यनाथ और भाजपा की शानदार जीत की चर्चाओं तले दब सकता है मगर अखिलेश सपा के लिए 83 सीटें जोडऩे में सफल रहे। उनकी पार्टी को 2017 में 47 सीटें मिली थीं। पार्टी का मत प्रतिशत भी 21.82 प्रतिशत से बढ़कर 31.6 प्रतिशत हो गया। अखिलेश ने सामाजिक आधार बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) जैसे छोटे दलों के साथ गठबंधन किए।
चुनाव से पहले भाजपा से स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे नेता सपा में आए थे मगर वे अपने साथ वोट नहीं ला पाए। दूसरी तरफ भाजपा, उसकी सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) और निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल (निषाद) ने एक दूसरे को मत बटोरने में मदद की। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) मात्र एक सीट पर सिमट गई। बसपा के समर्थक समझे जाने वाले दलित मतदाताओं का वोट भाजपा और सपा में बंट गया। अगर सपा ने चुनाव से ठीक पहले अचानक सक्रिय होने के बजाय गंभीरता से विपक्ष की भूमिका निभाई होती तो शायद पार्टी के नतीजे और बेहतर होते।
