केंद्र सरकार ने मनरेगा के तहत मजदूरी का भुगतान तेज कर दिया है, वहीं एक सर्वे में पाया गया है कि उसमें शामिल करीब 45 प्रतिशत लोगों, जो मूल रूप से गरीब अस्थायी श्रमिक हैं, को अपनी मजदूरी निकालने के लिए बैंकों के कई चक्कर काटने पड़ते हैं।
सर्वे में शामिल 40 प्रतिशत लोग मजदूरी निकालने के लिए ग्राहक सेवा केंद्र या बैंकिंग कोरेस्पॉन्डेंट का सहारा लेते हैं, जिन्हें बायोमीट्रिक काम न करने के कारण कई बार जाना पड़ता है, जो 5 बार पैसे निकालने में कम से कम एक बार जरूर होता है।
यह सर्वे लिबटेक इंडिया द्वारा 1,947 मनरेगा मजदूरों के बीच तीन राज्यों आंध्र प्रदेश, राजस्थान और झारखंड में सितंबर से नवंबर 2018 के बीच कराया गया है, जिससे कामगारों को मजदूरी पाने में हो रही समस्या के बारे में जाना जा सके और यह स्पष्ट हो सके कि इस व्यवस्था में जमीनी स्तर पर क्या दिक्कतें हो रही हैं। रिपोर्ट आज जारी की गई है।
इस सर्वे को अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी बेंगलूरु के शोध केंद्र ने समर्थन दिया है।
लिबटेक इंडिया समाज विज्ञानियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियरों और डेटा साइंटिस्टों का एक समूह है, जो महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी ऐक्ट (मनरेगा) के विभिन्न पहलुओं पर एक दशक से कुछ राज्यों में काम कर रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘ग्रामीण बैंक बहुत भीड़ भरे हैं। इसके अलावा बैंक पंचायतों से बहुत दूर हैं। कई बार मनरेगा मजदूरों को अपनी मजदूरी निकालने के लिए कई चक्कर लगाने होते हैं। जमाम उपभोक्ताओं को एक निकासी के लिए कई बार जाना पड़ता है, इसकी वजह से उनके इस भागदौड़ की लागत बढ़ जाती है।’
सर्वे में अनुमान लगाया गया है कि मनरेगा मजदूर को मजदूरी निकालने के लिए डाकघर जाने में 3 राज्यों, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और झारखंड में कम से कम 6 रुपये लगते हैं, जबकि बैंक जाने की लागत 31 रुपये, सीएसपी/बीसी की लागत 11 रुपये और एटीएम जाने का खर्च 67 रुपये है।
सर्वे में यह भी पाया गया कि बैंकिंग मानकों व अधिकार के बारे में जागरूकता मनरेगा मजदूरों में बहुत कम है।
उदाहरण के लिए सर्वे में पाया गया कि इसमें शामिल करीब 75 प्रतिशत मजदूर नहीं जानते कि वे किसी भी बैंक शाखा में पैसे निकाल सकते हैं और उन्हें मजदूरी आने के बारे में कोई विश्वसनीय सूचना भी नहीं मिलती है।
